nayaindia India Russia हम हिंदू और रूसी एक से
अपन तो कहेंगे

हम हिंदू और रूसी एक से, तभी जैसे पुतिन वैसे मोदी!

Share

तथ्य और सत्य है कि हिंदुओं की तरह रूसियों का भी भीषण गुलामी का इतिहास है। रूसियों के बंधुआ जीवन का इतिहास यों भारत से कुछ सदी कम है मगर उनका गुलाम जीवन का सर्फडोम अनुभव बहुत त्रासद। रूसी जनता जमीन के टुकड़ों में पिंजराबंद जिंदगी जीते हुए थी। मतलब राजा पृथ्वी का मालिक और उससे शासक-सामंतों को बंटी हुई जमीन। वह जमीन फिर किसानों का पिंजरा। किसान उससे नत्थी-बंधे हुए। वहां 12 वीं शताब्दी में गुलामी की यह सर्फडोम व्यवस्था चालू हुई। सन् 1700  में सामंती वर्ग का मनुष्यों पर ऐसा मालिकाना था कि मालिक लोग जमीन भले एक दूसरे को नहीं बेचें लेकिन वे खेती के बंधुआ किसानों को एक-दूसरे को बेच-खरीद सकते थे। तभी हम हिंदुओं ने विदेशियों की गुलामी से दिमाग को गुलाम और गंवार बनाया वही रूसियों ने अपने ही सामंतों-राजाओं-जारशाही के अधीन पशुओं जैसा जीवन जी कर अपने दिमाग में पालतू-बर्फीले भालू की तासीर पाई।

इसलिए वहां जारशाही के बाद स्टालिनशाही आई, साम्यवादी तानाशाही रही।1989 में लोकतंत्र का झोंका बना तो वह भी कोई दशक बाद व्लादिमीर पुतिन के हाथों वापस पिंजरा हो गया। रूस में जार की भी पूजा होती थी। लेनिन, स्टालिन की भी थी तो ब्रेझनेव-येल्तसिन की भी थी। फिलहाल बीस वर्षों से पुतिन की हो रही है।

कमोबेश ऐसे ही हिंदुओं ने अकबर-अंग्रेज की मनसबदारी की तो 1947 में आजादी के बाद नेहरू, इंदिरा और फिलहाल नरेंद्र मोदी को वे भगवान माने हुए हैं। प्रधानमंत्री की सत्ता माई-बाप सरकार है। उसके नमक के अहसान में गुलाम लोग वैसे ही वोट डालते हैं जैसे पुतिन के लोकतंत्र का नमक खाते हुए

पालतू रूसी जनता डालती है।

कई दशक पहले लेखक मैक्सिम गोर्की ने ‘अनटाइमली थॉट’ (Untimely Thoughts) में रूसी मानस की दशा का खुलासा करते हुए लिखा- वे शापित हैं जो मन की बात व्यक्त करें। (पता नहीं कैसे मारे जाए)..मैं खास तौर से उन रूसियों के प्रति संदिग्ध, अविश्वासी हूं जो सत्ता में हैं। वे हालिया, खुद क्योंकि गुलाम रहे है, तो उसने ज्योंहि पड़ोसी के बगल में अथोरिटी पाई तो फिर वह अपने आप बेलगाम तानाशाह बना हुआ।… हम हाल तक दास रहे, इसलिए बाहरी दासता को छोड़ने के बाद भी हम, खुद को भीतर गुलाम महसूस करना जारी रखते हैं।

तभी चेखोव की टिप्पणी थी- दासता को बूंद-बूंद से निचोड़ना चाहिए (squeeze the slave out of us drop by drop)। रूस में लोगों की दासता संस्थागत रूप में थी। 1915 में रूसी दार्शनिक निकोलाई बर्डिएव नेलेख ‘रूसी लोगों का मनोविज्ञान’ में लिखा- रूस अविश्वसनीय दासता और भयानक दीनता का देश है, एक ऐसा देश, जिसमें मनुष्य में मानवाधिकारों की कोई चेतना नहीं है, जहां व्यक्ति की गरिमा के लिए कोई खड़ा होने को तैयार नहीं है।

इस सत्य पर मैक्सिम गोर्की का और खुलासा है। उन्होंने लिखा है- रूसी लोग जिन परिस्थितियों में रहते थे, उससे न तो व्यक्ति के प्रति सम्मान बनना संभव था, न नागरिक अधिकारों को बढ़ावा मिलना या न्याय की भावना बन सकना। वे बिना किसी अधिकार के जीते थे। हर तरह के उत्पीड़नों, बेशर्मी से कहे झूठ और क्रूरता के अधीन थे। आश्चर्य ही होता है कि बावजूद इसके लोगों में मानवीय भावनाओं और सामान्य समझ का कम ही सही कुछ अंश बचा है।

सोचें, इन वाक्यों को हिंदू मनोदशा के संदर्भ में। राजा की गुलामी में जीना और मरना  भले राजा कोई भी हो। क्या यह रूसियों और हिंदुओं की राम मिलाई जोड़ी वाले लिंक नहीं है?

