nayaindia reservation politics अगले चरण की आरक्षण राजनीति!

अगले चरण की आरक्षण राजनीति!

आरक्षण का पंडोरा बॉक्स खुलने वाला है। राहुल गांधी ने समाजवादी नेताओं की लाइन पकड़ी है और ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा दिया है। इस तरह का नारा दशकों से लग रहा है। पहले कहा जाता था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ या ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’। यह अलग बात है कि उस समय यह नारा बहुत असरदार नहीं हुआ। साठ के दशक के आखिरी दो-तीन सालों में छिटपुट राज्यों में इसका असर दिखा लेकिन मोटे तौर पर देश को आजादी दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व देश की राजनीति पर बना रहा। इसका एक कारण यह भी था कि नेता जिन समुदायों की हिस्सेदारी की बात करते थे वे समुदाय खुद ही सत्ता में हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं थे या दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। उनको यह समझ में नहीं आता था कि सत्ता में हिस्सेदारी किस तरह से उनका भविष्य बदल सकती है। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। अब हर जाति और समुदाय को सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए। छोटी से छोटी जाति भी सत्ता की पालकी ढोने की बजाय उसमें हिस्सेदार बनना चाहती है।

कांग्रेस पार्टी अब तक इस राजनीतिक हकीकत को स्वीकार करने में हिचक रही थी। कई राज्यों में सामाजिक न्याय की राजनीति की सफलता के बाद बावजूद कांग्रेस पारंपरिक राजनीति के दायरे में अटकी थी। भाजपा के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की आक्रामक राजनीति का मुकाबला वह लोक कल्याण, विकास और भ्रष्टाचार के आजमाए हुए पारंपरिक मुद्दों से कर रही थी। नौ साल में हुए दर्जनों चुनावों में इन मुद्दों की विफलता ने कांग्रेस को भी मजबूर किया है कि वह समाजवादी या दूसरी प्रादेशिक पार्टियों द्वारा सफलतापूर्वक इस्तेमाल किए जा रहे मुद्दों पर राजनीति करे। सो, कांग्रेस अब जाति आधारित आरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर राजनीति कर रही है। विपक्षी एकता बनाने की कोशिश कर रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी को इस राजनीति के फायदे समझाए हैं।

उसके बाद अपनी पहली जनसभा में कर्नाटक के कोलार में राहुल गांधी ने आरक्षण को लेकर दो टूक बातें कहीं। उन्होंने ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा दिया और आरक्षण को लेकर मुख्य रूप से तीन बातें कहीं। पहली, केंद्र सरकार 2011 की जनगणना के जातिवार आंकड़े जारी करे। दूसरी, आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा समाप्त करे और तीसरी जातीय जनगणना हर वर्ग को सही प्रतिनिधित्व देने का आधार है, वंचितों का अधिकार है। वैसे आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा कई राज्यों में पहले ही टूट चुकी है और गरीब सवर्णों के लिए आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण, ईडब्लुएस लागू होने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी यह सीमा टूट चुकी है। फिर भी इसकी मांग करना राजनीतिक रूप से कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकता है।

बहरहाल, एक तरफ राहुल गांधी ने जाति आधारित जनगणना की बात कही और दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिख कर जातिवार गिनती के आंकड़े जारी करने की मांग की। शहरी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली और ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कल्चर की प्रतिनिधि आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस करके जातीय जनगणना की मांग की। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी इसकी मांग कर रही है और बिहार में इस समय जाति आधारित जनगणना चल रही है। इसका दूसरा चरण शुरू हो गया है, जिसमें हर जाति का कोड तय किया गया है और उनकी गिनती की जा रही है। दो से तीन महीने में इसका अंतिम आंकड़ा आ जाएगा। ओडिशा में भी सामाजिक-आर्थिक आधार पर गिनती की मंजूरी दे दी गई है। इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की पहल पर सामाजिक न्याय का एक वर्चुअल सम्मेलन हुआ है, जिसमें देश की 14 विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने हिस्सा लिया। सो, अब जाति आधारित जनगणना और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां एकमत हो रही हैं और उसी के आधार पर भाजपा की हिंदुत्व व राष्ट्रवाद की राजनीति को चुनौती दी जाएगी।

