एकता दिखाने की नहीं बनाने की जरूरत

एकता दिखाने की नहीं बनाने की जरूरत

जदयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने के प्रयास के तहत 12 जून को पटना में एक बड़ी बैठक होने वाली है। इसमें डेढ़ दर्जन विपक्षी पार्टियों के नेता जुटेंगे। दिन भर की बैठक होनी है, जिसमें अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों पर चर्चा होगी। सवाल है कि इस कवायद से क्या हासिल होगा? खुद नीतीश कुमार की पार्टी का बिहार के बाहर कहीं अस्तित्व नहीं है और बिहार से बाहर किसी दूसरे राज्य में उनके लोकसभा चुनाव लड़ने की स्थिति नहीं है। वे जिन पार्टियों को बैठक के लिए बुला रहे हैं उनमें से कांग्रेस को छोड़ कर किसी दूसरी पार्टी की हैसियत अपने असर वाले एक राज्य से बाहर चुनाव लड़ने की नहीं है। आम आदमी पार्टी और सीपीएम अपवाद हैं, जो एक से ज्यादा राज्य में चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन एक-दो राज्यों के बाहर उनकी भी मौजूदगी सिर्फ सांकेतिक है और उसमें भी उनको केरल में तालमेल नहीं करना है।

तभी सवाल है कि ऐसी पार्टियों के साथ साझा बैठक करने से क्या देश भर के चुनाव की रणनीति बन सकती है? क्या इतने बड़े नेताओं को पता नहीं है कि 20 लोगों की बैठक में कोई सार्थक और बारीक बातचीत नहीं होती है? इसलिए क्या ज्यादा अच्छा यह नहीं होता कि राज्यवार बैठकें होतीं और किसी खास राज्य में जिस पार्टी का मजबूत आधार है उसके साथ उस राज्य में मौजूदगी वाली दूसरी पार्टियों की बैठक होती और सीटों का फॉर्मूला तय होता? ऑप्टिक्स के लिए ठीक है कि सारे नेता जुटें। लेकिन कितनी बार जुटें? संसद सत्र के दौरान सभी विपक्षी पार्टियों के नेता साझा बैठक करते हैं और सरकार को घेरने की साझा रणनीति बनाते हैं। अभी पिछले दिनों ही बेंगलुरू में कांग्रेस सरकार के शपथ समारोह में लगभग सभी विपक्षी नेता इकट्ठा हुए थे। उससे अपने आप एक ऑप्टिक्स बना था, फोटो अपॉर्च्यूनिटी बनी थी और विपक्षी गठबंधन की रूप-रेखा भी साफ हो गई थी। फिर क्यों सबका जमावड़ा होना है? विपक्षी पार्टियों को समझना चाहिए कि अब सांकेतिक राजनीति का समय समाप्त हो गया। अब रियल पोलिटिक्स का समय है। अगर विपक्षी पार्टियां 12 जून को पटना में मिल रही हैं तो बंद कमरे में बैठक, साझा प्रेस कांफ्रेंस और एकजुटता प्रदर्शन करना पर्याप्त नहीं होगा। पार्टियों को गठबंधन का नेता, एजेंडा, स्वरूप आदि तय करना होगा ताकि उसके बाद राज्यवार बैठक करके चुनाव लड़ने का फॉर्मूला बने।

अभी तक जो संभावना बन रही है उसकी एक तस्वीर कर्नाटक में दिखी। कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी ने कुछ पार्टियों को आमंत्रित नहीं किया था, जिनमें भारत राष्ट्र समिति और आम आदमी पार्टी शामिल हैं। कांग्रेस ने लेफ्ट को बुलाया था लेकिन केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन को नहीं बुलाया था। कांग्रेस ने जिन पार्टियों को बुलाया था उनमें से समाजवादी पार्टी का कोई प्रतिनिधि बेंगलुरू नहीं गया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी एक सांसद को इस समारोह के लिए नियुक्त किया। सो, इस कार्यक्रम का निष्कर्ष यह है कि आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति से कांग्रेस तालमेल नहीं करना चाहती है। वह समाजवादी पार्टी से तालमेल चाहती है लेकिन सपा अभी हिचक रही है। ममता बनर्जी व कांग्रेस में तालमेल का फिफ्टी-फिफ्टी चांस है और लेफ्ट के साथ तालमेल होगा लेकिन केरल में कांग्रेस और लेफ्ट दोनों अलग अलग लड़ेंगे। बाकी जिन पार्टियों के नेता सिद्धरमैया के शपथ समारोह में शामिल हुए उनके साथ कांग्रेस का तालमेल है और आगे भी रहेगा। इसका मतलब है कि डीएमके, राजद, जदयू, एनसीपी, शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट, जेएमएम आदि पार्टियों से कांग्रेस का तालमेल जारी रहेगा। बसपा, वाईएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल, टीडीपी आदि का अभी किसी पार्टी के साथ तालमेल नहीं है। आगे इनका तालमेल हो सकता है लेकिन कांग्रेस के साथ नहीं होगा।

