मृत्युशैय्या पर लोकतंत्र, हम खुद जिम्मेवार!

एक साबित हुई बात है कि लोकतंत्र एक दिन में नहीं मरता। बल्कि उसे व्यस्वथित और योजनाबद्ध ढंग और जानते-बूझते मारा जाता है। इतिहास और वर्तमान – दोनों हमें यही बताते हैं।… हम इतने जड़ और नादान हो गए हैं कि सबका जीना मुश्किल हो गया है लेकिन अनिश्चितता और डर हवा में घुले हुए हैं परंतु मेरे मित्र और उनके परिवार इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। उनका बहाना है कि कोई विकल्प ही नहीं है। ….वे भूल जाते हैं कि राजनीति में कभी कोई विकल्प होता नहीं है। जनता को विकल्प का निर्माण करना होता है।या तो आप पहले प्रजातंत्र को बचाएं और फिर विकल्प ढूंढे। या फिर आप विकल्प ढूंढ़ते रहें, भले ही इस बीच प्रजातंत्र ही समाप्त हो जाए। मर्जी है आपकी, आखिर देश है आपका।

फिक्र बहुत है और सभी तरफ है। होली के धमाल के बीच मभी देश के बिगड़ते हालात पर चिंता का इज़हार हुआ। ठीक उसी तरह जैसे पिछले साल होली में कश्मीर फाईल्स की रिलीज और उस पर मचे राजनैतिक कलह के बाद हुआ था। इस बार चिंता का सबब था विपक्षी दलों के नेताओं के यहां छापे और उनकी जेल यात्राएं।‘‘यार, अगर ये लोग अपोजीशन खत्म कर देंगे तो डेमोक्रेसी कहां रहेगी,” एक मित्र ने फरमाया।

जाहिर है हम, आप, हमारे घरवाले, हमारे पडोसी, हमारे दोस्त, हमारे सहकर्मी – कुल मिलाकर सभी बहुत फिक्रमंद हैं। हम चिंता में घुले जा रहे हैं कि भारत में लोकतंत्र मरणासन्न है।

अब मैं कैसे समझाऊ कि जो है उसके लिए वह खुद जिम्मेवार है। कैसे समझाऊं कि वह, उसका परिवार, उसका समुदाय और उसका समाज – सभी लोकतंत्र को मृत्युशैय्या की और ले जाने के लिए ज़िम्मेदार हैं

कैसे?

यह एक तथ्य है, एक साबित हो चुकी बात है कि लोकतंत्र एक दिन में नहीं मरता। बल्कि उसे व्यस्वथित और योजनाबद्ध ढंग और जानते-बूझते मारा जाता है। इतिहास और वर्तमान – दोनों हमें यही बताते हैं।

बीस साल पहले जब व्लादिमीर पुतिन रूस की सत्ता पर बज़रिये चुनाव काबिज हुए थे तब यह उस देश में सत्ता का पहला लोकतांत्रिक हस्तांतरण था। बोरिस येल्स्तिन की तुलना में पुतिन एकदम चमकदार और डबल रिन से धुले लगते थे। उनकी भाषा में एक नयी महक और ताजगी थी। वे टैक्स प्रणाली को बदलने की बात करते थे। यूरोप को दानव नहीं बताते थे और सोवियत संघ के पतन के बाद रूसी अर्थव्यवस्था के पुर्तगाल को पीछे छोड़ने के इच्छुक थे।

इतना ही नहीं उन्होंने राजनीति, नागरिक स्वतंत्रताओं और अर्थव्यवस्था में सरकार के हस्तक्षेप के विरूद्ध आगाह किया। इस सब के लिए पुतिन की जम कर प्रशंसा हुई। वे रूसी जनता के हीरो और मसीहा बन गए। यहाँ तक कि पश्चिम ने भी उनकी ओर सफेद झंडे लहराने शुरू कर दिए। पुतिन स्वयं की छवि रूस के एक आम नागरिक की बनाई और इस छवि का भरपूर इस्तेमाल किया।

