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’चश्मदीद का बहीखाता’ पन्ने-दर-पन्ने

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सरे राह चलते-चलते यूं ही ऐसे-ऐसे मिल गए कि मेरे पास इतने सकारथ संस्मरण इकट्ठे हो गए हैं कि, लगता है, अब मैं उन्हें एक-एक कर लिखना शुरू करने का हक़दार बन गया हूं। लेकिन ज़रा-सी हिचक अब भी बाकी है। संस्मरण-लेखन फूलों की सेज पर गुलाटी खाने का कर्म नहीं है। वह तो दुधारी तलवार पे धावनो है। इस तलवार की धार पर चलूं कि न चलूं? …लेकिन लिखना ही है तो यह सब क्या सोचना? लिखना ही है तो गोलमोल क्यों लिखना? काहे की उपन्यास शैली? कहानी, कविताओं और उपन्यासों से बात बनती तो फिर बात ही क्या थी? मैं नहीं कहता कि मेरी खड़कनाथी से बात बन जाएगी। न बने। मगर बात दूर तलक चली तो जाएगी। इतना ही बहुत है।

मध्यप्रदेश के ठेठ आदिवासी गांवों के टाटपट्टी स्कूलों से निकल कर, कस्बाई और शहरी कॉलेज-विश्वविद्यालयों से होते हुए, बंबई के अंधेरे-रोशनी को छूता-छाता, दिल्ली के बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग पहुंचे, टुकटुकी-आंखों वाले एक नव-युवा को, किसी दैवीय शक्ति ने अपनी हथेली पर बिठा कर, ठीक चालीस साल पहले, हौले-से मॉस्को की धरती पर उतार दिया। वह 1983 में फरवरी के पहले बुधवार की सुबह थी। आसमान से रुई के फोहों की तरह गिरती बर्फ़ तब तक मैं ने सिर्फ़ फ़िल्मों के उन दृश्यों में देखी थी, जिनमें कश्मीर की वादियों में कोई शम्मी कपूर अपनी सायरा बानो के पीछे याहू-याहू चीखते लोटमपोट-दौड़ लगाया करता था।

अगर आप एस्किमो नहीं हैं तो जब आप पहली बार अपनी हद्दे-नजर तक की धरती को बर्फ़ से ढंका देखते हैं और आकाश से मद्धम-मद्धम बरसती बर्फ़ को अपनी अंजुरी में लेने का कोशिश करते हैं तो कुछ समय के लिए सचमुच स्वर्ग-वासी हो जाते हैं। लगता है कि स्वर्ग अगर कहीं होता होगा तो ऐसा ही होता होगा। जुम्मा-जुम्मा दो-ढाई दशक पहले पृथ्वी पर आया कोई नाचीज़ बे-बात बादलों में पहुंच जाए तो कुछ दिनों तो पैर ज़मीं पर नहीं पड़ेंगे उसके! नहीं क्या? सो, अपने भी वे दिन व्योम-सफ़र के थे। मॉस्को से लेनिनग्राद, कीव, बाकू, मिंस्क, किश्नेव, ताशकंद, अश्ख़ाबाद, त्बिलिसी, तालिन, बुदापेश्त, वारसा, और प्राग के महीने-दर-महीने किन पंखों पर पसरे उड़ गए, मालूम ही नहीं हुआ।

जब आप जिज्ञासु होते हैं तो जीवन-रस बहुत गाढ़ा और मीठा होता है। जैसे-जैसे आप सर्वज्ञानी होने की गति को प्राप्त होते जाते हैं, ज़िंदगी के सारे रस एक-एक कर सूखने लगते हैं। उनकी मिठास में खटास घुलने लगती है। मैं ने बचपन में ही ऐसी कई सर्वज्ञान-संपन्न ऐंठी शक़्लें देख ली थीं कि अपने जिज्ञासु-भाव के कलश को छुटपन से अब तक ढक्कनविहीन रहने के लिए दिन-रात एक कर दिए। पीछे से आ रहे बहुत सारे चेहरों को अंतर्यामी बनता ताकता ज़रूर रहा, मगर मैं अपने कदंब की डाल से टस-से-मस नहीं हुआ। अब तक जस-का-तस उस पर बैठा हुआ हूं। जानने, समझने, खोजने की आतुरता जिस दिन ख़त्म होने लगे, समझ लीजिए, आप काठ के होने वाले हैं। काठ की काया का फिर कितना ही श्रंगार कीजिए, सब फ़िजूल है।