इसलिए जैसे रूसी जनता जीवन जी रही है वैसे हिंदू जीवन जी रहे हैं। जैसे उनका लोकतंत्र वैसा हमारा लोकतंत्र। जैसी उनकी व्यवस्था वैसी हमारी व्यवस्था। जैसे व्लादिमीर पुतिन वैसे ही नरेंद्र मोदी!

हां, रूस और भारत दोनों ही गुलाम-भयाकुल दिमाग के लोकतांत्रिक देश हैं। वहां भी चुनाव होता है। पुतिन निर्वाचित राष्ट्रपति हैं। वहां विपक्ष है। अदालत है तो मीडिया भी है। वहां संसद में ताली बजाकर, सांसद खड़े होकर राष्ट्रपति पुतिन का वैसे ही स्वागत करते हैं जैसे जारशाही के सम्राटों का उनके दरबार में हुआ करता था। इसलिए सन् 2024 में भारत की भव्य नई बिल्डिंग के संसद कक्ष में यदि मास्को (या बीजिंग की संसद में शी जिनफिंग) की तर्ज पर भारत के सासंदगण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सैनिक अनुशासन से या संघ के दक्ष-आरंभ में अभिनंदन करें और उन्हे उम्रपर्यंत प्रधानमंत्री नियुक्त करने का संविधान संशोधन लाएं तो वह अनहोनी बात नहीं होगी।

और सच बताऊं, मैं भी हिंदू मनोदशा को बूझते-बूझते चाहने लगा हूं कि हिंदुओं को, कलियुग में यह प्रयोग कर डालना चाहिए। हम हिंदुओं को अपने प्रधानमंत्री को अवतारी भगवान घोषित कर देना चाहिए। ताकि बाद में ही सही कौम सत्य समझे कि अवतार की धारणा और भक्ति का अंत परिणाम क्या होता है! बीस-तीस साल बाद देश रहे या न रहे अभी यदि वह साबुत है तो हिंदुओं को अपना चक्रवर्ती राजाधिराज बनाने का भी प्रयोग कर लेना चाहिए। खुद नरेंद्र मोदी को ही राष्ट्रपति शी जिनफिंग की तरह अपने को उम्रपर्यंत का हिंदू सृष्टिपालक घोषित कर देना चाहिए।

जाहिर है नरेंद्र मोदी हैं तो सब मुमकिन है। पुतिन हैं तो सब मुमकिन है। तभी मन में खटका है कि सन् 2024 से भारत हिंदू राजनीति की रियल झांकी लिए होगा। बेसिक बात है कि अगला लोकसभा चुनाव केवल नरेंद्र मोदी की वापसी का नहीं है, बल्कि उनके बाद के हिंदू राष्ट्र के कंसोलिडेशन का है। भगवा सत्ता को फौलादी और पक्का बना देने का है।

वैसे ही जैसे पुतिन ने बनाया है। सन् 2024 में रूस जैसा भारत में होना विपक्ष के सियासी आईसीयू में जाने से होगा। सोचें, क्या उसका प्रोसेस चालू नहीं है? अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को हम क्या आईसीयू में नहीं मानें? उद्धव ठाकरे, तेजस्वी यादव आईसीयू में हैं या नहीं? राहुल गांधी यों जबरदस्ती सड़क पर लड़ रहे हैं लेकिन हैं तो वे आईसीयू में! अब तो उन्हें सड़क छाप आईसीयू पर पहुंचा दिया गया है। ममता बनर्जी और अखिलेश यादव कितनी ही गलतफहमी में रहें, मोदी-शाह जिस पल चाहेंगे ईडी-सीबीआई टेंटुआ पकड़ कर इन्हें आईसीयू में डाल देंगे। भारत और रूस के लोकतंत्र का फर्क इतना भर है कि व्लादिमीर पुतिन अपने विरोधी अलेक्सी नवेलनी को जहर दे कर जेल भेजते हैं वहीं नरेंद्र मोदी ईडी-सीबीआई भेज कर विरोधी को आईसीयू से जेल में डालते हैं। ध्यान रहे पुतिन के लिए भी रूसी लोग खूब ताली बजाते हैं तो हम हिंदू मोदी के लिए। जैसे रूसियों के लिए पुतिन मसीहा हैं दंबग हैं। देश को बचाने वाले हैं वैसे ही हमारे लिए नरेंद्र मोदी हैं। दोनों देशों में भक्ति में शक्ति का मिजाज है इसलिए कौम के लिए दोनों मानो अवतार।

