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प्रधान-मंत्री कोई हो, प्रधान-मंत्र अब राहुल हैं

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जिस दिन राहुल का सूर्य उत्तरायण होगा, वे किसी का विकल्प नहीं, मौलिक-कृति होंगे। ऐसा जब भी होगा, प्रकृति भारत का नया भाग्य रचेगी। तब तक के लिए हम-आप यही कामना कर सकते हैं कि राहुल को अपनी आस्तीनें बलाओं से मुक्त बनाए रखने की सन्मति और शक्ति मिले, झाड़फूंकी-टोटकेबाज़ों को वे अपने से दूर बनाए रख सकें और कनखजूरों को झटक कर परे फेंक पाएं। इतना भर हो जाए तो सब हो जाए!

भारत जोड़ो यात्रा से अपने लिए ग़ज़ब की निजी साख़ हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने रायपुर के कांग्रेस महाधिवेशन में अपनी भावनाओं का मार्मिक छंदबद्ध-इज़हार कर ख़ुद के रुतबे में कई-कई चांद टांक लिए। फिर लंदन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में उन्होंने विद्यार्थियों के बीच अपने मन का काव्यात्मक फर्रुखाबादी-खेल खेलते हुए घूंघट की आड़ से झांकती भारतीय सियासत का असली चेहरा सरेआम वैश्विक-जाजम के हवाले कर दिया। महज़ महीने भर में राहुल के इस कर्मण्येवाधिकारस्ते-भाव ने उनके खांटी विरोधियों को भी ठोड़ी पर हाथ रख कर संजीदगी से सोचने पर मजबूर कर दिया है।

मैं मानता हूं कि राहुल की वैयक्तिक और राजनीतिक क्षमताओं के बारे में ऊहापोह की स्थिति से देश अब पूरी तरह बाहर आ गया है। बुनियादी मसलों की उनकी समझ पर देश का भरोसा अब पूरी तरह पुख़्ता हो गया है। उनके बौद्धिक, अकादमिक और प्रशासकीय आयामों पर मुल्क़ का यक़ीन पक्का हुआ है। ज़िंदगी से जुड़ी मनोहारी कौशल कलाओं में राहुल की पारंगतता को देख नवयुवाओं में उनके प्रति एक अनोखा जुड़ाव उपजा है। मुझे नहीं मालूम कि मौजूदा दौर की राजनीति के नियमों का पालन राहुल कभी कर पाएंगे या नहीं और इस वज़ह से वे भारत के प्रधानमंत्री कभी बन पाएंगे या नहीं, मगर इतना मैं जानता हूं कि भारत के भावी लोकमन-नायक वे ही हैं। ‘प्रधान-मंत्री’ की कुर्सी पर कोई भी बैठा रहे, भारत के ‘प्रधान-मंत्र’ का सिंहासन उन्हीं के लिए आरक्षित हो गया है। यह मंत्र है विश्वास, स्नेह और निर्भीकता का।

मगर कुछ सवाल व्यावहारिक संसार के आसमान में तैर रहे हैं। ये सवाल, ज़ाहिर है कि, तैरते ही रहेंगे। तब तक, जब तक कि इनके जवाब न मिल जाएं। सवाल है कि एकल-राहुल तो एक बड़ी शक्ति के तौर पर स्थापित हो गए हैं, लेकिन क्या कांग्रेस भी एक सांगठनिक ताक़त के तौर पर पुनर्स्थापित हो पाएगी? सवाल है कि अब जब राहुल कांग्रेस के ढांचे को गढ़ने की औपचारिक भूमिका से बाहर हैं, क्या पार्टी के भावी खिवैयों की शक़्लो-सूरत तय करने के काम में वे अपेक्षित दिलचस्पी लिया करेंगे? सवाल है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि राजदरबारी राहुल को तो कंधे पर धनुष-बाण ले कर पगडंडियों पर पैदल घुमाते रहेंगे और उनकी खड़ाऊं के नाम पर गुदगुदे गद्दों पर अपना मधुमास मनाते रहेंगे? तजु़र्बा कहता है कि कांग्रेस के बरामदे में और राहुल के आंगन में ऐसे बहुरूपियों की कमी नहीं है, जो कांग्रेस और राहुल को विभ्रांत बनाए रखने का खाद-पानी अपने पिटारे में दिन-रात लिए घूमते रहते हैं। सो, मुद्दा यह है कि यह जालबट्टा काटे बिना अपनी तमाम तपस्या का कोई पुण्य न राहुल को मिल पाएगा और न कांग्रेस को। और, इसलिए सवाल यह है कि राहुल में इस मुक्तिवाही छटपटाहट का अहसास अब भी जन्मा है या नहीं?

