nayaindia Ram Gopal Bajaj Andha Yug दो दशक बाद फिर बज्जू भाई का 'अंधा युग'
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दो दशक बाद फिर बज्जू भाई का ‘अंधा युग’

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भोपाल। नाटक शुरू होते ही नेपथ्य में आवाज गूंजती है, सूत्रधार के नैरेशन की। यह जानी पहचानी आवाज है प्रो. रामगोपाल बजाज की जिसका जादू दर्शकों को बांध लेता है। भारतीय रंगमंच के शीर्ष निदेशक रामगोपाल बजाज के निदेशन में कोई नाटक देखना दुर्लभ अनुभव होता है। काफी समय से उन्होंने कोई नाटक संभवतः तैयार नहीं किया है। हाल ही में भारत भवन में आयोजित नाट्य समारोह में उनके निर्देशन में तैयार नाटक ‘अंधा युग’ देखने को मिला। इस समारोह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रेपटरी कंपनी के तीन नाटकों का मंचन किया गया लेकिन बज्जू भाई प्रो. बजाज की चाहने वाले उन्हें इसी नाम से संबोधित करते हैं। द्वारा निर्देशित नाटक को देखने का अपना रोमांच था।

’अंधा युग’ का निर्देशन अलग-अलग समय पर अलग-अलग रंगकर्मियों के साथ बज्जू भाई ने पहले भी किया है लेकिन वह प्रदर्शन देखने से वंचित था। उनके द्वारा निदेशित ’अंधा युग’ पहली बार देख रहा था। ऐसा अद्भुत नाटक मेरे सहित भोपाल के दर्शकों ने पहली बार देखा होगा। ’अंधा युग’ की कहानी से प्रायः सभी किसी न किसी रूप से परिचित होंगे लेकिन बज्जू भाई का ’अंधा युग’ देखते हुए मेरे लिये नाटक का कथ्य महत्वपूर्ण नहीं रह गया था, रोमांचित कर रहा था तो उसकी प्रस्तुति और कलाकारों का अभिनय संगीत, प्रकाश, वस्त्र विन्यास और संवाद अदायगी सब कुछ दर्शकों को महाभारत के कालखंड में ले जाता है। जिस नाटक का निर्देशन प्रो. रामगोपाल बजाज के साथ प्रकाश परिकल्पना साउती चक्रवर्ती तथा वस्त्र विन्यास अंबा सान्याल ने किया हो, तो उसका अद्भुत होना लाजिमी है। बावजूद यह नाटक तो बज्जू भाई का ही नाटक था।

एनएसडी रेपटरी कंपनी में प्रो. बजाज ने दो दशक पहले इसी ’अंधा युग’ नाटक का निदेशन किया था और अब रेपटरी कंपनी के प्रमुख राजेश सिंह की पहल पर एक बार फिर उन्होंने अपने निर्देशन में ’अंधा युग’ नाटक तैयार किया जिसका प्रदर्शन देश भर में हो रहा है। ‘अंधा युग’ महाभारत युद्ध की विभीषिका और उससे जुड़े चरित्रों की मनोदशा को चित्रण करने वाला कालजयी नाटक है। डॉ. धर्मवीर भारती द्वारा रचित इस नाटक का मंचन लगभग सात दशक से हो रहा है और समकालीन राजनीतिक हालातों में और अधिक प्रासंगिक बना हुआ है। प्रो. बजाज खुद कहते हैं कि हम आज ‘अंधा युग’ में जी रहे हैं।
भारत भवन में बहुत समय बाद नाटक के निःशुल्क प्रदर्शन की परंपरा को छोड़ते हुए इस बार टिकट से प्रवेश रखा गया और पूरा आडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। यह रंगकर्मियों की इस धारणा को खंडित करता है कि टिकट खरीद कर दर्शक नाटक देखने नहीं आता ’अंधा युग’ नाटक की भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है।

उसके बाद भी उसकी भाषा दर्शकों को सम्मोहित करती है। मुझे इस नाटक में सबसे अधिक प्रभावित किया कलाकारों के अभिनय और उनकी संवाद अदायगी ने। ”वायस और स्पीच“ इस नाटक की ताकत लगी। पात्र अपने संवाद अदायगी से अपनी पहचान बना रहा था। आंखे बंद कर केवल संवाद सुनकर यह पता चल जाता था कि संवाद बोलने वाला धृतराष्ट्र है, विदूर है, संजय है या अश्वत्थामा या कोई अन्य।

आवाज और संवाद का जादू का असर कलाकारों के परिपक्व अभिनय से और बढ़ गया था। सवा दो घंटे की लंबी अवधि का होने के बाद भी नाटक एक क्षण के लिये भी बोझिल नहीं लगता। मनोरंजन का ऐसा कोई तत्व नाटक में नहीं था जो पल भर के लिये भी दर्शकों को हंसाता हो, लेकिन अपनी प्रभावी प्रस्तुति के चलते नाटक दर्शकों को पूरी तरह अपने साथ बांधे रखता है। प्रसिद्ध नाट्य समीक्षक भाई संगम पांडे ने ’अंधा युग’ के इस मंचन पर लिखा ”प्रो. बजाज ने अरसे बाद वाचिक के वैभव की प्रतिष्ठा की है।“ इस लेख के साथ दी जा रही तस्वीर भी मैंने आदर और आभार सहित उन्हीं के फेसबुक से ली है।
’अंधायुग’ जहां दर्शकों को महाभारत काल में लेजाकर एक नये नाट्य अनुभव से समृद्ध करता है तो दूसरी ओर रंगकर्मियों के लिये वायस और स्पीच सीखने का माडल प्रस्तुत करता है।

