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बदले हुए दर्शक और दबाव में फ़िल्में

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यह कैसे संभव है कि जो कुछ समाज में और देश में बीत रहा हो, फिल्में उससे अछूती रह जाएं। यह फिल्म चले या न चले, मगर आखिरकार अनुभव सिन्हा को रिलीज से पहले ‘भीड़’ में कई बदलाव करने पड़े। अब इसमें लॉकडाउन की घोषणा में प्रधानमंत्री की आवाज़ नहीं है। फिल्म में जहां भी ‘प्रधानमंत्री’ आया वहां ‘मंत्री’ कर दिया गया। गालियों में बदलाव हुए। धर्म और जातियों से जुड़े कथन बदल दिए गए। ‘इंडिया का पार्टीशन लग रहा है’ वाला डायलॉग अब फिल्म में नहीं है और न यह कि ‘इंडियन सोसायटी धृतराष्ट्र जैसी है।’ इसी तरह ‘कोरोना जेहाद फैला रहा है’ वाले संवाद से ‘जेहाद’ हट गया। डिस्क्लेमर में भी बदलाव किया गया और पुलिस एक्शन की क्रूरता भी कुछ कम हो गई। यह सब उन टिप्पणियों का नतीजा है जिनसे सोशल मीडिया पर इस फिल्म के ट्रेलर को नवाज़ा गया। मगर इसके बाद भी अपने ज्यादातर दर्शक ‘भीड़’ को देखते समय एक तरह के दबाव में रहेंगे। वे राजनीति के किसी भी पाले के हिमायती हों, उनका नज़रिया और उनके पूर्वाग्रह उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ते। निरंतर उन पर दबाव बनाए रखते हैं।

किसका बायोपिक और क्यों?

यह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म लॉकडाउन लगने पर करोड़ों प्रवासी कामगारों की बड़े शहरों से पैदल घर वापसी की त्रासदी पर आधारित है। इसके निर्देशक और कलाकार बार-बार इसे एक मानवीय दुर्घटना का दस्तावेज बता रहे हैं। शायद इसे राजनीति से बचाने या दूर रखने के लिए। लेकिन समस्या यह है कि राजनीति को अलग रख कर इस त्रासदी का दस्तावेजीकरण संभव ही नहीं है। ऐसा किया भी जाए तो दस्तावेज अधूरा रह जाएगा, क्योंकि विभिन्न सरकारों के फैसले ही तो उस दुर्घटना का कारण बने थे। फिल्म में जाति भेद और वर्ग भेद को भी उठाया गया है। फिर भी, लोग इसमें राजनीति ही तलाशेंगे। अपने पंकज कपूर कितने भी नाराज हो लें, उनकी इस बात पर कोई ध्यान नहीं देगा कि यह हमारे समाज की मानसिकता बताने वाली फिल्म है और इसका राजनीति से कोई लेनादेना नहीं है।

फिल्मों के दर्शक पहले जैसे नहीं रहे हैं। पहले फिल्में दर्शकों को बदला करती थीं, अब राजनीति ने ज्यादातर दर्शकों को बदल दिया है। पहले भी फिल्में हिट या फ़्लॉप होती थीं। तब भी घरों और दोस्तों में फिल्मों पर बातें होती थीं। मगर अभिनेता-अभिनेत्रियों और दर्शकों के बीच दूरी इतनी ज्यादा थी कि उनका अभिनय, उनका मैनेरिज़्म और उनकी छवि ही उनकी पहचान थी। टेलीविजन आने पर यह दूरी कुछ घटी। मगर सोशल मीडिया ने आकर इसे पूरी तरह पाट दिया। उसने दर्शकों और उनके सपनीले हीरो-हीरोइनों को एक ही प्लेटफॉर्म पर ला खड़ा किया। वे जैसे बराबरी पर आ गए। दर्शकों में सबसे बड़ा बदलाव इसी से आया। माना जा रहा है कि फिल्मों के दर्शक अब ‘पैसिव कंज्यूमर’ भर नहीं रह गए हैं। वे रिएक्ट करते हैं। उनकी छोटी-छोटी प्रतिक्रियाएं मिल कर किसी बड़ी मुहिम की शक्ल ले लेती हैं जो कि ‘प्रैशर ग्रुप’ की तरह काम करती हैं। यानी दर्शक अब फिल्मकारों और अभिनेता-अभिनेत्रियों पर दबाव डाल सकने की स्थिति में हैं। आप लाख कहें कि बायकॉट के अभियानों का कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन ‘पठान’ और ‘तू झूठी मैं मक्कार’ की सफलता के बावजूद हमारे फिल्मकार दबाव में हैं। ऐसे फिल्मकारों की लंबी सूची है। अनुभव सिन्हा को भी उसमें जोड़ लीजिए।

ओटीटी प्लेटफ़ॉर्मों की भी टीवी चैनलों जैसी समस्या

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि सोशल मीडिया ने फिल्मों पर दर्शकों की प्रतिक्रिया का लोकतंत्रीकरण किया है। मगर इस चक्कर में हमारे लोकतंत्र की पार्टीबंदी और कट्टरता भी दर्शकों में आ गई है जो पहले नहीं थी या इतनी नहीं थी। किसी कलाकार का बेहतरीन अभिनय देखते वक्त भी लोगों के दिमाग में यह घुमड़ता रहता है कि अमुक मुद्दे पर इस अभिनेता ने क्या ट्वीट किया था। इस हालत में अभिनय बीच से हट जाता है और लोग केवल उस अभिनेता यानी उस व्यक्ति को देख रहे होते हैं। दर्शकों के अपने पूर्वाग्रहों का यही वह दबाव है जिसमें वे खुद फंस गए हैं और जिसे वे अभिनेताओं और फिल्मकारों को ट्रांसफर भी कर रहे हैं। दर्शकों का एक बड़ा वर्ग अपने इस दबाव को उन्हें ट्रांसफर करने के दबाव में है।

इसलिए, जिन पात्रों को वे परदे पर जी रहे होते हैं, उनकी बजाय अब वे नसीरुद्दीन शाह, अक्षय कुमार, अनुपम खेर, परेश रावल, शबाना आज़मी, दीपिका पादुकोन, कंगना रनौत, स्वरा भास्कर, रिचा चड्ढा आदि ज्यादा हैं, बल्कि पहले हैं। इस दबाव को लेकर तीनों खान भी निशाने पर हैं और करण जौहर अथवा विवेक अग्निहोत्री जैसे फिल्मकार भी। जिसकी जितनी ज्यादा हैसियत, उस पर उतना ही ज्यादा दबाव। वे इसे मानें या नहीं, पर वे इसे झेल रहे हैं। अब निपट देशभक्ति व एक्शन वाली ‘पठान’ रिकॉर्ड बनाएगी या फिर एकदम चॉकलेटी रोमांस की ‘तू झूठी मैं मक्कार’ चलेगी। लेकिन अगर आपने धर्म अथवा राजनीति के किसी पहलू को छुआ या किसी वास्तविक बड़े पात्र की नकल दिखाने या उसके उपहास का प्रयास किया, तो फिर आप ही जानें। बस यह ध्यान रखिए कि दर्शक अब बदल गए हैं और बंट गए हैं। पूरी कट्टरता के साथ।

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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