ख़बरनवीसी नसीब में थी तो देस-परदेस देखने-समझने को मिला। न्यूयॉर्क, वाशिंगटन, नेबरास्का, सिनसिनाटी, लास वेगास, शिकागो, सिडनी, मेलबोर्न, लंदन, फ्रेंकफ़ुर्त, सिंगापुर, कुआलालांपुर, हांगकांग, बीजिंग, शंघाई, मॉरिशस, रियाद, दुबई, शारजाह, अल-फ़ुजैरा, जाफ़ना, ढाका, एम्सटर्डम, सूरीनाम, नियामे, अदीसअबाबा – पता नहीं कहां-कहां – गुदगुदे टप्पे खाता घूमता रहा। बड़े और विख्यात राजनीतिकों के साथ भोजन-पानी हुआ। घटिया और कुख्यात दबंगों के साथ ताश-दारू हुई। मशहूर साहित्यकारों-लेखकों-कवियों-कलाकारों का सत्संग मिला। बदनाम सड़कों की चमचमाती खिड़कियों की रहवासिनियों के दिल-दिमाग़ टटोले। भले-बुरे सब तरह के लोग देखने को मिले। फटेहाल-मासूमों का दर्द साझा करने के अवसर भी मिले और धन-पशुओं के रेंकते झुंडों के बीच से भी गुज़रा।

बेवकूफ़ियां भी कीं। समझदारी भी दिखाई। मनमानी पर उतारू भी होता रहा और होनी पर सब छोड़ने की मजबूरी भी झेलता रहा। अब भी हर सुबह पराक्रम की ताल ठोकते हुए घर से निकलता हूं और  प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा तिरोहित कर शाम को घर लौट आता हूं। हर एक की ज़िंदगी की शुरुआत सारी दीवारों को तोड़ देने के परम-चरम आत्मबल से ही होती है। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता ज़्यादातर लोग समझ जाते हैं कि दीवारों से सिर टकराने का कोई फ़ायदा नहीं। दीवारें भले ही तब ढहती होंगी, जब उन्हें ढहना हो, मगर मुझे अब भी लगता है कि वे आपके ढहाए ढहें-न-ढहें, आपको उन्हें हर रोज़ एक धक्का तो ज़रूर देते रहना चाहिए। दीवारों पर अगर कोई दस्तक देगा ही नहीं तो उनमें दरवाज़े भला कहां से बनेंगे? सो, अपना यह काम मैं बिला नागा करता रहता हूं। आदमी अगर झोंक में न रहे तो उसका जीना ही मुहाल हो जाए। सो, मैं अपनी सनक को नियमित खाद-पानी देने में कोताही नहीं करता।

सरे राह चलते-चलते यूं ही ऐसे-ऐसे मिल गए कि मेरे पास इतने सकारथ संस्मरण इकट्ठे हो गए हैं कि, लगता है, अब मैं उन्हें एक-एक कर लिखना शुरू करने का हक़दार बन गया हूं। लेकिन ज़रा-सी हिचक अब भी बाकी है। संस्मरण-लेखन फूलों की सेज पर गुलाटी खाने का कर्म नहीं है। वह तो दुधारी तलवार पे धावनो है। इस तलवार की धार पर चलूं कि न चलूं? व्यक्तियों के बारे में न भी लिखूं और सिर्फ़ मुद्दों को अपना विषय बनाऊं तो भी व्यक्तियों के ज़िक्र से बच कर कैसे कुछ लिखा जा सकता है? व्यक्तियों का ज़िक्र करूं तो कड़वा-कडवा थू कैसे करूं? न करूं तो कितनों की दुश्मनी मोल लूं? अब तक का जीवन तो बैलों को बुला-बुला कर ख़ुद को पिटवाने में बीत ही गया। क्या अब सांडों को भी निमंत्रण भेजने लगूं?