लेकिन सवाल है कि इसमें नया क्या है? नब्बे के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हो गई, जिसके आधार पर पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण मिल रहा है। इसके अलावा अनुसूचित जातियों को 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों को साढ़े सात फीसदी आरक्षण मिल रहा है। गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई है। अलग अलग राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत अलग अलग है और 50 फीसदी की सीमा से ज्यादा है। सो, सामाजिक न्याय के नाम पर चुनाव लड़ा जाएगा तो उसमें क्या नई चीज शामिल की जाएगी? विपक्षी नेताओं की तैयारियों, भाषणों और मांगों को देख कर लग रहा है कि तीन चीजें हैं, जो नई होंगी, चुनाव का मुख्य एजेंडा होंगी और इन तीनों की बुनियाद में जातीय जनगणना होगी।

पहली चीज सवर्ण आरक्षण को चुनौती है। एमके स्टालिन के सामाजिक न्याय सम्मेलन में इस पर सवाल उठाया गया। खुद स्टालिन ने इसे चुनौती दी। उन्होंने कहा कि आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं, बल्कि जाति होनी चाहिए क्योंकि कोई गरीब व्यक्ति अमीर बन सकता है, कोई अमीर व्यक्ति गरीब हो सकता है और कोई अमीर व्यक्ति अपनी अमीरी छिपा कर गरीब बना रह सकता है। परंतु जाति की पहचान कभी नहीं छिपती है और वह हर तरह के भेदभाव का आधार बनती है। बिहार में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनता दल ने पहले तो गरीब सवर्णों के आरक्षण को समर्थन दिया था लेकिन अब वह भी इस पर पुनर्विचार के लिए तैयार है। सो, पहला मुद्दा आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को समाप्त करने का हो सकता है। पता नहीं कांग्रेस इसके लिए कैसे तैयार होगी लेकिन यह एक मुद्दा हो सकता है।

दूसरी चीज आबादी के हिसाब से आरक्षण देने की है। पिछड़ी जातियों का दावा रहा है कि देश की आबादी में उनका हिस्सा 54 फीसदी है। अभी उनको इसका आधा यानी 27 फीसदी आरक्षण मिल रहा है। उनकी मांग है कि आबादी के अनुपात में उनको आरक्षण मिलना चाहिए यानी 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण मिलना चाहिए। अभी तक जातिवार संख्या का अनुमान 1931 की जनगणना के आधार पर लगाया जाता है। अगर जातीय जनगणना होती है तो मौजूदा समय का वास्तविक आंकड़ा पता चलेगा। ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वास्तविक आंकड़े सामने आने के बाद उनकी आबादी के अनुपात में उनको आरक्षण देने का वादा किया जा सकता है। अगर ऐसा वादा किया जाता है तो यह भारत की राजनीति में नाटकीय परिवर्तन लाने वाला मुद्दा बन सकता है।

तीसरी चीज निजी क्षेत्र में आरक्षण देने की है। कई पार्टियों के नेता काफी समय से इसकी मांग करते रहे हैं। उनका कहना है कि सरकारी क्षेत्र की नौकरियां कम होती जा रही हैं और सरकारी स्कूल-कॉलेज या तो बंद हो रहे हैं या उनकी गुणवत्ता खराब हो रही है। इसलिए जाति के आधार पर निजी कंपनियों में नौकरी और निजी स्कूल-कॉलेजों में दाखिले में आरक्षण की व्यवस्था की जाए। ध्यान रहे आरक्षण के इस पहलू को लेकर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार लंबे समय से निशाने पर है। विपक्ष का कहना है कि वह एक एक करके सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में दे रही है और सरकार में शीर्ष पदों पर लैटरल एंट्री के जरिए यानी विषय का विशेषज्ञ बता कर निजी क्षेत्र से लोगों को लाया जा रहा है। कॉलेज, यूनिवर्सिटी से लेकर सरकार में उच्च स्तर पर ओबीसी, एससी और एसटी को रोकने के लिए नियमित भर्ती नहीं करने या पद खाली रखने के आरोप भी लगे हैं।

सो, पूरे देश में जाति जनगणना कराने, सवर्ण आरक्षण खत्म करने या कम करने, जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण देने और निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने के मुद्दे पर विपक्ष लोकसभा चुनाव की अपनी रणनीति तय कर सकता है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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