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मतदाताओं ने पूरे देश को मैसेज दिया!

मतदाताओं ने पूरे देश को मैसेज दिया!

लोकतंत्र में लोक ही अपने वोटसे नीति का तंत्र चलाता है। जनता बेशक अलग-अलग राज्य, अलग-अलग पंथ-जमात या अलग-अलग मान-मर्यादा से जुड़ी हो मगर सम्मान, सौहार्द और सद्भाव ही सभी का नैसर्गिक व्यवहार है। जनसेवकों को यह अच्छे से जान लेना चाहिए की जनतंत्र में जनता ही जनार्दन है।

सत्ताएं बेशक जो समझें मगर लोकतंत्र तो लोक के मत से ही चलता-बनता है। और लोक का मत अपने समय पर ही बनता-बिगड़ता है। दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत में चुनाव चलते ही रहते हैं। इसलिए जनसेवकों को लगातार जनता के सामने हाथ जोड़कर वोट मांगने जाना ही पड़ता है। अपने काम और व्यवहार का हिसाब देना ही पड़ता है। जनता भी इनकी राजनीति खूब जानती-समझती है। वह अपने मत के लिए समय का इंतजार भी संयम और शांति से करती है। ऐसे ही लोकतंत्र का उत्सव शांतिपर्व में चलता रहना चाहिए।

कर्नाटक विधान सभा में आया जनता का फैसला कई मायनों में महत्व का रहा। कर्नाटक की जनता ने अपनी सूझबूझ, स्थानीय मुद्दे और पिछली सरकार के कामकाज को देखते हुए जो जनमत दिया है उसे सारे देश ने बारिकी से देखा-समझा है। देश की जनता को भी अपनी प्रजातांत्रिक सर्वसत्ता का भान ऐसे ही चुनावों के फैसलों से होता है। लोकतंत्र समृद्ध होता है। जनसेवा के चुनाव व्यक्तिवाद से उपर उठकर किए जाएं तभी समाज भी हर तरह से संपन्न होता है।

कर्नाटक ने चली आ रही सरकार में रहे जनसेवकों के कामकाज का आंकलन किया और अपना फैसला दिया। आने वाली सरकार को जनसेवा का मौका दिया और जो-जो नहीं करना है वह सबक भी समझाया। भारतीयता, हिन्दूत्व और लोकतंत्र के विचार पर भी अपना मत रखा।

कर्नाटक राज्य का राष्ट्र जीवन में भौतिक, सामाजिक और व्यवहारिक कई तरह के महत्व है। कर्नाटक भारतीय व्यवहार-विचार की विरासत को उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर में तो जोड़ता ही है, इसके अलावा अनेकता के सांस्कृतिक-सामाजिक तानेबाने को भी बुनता-सहेजता रहा है। हिंदी बोलने वाले, हिन्दू बहुलता के हिन्दुस्तान में कर्नाटक ने हिन्दूत्व के कट्टरपन की प्रयोगशाला बनने से खुद को फिर नकारा।

अति-राष्ट्रवाद को जनता के पंथ-जमात से जोड़ने के जोर पर, पंथ-जमात की भीड़ जुटाने व सत्ता दिखावे पर, और तैंतीस-कोटी देवी-देवताओं की मान्यता के देश में धार्मिक पूनर्जागरण के नाम पर एक-सौ अड़तीस करोड़ लोगों पर कुछ भी थोपना क्यों गलत नहीं माना जाए? और क्यों उसी देश में अलग-अलग मान्यताओं के लोगों पर रोज़मर्रा के व्यवहार में नफरत का ज़हर फैलाया जाए? इन सब बातों में कर्नाटक ने अपनी मंशा साफ कर दी है।

कर्नाटक ने सारे देश को दिखा दिया है कि एक ही लाठी से उनको भी हांकने की कोशिशे विफल ही रहने वाली हैं। पंथ-जमात के पचड़े में न पड़ते हुए सद्भाव के भाईचारे से, खुद की रोज़ी-रोटी कमाने, निभाने की स्वतंत्रता कर्नाटक के लोगों को ज्यादा प्रिय रही। कर्नाटक की जनता ने देश की जनता को यह भी दर्शाया है कि की समाज के सद्भाव का सह-जीवन पंथ-जमात के पचड़े से विरक्त, विवेकी और विशाल है। यह कि इसको आज के राजनीतिक माहौल में भी समझा जा सकता है। जनता सत्ता के विरोध में भी एक-जुट खड़ी हो सकती हैं। और चुनावी तौर पर खड़े नैतिक जनसेवकों के द्वारा भ्रष्ट, भरमाने वाले जनसेवकों से लड़ा भी जा सकता है। तभी कर्नाटक के विधान सभा चुनाव का मैसेज देश के लोगों के लिए बहुत मायने वाले है।

इस साल देश मेंकुल। नौ राज्यों के चुनाव होने है। त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में जनता ने चली आ रही सरकारों पर फिर से भरोसा जताया। कर्नाटक ने समाज में फैल रहे भ्रम और पल रहे भ्रष्टाचार के लोकतांत्रिक विरोध की शुरूआत की है। सवाल है क्या राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना भी अपने सर्वशक्तिमान मत से सत्ता के अनर्थ का विरोध लोकतांत्रिक तौर पर कर सकती है?

लोकतंत्र में लोक ही अपने वोटसे नीति का तंत्र चलाता है। जनता बेशक अलग-अलग राज्य, अलग-अलग पंथ-जमात या अलग-अलग मान-मर्यादा से जुड़ी हो मगर सम्मान, सौहार्द और सद्भाव ही सभी का नैसर्गिक व्यवहार है। जनसेवकों को यह अच्छे से जान लेना चाहिए की जनतंत्र में जनता ही जनार्दन है।

Published by संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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