मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आखिर ऐसा क्या है, जिसे लेकर तमाम विपक्षी पार्टियां और नागरिक समाज के संगठन इतना जश्न मना रहे हैं? इसी से जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि उस फैसले से वास्तविक बदलाव क्या होगा? क्या चुनाव आयोग पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष हो जाएगा? क्या चुनाव आयोग की शक्तियां बढ़ जाएंगी? क्या तमाम विपक्षी पार्टियों का भरोसा बन जाएगा और सबसे बड़ा सवाल है कि क्या चुनाव आयोग की जो मशीनरी है, जिसमें इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन भी शामिल है उस पर उठ रहे सवाल समाप्त हो जाएंगे? पहली नजर में और विपक्षी पार्टियों को जश्न मनाते देख कर ऐसा ही लग रहा है कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन असल में कुछ भी नहीं बदलने वाला है। चुनाव आयोग का कामकाज वैसे ही चलता रहेगा, जैसे चल रहा है। फर्क इतना होगा कि विपक्ष का मुंह बंद हो जाएगा और चुनाव आयोग पर सवाल उठाने की उसकी नैतिक शक्ति कम हो जाएगी।
चुनाव आयोग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला किस तरह से सरकार के लिए मददगार होगा उस पर विचार करने से पहले इसके कुछ अन्य खासकर संवैधानिक पहलुओं पर विचार होना चाहिए। जो लोग इस फैसले पर जश्न मना रहे हैं उनको समझना चाहिए कि यह लोकतंत्र के परिपक्व होने की निशानी नहीं है कि प्रशासनिक नियुक्तियों में न्यायपालिका की भूमिका बढ़ाई जा रही है। प्रशासनिक कामकाज में न्यायिक दखल बढ़ने का मतलब लोकतंत्र का कमजोर होना है। भारत के संविधान में बहुत साफ तौर पर शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। जजों से लेकर संवैधानिक, वैधानिक और प्रशासनिक नियुक्तियों का अधिकार कार्यपालिका के पास है। लोकतंत्र मजबूत होगा तो ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि बड़ी नियुक्तियों पर विधायिका की मंजूरी ली जाए, जैसा कि अमेरिका में होता है। वहां राजदूतों से लेकर अटॉर्नी जनरल तक और खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों से लेकर जजों तक की नियुक्तियों की अमेरिकी कांग्रेस से मंजूरी करानी होती है। भारत में भी इस तरह का प्रावधान हो सकता है। लेकिन भारत में गाड़ी उलटी चल रही है। यहां संवैधानिक, वैधानिक या प्रशासनिक पदों पर नियुक्तियों में न्यायपालिका को शामिल किया जा रहा है और उसका जश्न मनाया जा रहा है।
दूसरी बात यह है कि नियुक्तियों में न्यायपालिका के शामिल होने से उसके पारदर्शी और साफ-सुथरा होने की गारंटी नहीं होती है। आखिर सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति भी प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस या उनकी ओर से मनोनीत सुप्रीम कोर्ट के किसी जज और लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी या मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता की कमेटी करती है। इसके बावजूद हर नियुक्ति को लेकर विवाद होता है। पिछले सात आठ साल में लगभग हर बार सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में कांग्रेस ने आपत्ति की है। कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे ने आलोक वर्मा की नियुक्ति का विरोध किया था तो ऋषि शुक्ला का भी विरोध किया था। इतना ही नहीं 2021 में अधीर रंजन चौधरी ने भी विरोध दर्ज कराया था। इसी तरह केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीवीसी और केंद्रीय सूचना आयुक्त यानी सीआईसी की नियुक्ति भी एक पैनल करता है, जिसमें लोकसभा के नेता विपक्ष या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता शामिल होते हैं। वहां भी नियुक्तियों में विवाद होता है। जाहिर है कि सीबीआई से लेकर सीवीसी, सीआईसी, एनएचआरसी आदि की नियुक्ति में विवाद होता है और विपक्ष नियुक्ति की आलोचना करता है। यूपीए के शासनकाल में लोकसभा में भाजपा की नेता सुषमा स्वराज नियुक्तियों का विरोध करती थी और अब कांग्रेस के नेता करते हैं।