यह जो शुरुआती तस्वीर दिख रही है उस पर कायदे से विपक्षी नेताओं को रंग भरना चाहिए और मुकम्मल तस्वीर बनानी चाहिए। इसकी शुरुआत नीतीश कुमार बिहार और झारखंड से कर सकते हैं। दोनों राज्यों में भाजपा विरोधी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां एक साथ हैं। बिहार में राजद, जदयू, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, सीपीआईएमएल, हिंदुस्तान अवाम मोर्चा और विकासशील इंसान पार्टी एक साथ हैं। उधर झारखंड में जेएमएम, कांग्रेस और राजद की साझा सरकार है। इन दोनों राज्यों की 54 लोकसभा सीटों का एक ब्लूप्रिंट बना कर नीतीश को विपक्षी नेताओं के सामने रखना चाहिए। ध्यान रहे पिछले चुनाव में नीतीश की पार्टी भाजपा के साथ थी और तब इन 54 सीटों में भाजपा गठबंधन 51 सीटों पर जीता था। विपक्ष को सिर्फ तीन सीटें मिली थीं। नीतीश के अलग होने के बाद भी भाजपा गठबंधन के पास 35 सीटें हैं। अगर नीतीश कुमार का मकसद पूरे देश में कोई प्रभाव बनाना है तो सबसे पहले इन 54 सीटों की योजना बनाएं और बताएं कि दोनों राज्यों में गठबंधन की जो पार्टियां हैं वो कितनी कितनी सीटों पर लड़ेंगी और भाजपा की 35 सीटों में से 20 या 25 सीट कम करने की उनके पास क्या योजना है? ध्यान रहे उनकी पार्टी के नेता बार बार संख्या पर बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि बहुमत आंकड़ों का खेल है और अगर भाजपा की 50 सीटें कम हो गईं तो वह बहुमत से नीचे आ जाएगी। अगर 50 सीटें कम करने का लक्ष्य है तो उसमें बिहार और झारखंड का क्या हिस्सा है और वह कैसे होगा?

ध्यान रहे लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन बनाने के लिहाज से बिहार और झारखंड सबसे आसान राज्य हैं क्योंकि इन दोनों राज्यों में पहले से भाजपा विरोधी गठबंधन बना हुआ है और राज्य के शासन में है। इसलिए शुरुआत इन्हीं दोनों राज्यों से होनी चाहिए। उसके बाद दूसरा आसान राज्य तमिलनाडु है, जहां पहले से अन्ना डीएमके और उसकी सहयोगी भाजपा के खिलाफ गठबंधन बना हुआ है और वह सरकार में है। पिछली बार लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में गठबंधन का प्रदर्शन कमाल का रहा था। राज्य की 39 में से 38 सीटें डीएमके, कांग्रेस गठबंधन ने जीती थी। तीसरा आसान राज्य महाराष्ट्र है, जहां एनसीपी, कांग्रेस और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट का गठबंधन है। एक साल पहले तक यह गठबंधन राज्य की सरकार में था। इन तीनों पार्टियों के नेताओं को बैठ कर सीटों का बंटवारा कर लेना चाहिए। कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां गठबंधन का मामला पेचीदा है और हो सकता है कि वहां पार्टियों का अलग अलग लड़ना ज्यादा कारआमद हो। ऐसे राज्यों में केरल, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना आदि हैं।

ध्यान रहे लोकसभा चुनाव में आंकड़ों का गणित बदलने वाले चार राज्य होंगे। बिहार, झारखंड, कर्नाटक और महाराष्ट्र। इन चार राज्यों में लोकसभा की 130 सीटें हैं, जिनमें से भाजपा के पास 73 सीटें हैं और उसकी सहयोगी पार्टियों के पास 21 सीटें हैं। इस तरह 130 में से 95 सीटें एनडीए के पास हैं। विपक्ष खासकर नीतीश कुमार जो 50 सीट कम करने की बात कर रहे हैं वह इन चार राज्यों में संभव है। इन चार में से तीन राज्यों में विपक्षी गठबंधन की पार्टियों की सरकार भी है। इसलिए चुनाव लड़ने के साधन व सलाहियात हासिल हैं। गठबंधन का सफल प्रयोग भी इन राज्यों में है। इसलिए बिहार, झारखंड के बाद विपक्ष के नेताओं को महाराष्ट्र और कर्नाटक का फैसला करना चाहिए। कर्नाटक में पिछली बार भाजपा ने 28 में से 25 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस और जेडीएस की सरकार राज्य में थी और दोनों मिल कर लड़े थे। वहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री 20 सीट जीतने का दावा कर रहे हैं। वह कैसे होगा, इस पर गभीरता से विचार करना चाहिए। कुल मिला कर लब्बोलुआब यह है कि विपक्ष को बार बार साझा बैठक करके फोटो खिंचवाने की बजाय जमीनी स्तर पर काम करना चाहिए। जिन पार्टियों के बीच गठबंधन होना है उनके कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बनाने का प्रयास होना चाहिए। जिन पार्टियों से तालमेल नहीं होना है उनसे स्पष्ट दूरी दिखाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। जैसे आम आदमी पार्टी का मामला है। कांग्रेस के अलावा किसी दूसरी पार्टी के असर वाले राज्य में आम आदमी पार्टी को लड़ना नहीं है और कांग्रेस को उससे तालमेल नहीं करना है तो यह स्पष्ट करते हुए दोनों पार्टियों को अपनी तैयारी करनी चाहिए।

Published by अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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