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आज बीस साल बाद पुतिन का अनुभव क्या है? वे रूस और उसकी जनता को अपनी ऊंगलियों पर नचा रहे हैं उन्होंने दुनिया को अनिश्चितता और अराजकता के रसातल में धकेल दिया है। ऐसा नहीं है कि दुनिया को मालूम नहीं था कि पुतिन असल में चाहते क्या हैं। लेकिन सभी लोग या तो भूल गए – या उन्हें भूलना ठीक लगा  – कि इस आम रूसी ने सोवियत संघ के विघटन को “शताब्दी की सबसे बड़ी भू-राजनैतिक विभीषिका” कहा था। दुनिया बड़ी आसानी से भूल गई कि पुतिन पुराने सोवियत साम्राज्य की वापसी का स्वप्न देख रहे हैं। जब पुतिन के खलों की टीम लोकतांत्रिक संस्थाओं को सशक्त करने की बजाए उन्हें अशक्त कर स्वयं को शक्तिशाली बनाने में जुट गई तब भी किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया या उसे अनदेखा किया।

देश की अर्थव्यवस्था और न्याय प्रणाली पर कब्जा जमाने के बाद पुतिन के गुर्गों ने मनमाने नियम बनाए। पश्चिम को कमजोर करने के प्रयास शुरू कर दिए ताकि पुतिन आजीवन रूस के शासक बने रह सकें। समय का पहिया पूरा घूम चुका है। अब पुतिन ही रूस हैं और रूस ही पुतिन है। पुतिन ने दूसरे देशों की धरती पर कब्जा किया।पड़ोसियों के साथ युद्ध छेड़ा और देश में अपने प्रबलतम विरोधी, एलेक्सी नवेलनी को जहर देकर जेल में डाल दिया।

वे पश्चिमी देशों के चुनावों में भी दखलअंदाजी करने लगे (डोनाल्ड ट्रंप की जीत उनकी बदौलत बताई जाती है)। उन्होंने निकारागुआ, वेनेजुएला और अन्य देशों के तानाशाहों, जो कम से कम स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का भ्रम बनाए रखना चाहते थे, की बुद्धि भ्रष्ट कर दी। अब वे भी अपने विरोधियों को कैद कर रहे हैं और विपक्ष को प्रचार करने का मौका नहीं दे रहे हैं।

एडोल्फ हिटलर के मामले में भी ठीक यही हुआ था। उसके इरादों से सभी वाकिफ थे। परन्तु उसके यहूदी-विरोधी तेवरों और भाषणों के लिए उसे जोरदार वाहवाही और सम्मान मिलता था। इसी की बदौलत उसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक चुनावों में जीत मिली और इसके बाद उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही मिटा दिया और दुनिया को युद्ध की एक ऐसी आग में धकेला जो मानव इतिहास में अभूतपूर्व थी।

एक नाकाम विद्रोह के बाद हिटलर को जेल में डाल दिया गया। परन्तु जेल में लिखे गए अपने संस्मरण “मीन कैम्फ” (मेरा संघर्ष) में भी हिटलर ने अपने यहूदी विरोधी और प्रजातंत्र विरोधी विचारों को दोहराया।

इतिहास अब अपने आपको दुहरा रहा है। रजब तैयब इरदुआन से लेकर निकोलास मादुरो और उनसे लेकर विक्टर ओरबान, डोनाल्ड ट्रंप, जैर बोल्सनारो और व्लादिमीर पुतिन तक, हम प्रजातंत्र का सुनियोजित ढंग से गला घोंटा जाना देखते रहे हैं। यह काम जल्दबाजी में नहीं किया जाता बल्कि बहुत हौले-हौले और सावधानी के साथ इसे अंजाम दिया जाता है। यह एक लंबी अवधि की परियोजना होती है। एक ओर स्वतंत्र मीडिया, न्यायपालिका और कार्यपालिका का दिखावा बनाए रखा जाता है तो दूसरी ओर आलोचना को कुचला जाता है, विपक्ष को पंगु बना दिया जाता है और लोगों को इस भ्रम में रखा जाता है कि पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन होने जा रहा है।