कांग्रेस ने चूंकि राहुल-युग में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, इसलिए बावजूद इसके कि कांग्रेस उन्हें ले कर सारे पसोपेश से बाहर आ गई है, अब भी यह अनिवार्य बना हुआ है कि राहुल अपनी सोच और शैली की निर्णायक मुहर अंतिम रूप से कांग्रेसी श्यामपट्ट पर चस्पा करें। 19 बरस में राहुल के किए बहुत-से प्रयोगों से कांग्रेस रू-ब-रू हुई। कुनमुनाती रही, कसमसाती रही, छटपटाती रही, लेकिन राहुल के पीछे-पीछे चलती रही। कभी-कभार खदबदाई भी, मगर तूफ़ान कुल मिला कर प्याले में ही थमा रहा। देगची से उबाल टुकड़ों-टुकड़ों में रिस कर बाहर गिरता रहा, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि तपेली का ढक्कन ही उड़ गया हो। इसे राहुल में कांग्रेसजन की आस्था कह लीजिए, कांग्रेस के बुनियादी मूल्यों से पार्टी-संगठन को मिले अटूट संस्कार कह लीजिए या कांग्रेसियों का लिजलिजापन कह लीजिए। गफ़लत में आ कर बाकी देश ने जो किया-सो-किया, मगर कांग्रेस ने राहुल को हमेशा अंगीकार किया। उस कांग्रेस ने भी, जिसे राहुल ने बेमुरव्वत हो कर ठेंगा दिखाने में कोई भी कोताही नहीं की। सहमति-असहमति को परे रख कांग्रेसजन ने राहुल के हर अनुप्रयोग को सिर-माथे लगाया। उनकी हर ज़िद की बलैयां लीं और रोते-हंसते उनकी पालकी ढोते रहे।

तक़रीबन दो दशक में कांग्रेस ने राहुल के ऐसे-ऐसे विचलन देखे कि कोई और राजनीतिक दल होता तो अपने धैर्य का बांध कभी का तोड़ देता। राहुल की सबसे बड़ी धरोहर ही आज यह है कि मोटे तौर पर समूची कांग्रेस बेर-केर का यह संग निभाती रही। इसलिए अब राहुल की बारी है कि वे इस कांग्रेस के लिए अपने अंतर्मन में नतमस्तक भाव-गति पैदा करें। आपकी तरह मुझे भी लगता है कि राहुल अब बहुत बदल गए हैं। भारत जोड़ो यात्रा के अनुभवों ने उनके सोच-विचार, भाव-भंगिमा और कार्यशैली को बेहद सम्यक बनाया है। वे ख़ुद भी इसका ज़िक्र बार-बार कर रहे हैं। यह शिक्षण-प्रशिक्षण ही अब उनकी असली शक्ति है। उनके पक्के इरादों का शिव इसी शक्ति के सम्मिलन से भारत का तारणहार बनेगा। कांग्रेस का पुनरोत्थान तो राहुल के अवमेध का बहुत छोटा-सा हिस्सा है। मसला तो अब भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पुनर्प्राणप्रतिष्ठा का है। हमजोली तो राहुल को अपनी इस यात्रा के लिए चुनने हैं। पिछले 178 दिनों में कु़दरत ने राहुल के हाथों में भारत का नया और अर्थवान इतिहास लिखने का मोर-पंख थमाया है। अब अपने सामने रखे तालपत्र पर मज़मून उकेरने का काम वे किस स्याही से करेंगे – सारा दारोमदार इसी पर है।

जो कहते थे और अब भी कहते हैं कि राहुल गांधी तो नरेंद्र मोदी का विकल्प बन ही नहीं सकते हैं, वे एकदम सही हैं। राहुल को नरेंद्र भाई का विकल्प बनते देश देखना भी नहीं चाहता है। राहुल, राहुल हैं। उनमें नरेंद्र भाई का एक भी लक्षण नहीं है। और, यही बात राहुल को सार्थक बनाती है, अर्थपूर्ण बनाती है और प्राकृत बनाती है। नरेंद्र मोदी का विकल्प तो मोदी-सोच, मोदी-वक्रता और मोदी-ऐयारी से लैस कोई व्यक्ति ही हो सकता है। अच्छा है कि राहुल में नरेंद्र भाई का विकल्प बनने की न तो क्षमता है, न संभावनाएं। ऐसा होता तो मेरे जैसे हज़ारों-लाखों लोग माथा पीट रहे होते। जो कांग्रेसी बरसों से इस ग़म में दुबले होते जा रहे हैं कि देश राहुल में नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं देखता है, उन्हें तो इस पर ख़ुशी से नाचना चाहिए कि राहुल ने कांग्रेसी दामन पर ऐसी किसी आम-धारणा का कलंक नहीं लगने दिया।

कहते हैं न कि ब्रह्मा जी कभी-कभी किसी एक का निर्माण करने के बाद उस सांचे को तोड़ ही डालते हैं। राहुल के मामले में ऐसा ही हुआ लगता है। मैं नरेंद्र भाई के आराधकों को भी यह कह कर दिलासा देना चाहता हूं कि उनके आराध्य के निर्माण में काम आने वाला सांचा भी ब्रह्मा जी ने ज़रूर तोड़ डाला होगा। सांचों की इस अनुलोम-विलोम धाराओं का फ़र्क़ जो समझते हैं, वे जानते हैं कि जिस दिन राहुल का सूर्य उत्तरायण होगा, वे किसी का विकल्प नहीं, मौलिक-कृति होंगे। ऐसा जब भी होगा, प्रकृति भारत का नया भाग्य रचेगी। तब तक के लिए हम-आप यही कामना कर सकते हैं कि राहुल को अपनी आस्तीनें बलाओं से मुक्त बनाए रखने की सन्मति और शक्ति मिले, झाड़फूंकी-टोटकेबाज़ों को वे अपने से दूर बनाए रख सकें और कनखजूरों को झटक कर परे फेंक पाएं। इतना भर हो जाए तो सब हो जाए! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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