सब लिख-लिखा दूं तो जो ज़िंदा हैं, लट्ठ लेकर मेरे पीछे दौड़ेंगे। जो चल बसे, उनके बाल-बच्चे ताताथैया करने लगेंगे। सो, थोड़े पसोपेश में हूं। डर नहीं रहा, ज़रा लिहाज़ में हूं। एक मित्र ने सलाह दी है कि उपन्यास की शक़्ल में लिख डालो। सांप भी मर जाएंगे और लाठी भी नहीं टूटेगी। सीधे लिखोगे, नामजद लिखोगे तो कोई अदालत में घसीट लेगा। कहां से कब-कब के प्रमाण जुटाओगे? बात तो सही है। यादों के सारे सबूत भला कौन जमा कर के रखता है? किसी ने रगड़ दिया तो न्याय की मूर्ति तो प्रमाण मांगने लगेगी। नहीं हुए तो झूठा करार दे देगी। अफ़वाहें फैलाने की तोहमत लगा कर, किसी की शान में गुस्ताख़ी करने का बहाना ले कर, भीतर करने का हुक़्म दे देगी। अपना तो वैसे ही कोई जमानतदार नहीं है। होता तो क्या यह हाल होता? तब तो और कोई नहीं मिलेगा।

लेकिन लिखना ही है तो यह सब क्या सोचना? लिखना ही है तो गोलमोल क्यों लिखना? काहे की उपन्यास शैली? कहानी, कविताओं और उपन्यासों से बात बनती तो फिर बात ही क्या थी? मैं नहीं कहता कि मेरी खड़कनाथी से बात बन जाएगी। न बने। मगर बात दूर तलक चली तो जाएगी। इतना ही बहुत है। कितनी ही सांकेतिक विधा में लिखो, निशाना तो जानता है कि तीर उसे ही लगा है। मगर मज़ा तो तब है, जब पूरे गांव को पता चले कि उड़ते तीर में कौन जा कर उलझा है। इसलिए तरकश तैयार करने की तैयारी शुरू कर रहा हूं। विषय-संक्षेप चुन रहा हूं। सोच-विचार चालू है कि अपने चरित-मानस के बालकांड में किन-किन के लिए चौपाइयां हों, अयाध्ेयाकांड में किन-किन के लिए दोहे हों, अरण्यकांड और किष्किंधाकांड के सोरठे किन-किन को समर्पित हों, सुंदरकांड में किन-किन को नवाजूं, लंकाकांड में किन से युद्ध करना है और उत्तरकांड किन-किन का उपसंहार बने।

तो बिस्मिल्लाह करता हूं। ‘वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपिय मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।’ सरस्वती जी और गणेश जी मेरी वंदना को स्वीकार करें! मेरी स्वातंःसुखाय गाथा में शामिल होने वाले समस्त प्राणियों को भावी-सदमे बर्दाश्त करने की शक्ति दें और मुझे निस्पृह, तटस्थ और निरपेक्ष भाव से उनकी मूरत उकेरने और भंजित करने का विवेक दें! बगुलों, गिरगिटों, बिच्छुओं, सर्पों, सियारों, गीदडों और भेड़ियों के अरण्य से गुज़रते हुए मैं आपको मासूम खरगोशों, निश्च्छल कुलांचे भरते हिरणों, बेलौस फ़ाख़्ताओं और निष्कपट तितलियों से भी रू-ब-रू कराऊंगा। इस लंबे रेतीले रेगिस्तान में जहां-जहां नखलिस्तान आएंगे, आप-हम साथ बैठ कर लंबी शाम बिताएंगे। जितनी वज़नदार आपकी दुआएं होंगी, ‘चश्मदीद का बहीखाता’ उतनी जल्दी आपके हाथों में होगा।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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