83 वर्षीय प्रो. बजाज, में आज भी इतनी उर्जा है जो आज के नौजवानों भी न हो। रेपटरी प्रमुख राजेश सिंह बताते हैं कि नाटकों की तैयारी के दौरान वे 12-13 घंटे तक रिहर्सल में रहते थे। कोरोनाकाल में मैंने उन्हें कई वेवनार में सुना है। बज्जू भाई की यह उर्जा और नाटकों में उनकी वापसी भारतीय रंगमंच के लिये सुखद आश्वस्ति लाने वाली है। इस दौरान बज्जू भाई ने रेपटरी के लिये एक नहीं दो नाटक तैयार किये। उनके निदेशन में तैयार दूसरा नाटक लैला मजनू ”है जो कथ्य और प्रस्तुति मैं ‘अंधा युग’ से किन्तु अलग है।

एनएसडी रेपटरी कंपनी पेशेवर रंगमंच और रंगकर्मी विकसित करने के लक्ष्य के साथ पिछले 6 दशक से कार्यरत है जिसमंे एनएसडी पास आउट रंगकर्मियों के अलावा बाहर के रंगकर्मियों की सहभागिता रही है। इब्राहिम अलका जी से लेकर अजय कुमार तक अनेक जाने माने रंग निर्देशकों ने रेपटरी के नाटक समय-समय पर निदेशित किये। बहरहाल राजेश सिंह जैसे अनुभवी और समावेशी रंग निदेशक के रेपटरी प्रमुख बनने के बाद जो सक्रियता दिख रही है वह काबिले तारीफ है। उन्हीं के प्रयासों से प्रो. बजाज दो दशक बाद फिर रेपटरी में नाटक निर्देशन करने आ पाये।

मेरा अनुभव यह बताता है कि संस्कृति के क्षेत्र में सरकारें संस्थाये ंतो निर्मित कर देती है लेकिन उसे सार्थक और प्रासंगिक बनाना उस संस्था के प्रमुख पर निर्भर करता है। यदि वह संस्था का उपयोग अपनी प्राण प्रतिष्ठा यानी अपने को स्थापित करने में करता है तो न तो वह स्थापित होता और न संस्थान लेकिन जब वही संस्थान प्रमुख संस्थान के लिये काम करता है तो संस्था जीवंत हो उठती है, उसकी सार्थकता व प्रासंगिकता बढ़ जाती है और जाहिर है इसका श्रेय संस्था प्रमुख को ही मिलता है। एनएसडी रेपटरी भी इसका उदाहरण है और मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय भी जिस पर जल्दी ही लिखूंगा।

एनएसडी रेपटरी कंपनी की स्थापना पेशेवर रंगमंच को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। देश के सर्वश्रेष्ठ रंग निदेशकों द्वारा रेपटरी के नाटक तैयार किये जाते रहे हैं जिन्हें पूरी तौर पर पेशवर नाटक कहा जा सकता है। इन नाटकों का व्यवसायिक महत्व रहा है तथा इनका प्रदर्शन यदि पेशेवर तरीके से किया जाता तो वे नाटक सालों तक चलते रहते। ऐसा क्यों नहीं हुआ या कहें तो रेपटरी खुद अपने आपको पेशेवर रंगमंडल के रूप में विकसित क्यों नहीं कर पाई, मुझे ठीक-ठीक पता नहीं लेकिन इस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। हालिया नाटकों को लेकर रेपटरी प्रमुख राजेश सिंह का अनुभव बताता है कि 100 से 300 रु. की टिकट में भी नाट्य प्रदर्शन हाउसफुल रहा। सरकारी संस्था होने के नाते टिकट की अधिक कीमत रखी नहीं जा सकती वर्ना उसमें भी नाटक हाउसफुल हो सकता था। एनएसडी उत्तीर्ण करने के बाद रंगकर्मियों में नाटक की सुपर स्पेशलिटी विकसित करने में भी रेपटरी का रिकार्ड बेहद अच्छा रहा है। फिल्मों में अच्छा नाम और काम पाने वाले कई अभिनेता बड़े गर्व से बताते है कि फिल्मों में आने के पहले उन्होंने रेपटरी में काम किया है।

देश के अनेक नाट्य समूहों को रेपटरी अनुदान दिया जाता है। इसका उद्देश्य यही था कि वे अपने आपको पेशेवर रंग समूह के रूप में विकसित करें लेकिन शायद ही कोई रंग समूह होगा जिसने अपने आपको पेशेवर रंग मंडल के रूप में विकसित किया हो तथा सरकारी अनुदान से अपने को मुक्त करने की कोशिश की हो। एनएसडी रेपटरी की सक्रियता के साथ अब इस बात पर विचार किये जाने की जरूरत है कि हिन्दी में पेशेवर रंगमंच कैसे तैयार किया जाये।

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