तीसरी अहम बात यह है कि पैनल के जरिए नियुक्ति के बावजूद किसी संस्था के कामकाज पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और नेता विपक्ष की सहमति से नियुक्त हुआ सीबीआई का निदेशक भी वही काम करता है, जो सरकार कहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो विपक्षी पार्टियां केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप नहीं लगा रही होतीं। पता नहीं क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जश्न मनाने वाली पार्टियां असली तस्वीर नहीं देख रही हैं। आखिर तीन जजों के पैनल के जरिए ही सीबीआई का प्रमुख चुना गया है फिर क्यों विपक्षी पार्टियां उस पर आरोप लगा रही हैं कि वह केंद्र सरकार के हाथों की कठपुतली है? इसका मतलब है कि पैनल बन जाने से कुछ नहीं बदलता है। अभी कई पदों पर पैनल की सहमति से नियुक्ति होती है इसके बावजूद विपक्ष हर नियुक्ति से असंतुष्ट रहता है और हर संस्था के कामकाज पर सवाल उठाता है। यही स्थिति चुनाव आयोग की भी रहने वाली है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पैनल के जरिए होने के बावजूद उसका कामकाज वैसे ही रहना है, जैसे अभी है और उसकी शक्तियां भी उतनी ही रहनी हैं, जितनी अभी हैं।
चौथी बात यह है कि हर स्थिति में अधिकारियों के चयन में केंद्र सरकार की भूमिका सबसे ज्यादा रहेगी और उसकी पसंद का अधिकारी ही नियुक्त होगा। मिसाल के तौर पर अगर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति होनी है तो उसके लिए संभावित अधिकारियों की सूची केंद्र सरकार ही बनाएगी। संभावित अधिकारियों की छंटनी करना और उनकी सूची बनाने का काम जब केंद्र सरकार करेगी तो निश्चित रूप से वह अपनी पसंद के अधिकारियों की सूची बनाएगी। इसलिए ऐसा लग रहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर विपक्ष का जो जश्न है उसका कोई ठोस आधार नहीं है और वह बहुत ज्यादा समय तक नहीं चलने वाला है क्योंकि इससे कोई वास्तविक बदलाव नहीं आएगा।
उलटे विपक्ष को इससे नुकसान होगा। अभी तक विपक्षी पार्टियां ज्यादा मुखर होकर चुनाव आयोग पर सवाल उठाती थीं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सवाल उठाती थीं और उस पर आरोप लगाती थीं कि वह सरकार के हिसाब से काम कर रहा है। जब पैनल से नियुक्ति हो जाएगी तो विपक्ष अपना यह अधिकार गंवा देगा। चुनाव आयोग का कामकाज तब भी वैसा ही होगा, जैसा अभी है। लेकिन विपक्ष को बोलने से पहले सोचना होगा क्योंकि तब सत्तारूढ़ दल को सवाल उठाने की मौका मिल जाएगा। यह कहा जाएगा कि विपक्ष को न्यायपालिका पर भी भरोसा नहीं है।
अंतिम और अहम बात यह है कि इस फैसले से तत्काल कुछ नहीं बदलने वाला है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का कार्यकाल फरवरी 2025 तक है। यानी अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव उनकी देखरेख में होगा। अरुण कुमार गोयल की आनन-फानन में हुई नियुक्ति के कारण सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर ज्यादा फोकस बना था। वे दिसंबर 2027 तक पद पर बने रहेंगे। पहली नियुक्ति अगले साल फरवरी में होगी, जब अनूप चंद्र पांडेय रिटायर होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि जब तक केंद्र सरकार कानून नहीं बना देती है तब तक उसकी बनाई व्यवस्था यानी प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और नेता विपक्ष के पैनल से नियुक्ति की व्यवस्था चलेगी। इस लिहाज से सरकार के पास एक साल का समय है। अगर सरकार एक साल में नियुक्ति का कानून बना देती है तो सुप्रीम कोर्ट के बनाए पैनल से एक भी नियुक्ति नहीं होगी।