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पवार से पार पाना मुश्किल

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भारतीय राजनीति में इस्तीफा कई बार बेहद प्रभावशाली हथियार के तौर पर इस्तेमाल होता है। प्रधानमंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार अपने ऊपर बढ़ रहे दबाव को खत्म करने के लिए इस्तीफे का ऐलान किया था। उन्होंने कहा था कि न टायर्ड हूं, न रिटायर्ड हूं, आडवाणी जी के नेतृत्व में जीत की ओर से प्रस्थान करें। इसके बाद पूरी पार्टी उनके चरणों में नतमस्तक हो गई थी। बाल ठाकरे ने भी एक बार अपनी पार्टी पर अपनी पकड़ को और मजबूत बनाने के लिए इस्तीफे का ऐलान किया था। 31 साल पहले 1992 में उन्होंने सीधे शिव सेना छोड़ने का ऐलान कर दिया था। उसके बाद सभी सांसद, विधायक, पार्षद और पार्टी के नेता उनके पीछ खड़े हो गए। सबने एक स्वर में कहा कि सरकार नहीं, साहेब चाहिए। उसके बाद फिर कभी शिव सेना में बाल ठाकरे को चुनौती नहीं झेलनी पड़ी,  तब भी नहीं, जब उनके भतीजे राज ठाकरे पार्टी छोड़ कर गए।

शरद पवार ने भारतीय राजनीति में कई बार सफलतापूर्वक आजमाए जा चुके इस दांव को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आजमाया। अपने 60 साल के राजनीतिक करियर में और अपनी पार्टी के 24 साल के इतिहास में पहली बार शरद पवार को इस्तीफे का ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ा। सो, भले इसको लेकर जो कुछ भी कहा जाए पर इतना मानना होगा कि मामला गंभीर था अन्यथा पवार को यह कदम नहीं उठाना पड़ता। मामले की गंभीरता दो वजह से समझ में आती है। पहली, एनसीपी पर नियंत्रण करने की अजित पवार की कोशिश और दूसरी अपनी सरकार बचाने या नया समीकरण बनाने के लिए पार्टी तोड़ने की भाजपा की कोशिश। ध्यान रहे भारतीय जनता पार्टी एनसीपी की ही तरह दूसरी मजबूत प्रादेशिक पार्टी शिव सेना को सफलतापूर्वक तोड़ चुकी है। पार्टी के संस्थापक बाल ठाकरे के परिवार के हाथ से असली पार्टी निकल गई है। अब एकनाथ शिंदे उस पार्टी के नेता हैं और राज्य के मुख्यमंत्री हैं।

जिस तरह से एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का भाजपा का दांव शिव सेना को तोड़ने के काम आया वैसे ही अजित पवार को मुख्यमंत्री बनाने का दांव एनसीपी को तोड़ने के काम आ सकता था। अगर मीडिया में आई खबरों पर यकीन करें तो अजित पवार इसके काफी करीब पहुंच गए थे। बताया जा रहा था कि एनसीपी के 40 विधायक उने साथ हैं, जो अलग गुट बना कर भाजपा के साथ जाने को तैयार हैं। अगर ऐसा होता तो भाजपा को अजित पवार को मुख्यमंत्री बनाने में कोई दिक्कत नहीं होती। जैसी कि चर्चा है सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एकनाथ शिंदे की सदस्यता समाप्त हो जाती और अगर ऐसा नहीं भी होता तो भाजपा को उनसे पीछे छुड़ाने में ज्यादा समय नहीं लगता। उनके जरिए शिव सेना को तोड़ने का मकसद पूरा हो गया है और अजित पवार के सहारे अगर एनसीपी टूट जाती तो उसके बाद भाजपा के लिए कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती नहीं बचती। फिर टूटा बिखरा विपक्ष भाजपा से नहीं लड़ सकता था। चुनाव बहुकोणीय हो जाता, जिसमें भाजपा को स्पष्ट बढ़त मिलती।

इस तरह से कह सकते हैं कि शरद पवार ने सिर्फ अपने भतीजे अजित पवार का खेल नहीं बिगाड़ा है, बल्कि भाजपा का खेल भी खराब कर दिया है। यह दूसरी बार है, जब पवार ने भाजपा का खेल बिगाड़ा है। पहली बार 2019 में, जब राज्यपाल ने 23 नवंबर को तड़के देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। पांच दिन में शरद पवार ने पूरा खेल पलट दिया था और उद्धव ठाकरे की कमान में महा विकास अघाड़ी की सरकार बनवा दी थी। दूसरी बार अप्रैल-मई में शरद पवार ने भाजपा का खेल बिगाड़ा है। उन्होंने फिर अजित पवार को शह देकर मात दे दी। इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि उसकी सरकार कोई खतरा नहीं है। अगर सुप्रीम कोर्ट से शिंदे और उनके साथ 15 अन्य विधायकों की सदस्यता समाप्त होती है तब भी सरकार को बहुमत रहेगा। लेकिन अजित पवार को इस पूरे प्रकरण से बड़ा झटका लगा है।