तथ्य है रूसियों में भी पुतिन की भक्ति का यह नैरेटिव है कि वे रूस को नया जीवन देने के दैवीय हस्तक्षेप वाले अवतार हैं। उन्होंने अपने देश में वलाम नाम के एक मठ का पुनर्निर्माण कराया। वहां की पुतिन आस्था की इमेज दिखलाते हुए उनके प्रोपेगेंडा वीडियो में कहा गया है- जब महान रूस को तबाह कर दिया गया तो वलाम भी खत्म हो गया। लेकिन पुतिन ने इसमें दोबारा जान फूंक दी। नतीजतन हमारा देश दोबारा अपने पैरों पर खड़ा हो गया। वलाम के द्वीपों पर पुतिन की पहली यात्रा को एक दैवीय घटना की तरह दिखलाते हुए मधुर संगीत के बीच चमत्कार को बतलाते हुए कहा गया- इस जगह पर नाव आकर रुकी और व्लादिमीर पुतिन नजर आए।- फिर मठ के प्रमुख बिशप ने इसकी पुष्टि में घूमने आई एक पेंशनभोगी महिला का यह कहा बताया है कि उसने आंखें मल कर देखा कि ‘ये कोई सपना नहीं था, ये सच था।’ मतलब पुतिन का दैवीय रूप में दिखलाई देना।

सो, वलाम में पुतिन और अयोध्या में नरेंद्र मोदी। एक मसीहा दूसरा अवतार। एक दबंग दूसरा छप्पन इंची छाती वाला। एक से वलाम मठ का पुनरुद्धार और दूसरे से अयोध्या में मंदिर निर्माण। पुतिन की वजह से रूस का स्वर्णिम दौर तो मोदी के कारण भारत का अमृत काल। एक ने चेचेन्या को ठीक कर दिया तो दूसरे ने कश्मीर। एक ने यूक्रेन को औकात दिखा दी तो दूसरे ने पाकिस्तान को!

आप को भरोसा नहीं होगा कि लंबे साम्यवादी शासन के बाद भी रूस में इतनी धार्मिकता है। पर जो नस्ल गुलाम, भयाकुल और भूखी होती है उसका मिजाज एक सा ही होता है। भारत और रूस में सत्ता की गुलामी, भक्ति उस माफिक व्यवस्था एक सिक्के के दो पहलू हैं। रूस और भारत का याराना यदि 1947 से है तो इसके पीछे मनोविज्ञान का साझा अहम कारण है। हिंदुओं ने विदेशी गुलामी भोगी वही रूसियों ने स्वदेशी गुलामी में सांसें ली। रूस का सरकारी मॉडल नेहरू-इंदिरा-मोदी सबकी चाहना तो रूसी साये से हमारी सुरक्षा। एक सा ही प्रोपेगेंडा। बुद्धि का उनका अंदाज हमारा अंदाज भी एक सा। क्रेमलिन, स्टालिन को कांग्रेस, नेहरू पसंद तो क्रेमलिन और पुतिन को भाजपा और नरेंद्र मोदी पसंद। तभी रूस का लोकतंत्र और भारत का लोकतंत्र एक जैसी तासीर लिए हुए। समाज-धर्म में सरकार का सौ टका हस्तक्षेप। आज भाजपाई भले कहें कि नेहरू और कांग्रेस ने रूसी असर में लोकतंत्र की फलां-फलां बरबादी की। सोवियत सहमति के साथ कांग्रेसी इमरजेंसी थी तो पलटवार में कांग्रेस और राहुल गांधी यदि कहें कि पुतिन के नक्शेकदम पर नरेंद्र मोदी और वे लोकतंत्र को खत्म करते हुए हैं तो कुल अर्थ क्या? क्या यह अर्थ नहीं कि दोनों देशों की नियति चक्राकार शिकंजे में घूमती हुई।

तभी मेरा यह निष्कर्ष नोट रखें कि बीस-तीस साल बाद दोनों देश उसी दशा में होंगे जैसे इतिहास में थे।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें

Naya India स्क्रॉल करें