पिछले कुछ दिनों की सुर्खियों पर ध्यान दें: ‘‘सीबीआई मामले में उनकी जमानत पर सुनवाई के एक दिन पहले ईडी ने सिसोदिया को गिरफ्तार किया” (द इंडियन एक्सप्रेस, 10 मार्च) ‘‘सीबीआई ने जमीन के बदले नौकरी मामले में लालू से पूछताछ की”, ईडी ने बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के दिल्ली और बिहार स्थित आवासों पर छापा मारा” (एनडीटीवी, 8 एवं 10 मार्च), ‘‘चुनाव वाले राज्यों में भाजपा ईडी और सीबीआई का कर रही अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरूद्ध उपयोगः बीआरएस” (द हिन्दू, 10 मार्च)।

इन सब सुर्खियों का क्या मैसेज है? सब जानते और समझते हुए है। सत्तारूढ नेता जानते है तो नागरिक, सिविल सोसायटी सब जानते है। गैर-भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को मालूम हैं और नौकरशाही को भी पता है कि वे क्या कर रहे है और क्या हो रहा है। ईडी और सीबीआई को अच्छे से ज्ञात है कि उन्हें किस के पीछे लगना है। केवल आम लोगों को छोड़कर हर कोई जानता है। या शायद वे भी जानते हों – आखिर कहते हैं न कि ये पब्लिक है और सब जानती है।

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जो हो रहा है वह सबके सामने है। परंतु जनता फिर भी इसे अनदेखा कर रही है। कहा जा रहा है कि देश हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है। हिन्दू राष्ट्र के स्वागत में बज रही तालियों के शोर के बीच शायद लोग और कुछ सुन ही नहीं पा रहे हैं। वे केन्द्रीय मंत्री रिजुजू की इस ट्वीट के निहितार्थ नहीं समझ पा रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा कि ‘‘भारत के लोग जानते हैं कि राहुल गांधी पप्पू हैं। परंतु विदेशियों को यह नहीं मालूम की वह सचमुच पप्पू है”।

हम इतने जड़ और इतने नादान हो गए हैं कि टैक्स बढ़ते जा रहे हैं, रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चीजों के दाम चढ़ते जा रहे हैं, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, जिसने अभी-अभी इंग्लैंड को पीछे छोड़ा है, में सबको रोटी, कपड़ा और मकान नसीब नहीं है। फिर भी कोई शोर नहीं हो रहा है। हम सब चुप हैं। अनिश्चितता और डर हवा में घुले हुए हैं परंतु मेरे मित्र और उनके परिवार इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। उनका बहाना है कि कोई विकल्प ही नहीं है।

वे भूल जाते हैं कि राजनीति में कभी कोई विकल्प होता नहीं है। जनता को विकल्प का निर्माण करना होता है। हमारे दिमागों पर इस तरह से कब्जा कर लिया गया है कि हमें भविष्य की सोचकर भले ही कितनी ही घबराहट होती हो परंतु हमें कोई विकल्प, कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आता।

तो इसलिए हम यह न कहें कि ‘‘ये सरकार यदि अपोजिशन खत्म कर देगी तो डेमोक्रेसी कहां रहेगी”। जो हो रहा है उसमें हमारा भी बराबर का योगदान है। हम भी उसमें भागीदार हैं। बल्कि हमने ही उस खतरे को उभरने दिया है। या तो आप पहले प्रजातंत्र को बचाएं और फिर विकल्प ढूंढे। या फिर आप विकल्प ढूंढ़ते रहें, भले ही इस बीच प्रजातंत्र ही समाप्त हो जाए। मर्जी है आपकी, आखिर देश है आपका।

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Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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