ध्यान रहे अब तक पवार परिवार की अंदरूनी खींचतान परदे के पीछे थे। लोगों को सूत्रों के हवाले से खबरें मिलती थीं। लेकिन इस बार शरद पवार ने सब कुछ सार्वजनिक कर दिया। उन्होंने एनसीपी के कार्यकर्ताओं को बता दिया कि पार्टी तोड़ने और उनसे छीनने की कोशिश हो रही है। उन्होंने कहा नहीं पर घटनाओं से एनसीपी समर्थकों को समझ में आ गया कि सबके पीछे अजित पवार हैं। ध्यान रहे जब शरद पवार ने अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए प्रेस कांफ्रेंस की तो उसमें अजित पवार मौजूद नहीं थे। इस बारे में पूछे जाने पर पवार सीनियर ने कहा कि हर प्रेस कांफ्रेंस में सारे नेता मौजूद रहें यह जरूरी नहीं है। उसके बाद उन्होंने कहा कि उनका कोई नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा के साथ नहीं जा रहा है लेकिन अगर कोई जाना चाहे तो कोई दिक्कत नहीं है। इतने बड़े मौके पर अजित पवार की गैरमौजूदगी में कही गई शरद पवार की यह बात बहुत महत्व वाली है। उन्होंने बिल्ली के गले में घंटी बांध दी है, अजित पवार को विलेन बना दिया है।

शरद पवार का दूसरा मकसद, जो इस घटनाक्रम से पूरा हुआ है वह ये है कि पार्टी के सभी नए और पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं का समर्थन उनको मिल गया है। उनके प्रति सहानुभूति भी बनी है और उनका कद भी बढ़ा है। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच यह मैसेज गया है कि पवार ने जो पार्टी बनाई और अपने खून-पसीने से सींचा उसे उनसे छीनने की कोशिश हो रही है। एक बीमार, बूढ़े आदमी का अपनी पार्टी को बचाने के लिए लड़ना किसी परफेक्ट इमोशनल फिल्मी ड्रामे की तरह है। अपना इस्तीफा वापस लेते हुए शरद पवार ने यह भी कहा कि बाहर के उनके दोस्तों ने भी उनसे इस्तीफा वापस लेने को कहा। यह सही है कि राहुल गांधी, एमके स्टालिन, सीताराम येचुरी जैसे तमाम नेता चाहते थे कि पवार सीनियर का इस्तीफा वापस हो। इसका जिक्र करके पवार ने यह भी दिखाया कि विपक्ष की राजनीति में उनका कद कितना बड़ा है और महाराष्ट्र के नहीं, बल्कि बाहर के लोग भी उनकी कितनी कद्र करते हैं।

सहानुभूति हासिल करने और राष्ट्रीय नेता होने की धारणा मजबूत करने का फायदा यह होगा कि अब पार्टी संगठन के बारे में शरद पवार जो भी फैसला करेंगे उसे कोई चुनौती नहीं दे पाएगा। इस घटनाक्रम से पहले अगर शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की कोशिश करते तो वह काम बहुत सहज तरीके से नहीं हो पाता। लेकिन अब इसमें कोई दिक्कत नहीं आएगी। वैसे पहले से ही पार्टी के तमाम पुराने नेता सुप्रिया सुले के साथ ज्यादा सहज रहे हैं। क्योंकि उनका तरीका अपने पिता वाला है। वे सबकी बात सुनने, विनम्रता से बात करने और सबको साथ लेकर चलने वाली हैं। दूसरे, उन्होंने अपने पिता की तरह दिल्ली में एक अखिल भारतीय नेटवर्क बनाया है। तमिलनाडु से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश के नेताओं के साथ उनकी गहरी दोस्ती है। संसद के भीतर और बाहर भी उनका अपना एक नेटवर्क है। तभी वे संसद के अंदर बोलती हैं तो सभी पार्टियों के नेता उनको सुनते हैं। दूसरी ओर अजित पवार का तरीका अपनी अधीनता बनवाने वाली है। वे धमकाने और झुकाने की राजनीति करते हैं, जिससे पार्टी के पुराने नेता उनके साथ सहज महसूस नहीं करते हैं। कुछ नए नेताओं के साथ भी इसी वजह से उनका टकराव हुआ है। अब सारे नए और पुराने नेता शरद पवार के प्रति समर्पित हैं, जिससे उनको कुछ भी करने की ताकत मिली है।

भारतीय जनता पार्टी के साथ नजदीकी दिखा कर अजित पवार राज्य की दूसरी विपक्षी पार्टियों, कांग्रेस और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट का समर्थन और सहानुभूति पहले ही गंवा चुके हैं। विपक्षी पार्टियों के बीच उनकी विश्वसनीयता पहले ही कम हो गई थी। संजय राउत के साथ उनकी तू तू मैं मैं भी हो चुकी है। अब अपनी पार्टी में भी उनकी स्थिति कमजोर हुई है। तभी सवाल है कि अब वे क्या करेंगे? क्या अब भी वे पार्टी तोड़ने और भाजपा के साथ जाने का प्रयास करेंगे या जिस तरह से नवंबर 2019 में वापस लौट गए थे और अपने चाचा का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था वैसा करेंगे? पहली बार शरद पवार ने उनकी वापसी पर गले लगाया था और उनको उप मुख्यमंत्री बनवा दिया था। इस बार शायद ऐसा न हो।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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