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वंदे मातरम् का विवाद राजनीतिक है

सात नवंबर को वंदे मातरम् की रचना के डेढ़ सौ साल पूरे हुए हैं। बंकिम चंद्र चटोपाध्याय ने सात नवंबर 1875 को अक्षय नवमी के दिन इसकी रचना की थी। इसके सात साल बाद 1882 में उन्होंने इस रचना को अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया। बंकिम बाबू के निधन के दो साल बाद 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में खुद गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने इसे गाया। इसकी रचना दो हिस्सों में हुई और दोनों के संदर्भ भी अलग अलग हैं। बंकिम बाबू ने पहले दो ही अंतरे लिखे थे, जिसे आजादी के बाद राष्ट्रीय गीत के तौर पर स्वीकार किया।

पहले दो अंतरे लिखने के बाद उन्होंने ‘आनंदमठ’ की रचना की, जो उस समय के मुस्लिम शासकों के खिलाफ संन्यासियों के विद्रोह पर आधारित था। उसमें कई और अंतरे के साथ वंदे मातरम् को शामिल किया गया। चूंकि उपन्यास मुस्लिम शासकों के खिलाफ संन्यासी विद्रोह पर आधारित था तो स्वाभाविक रूप से उसमें मुस्लिम शासकों का विरोध है और हिंदू देवियों खासकर दुर्गा और लक्ष्मी का चित्रण है। वही चित्रण वंदे मातरम् के बाद के अंतरों में भी दिखता है।

इसके बावजूद 1882 से लेकर 1909 तक यानी 27 साल तक किसी मुस्लिम नेता या धर्मगुरू की ओर से इसका विरोध नहीं हुआ। उलटे 1905 में जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन का फैसला किया तो वंदे मातरम् उसके विरोध का गीत बन गया। हिंदू और मुस्लिम दोनों बंगाल को अपनी मातृभूमि मानते थे और उसके विभाजन का विरोध करते थे। जहां भी अंग्रेजों की पुलिस उनको रोकने की कोशिश करती वहां वे वंदे मातरम् गाते थे। उस समय तक यह कौमी नारा था। किसी ने इसमें धार्मिकता का पुट नहीं देखा था। हैरानी की बात है कि बांटो और राज करो की नीति प्रतिपादित करने वाले अंग्रेजों ने भी नहीं सोचा था कि इसे धार्मिक नारा और धार्मिक गीत बना दिया जाए तो मुसलमानों को इससे अलग किया जा सकता है। तभी जब वे इस गीत और नारे की लोकप्रियता से परेशान हुए तो इस पर पाबंदी लगा दी और वंदे मातरम् बोलना मना कर दिया।

लेकिन जो अंग्रेज शासक नहीं देख सके वह मुस्लिम लीग के नेता सैयद अली इमाम ने देख लिया। 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ था। उसके तीन साल बाद 1909 में सैयद अली इमाम और उनके कुछ साथियों ने वंदे मातरम् को धार्मिक गीत बताया और मुसलमानों से इससे दूर रहने की अपील की। सोचें, गीत लिखे जाने के 34 साल बाद और पहली बार गाए जाने के 13 साल बाद कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने इसे धर्म गीत बताया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नए बने संगठन मुस्लिम लीग की राजनीति चमकाने के लिए ऐसा किया गया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू पहले दिन से मानते थे कि यह मुख्यधारा के मुस्लिम नेताओं या मुस्लिम आवाम का काम नहीं है, बल्कि सांप्रदायिक तत्वों ने इसे धार्मिक रंग दिया और राजनीति साधने का प्रयास किया। इस विवाद को समाप्त करने और इसे सबके लिए स्वीकार्य बनाने के मकसद से 1937 में कांग्रेस के अधिवेशन से पहले वंदे मातरम् के पहले दो अंतरे को राष्ट्रीय गीत चुना गया। आजादी के बाद संविधान सभा द्वारा भी वंदे मातरम् के पहले दो अंतरों को ही राष्ट्रीय गीत के तौर पर स्वीकार किया। यह सही है कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगान जन गण मन की तरह संवैधानिक मान्यता नहीं मिली लेकिन भारतीयों के मन में इसके प्रति सम्मान में कभी कम नहीं हुआ।

हालांकि एक बार शुरू होने के बाद हमेशा इसे लेकर राजनीतिक विवाद होते रहे हैं। अभी इसकी रचना के डेढ़ सौ साल पूरे होने पर भी राजनीति ही हो रही है। राजनीतिक मकसद से इस पर संसद में चर्चा कराई गई और राजनीतिक मकसद से ही इसका विरोध किया जा रहा है। वंदे मातरम् के अंतरे हटाने को इसे विभाजित करने वाला बताने और इसके देश विभाजन का कारण बनने का जो दावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है वह भाजपा की राजनीति से जुड़ा है और उसका कोई ठोस आधार नहीं है। यह आरोप भी बेबुनियाद है कि जवाहरलाल नेहरू ने वंदे मातरम् के अंतरे हटवा दिए। यह एक सामूहिक फैसला था, जिसमें महात्मा गांधी, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और पंडित नेहरू सहित कांग्रेस के तमाम बड़े नेता शामिल थे।

संविधान सभा ने भी जब इसे अपनाया गया तब भी डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, सरदार पटेल और पंडित नेहरू सहित उस समय की कांग्रेस के सारे नेता इस पर सहमत थे कि हर भारतीय के लिए स्वीकार्य बनाने के लिए जरूरी है कि पहले दो अंतरे ही स्वीकार किए जाएं। यह भी समझने की जरुरत है कि विभाजन की नींव दो राष्ट्र के सिद्धांत से पड़ी थी और वंदे मातरम् के अंतरे हटाने का उससे कोई लेना देना नहीं है। देश के लोगों को यह भी जानना चाहिए कि वंदे मातरम् की तरह जन गण मन भी एक लंबे गीत का छोटा सा हिस्सा है। गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने एक लंबा गीत लिखा था, जिसके शुरुआती दो अंतरे राष्ट्रगान के तौर पर स्वीकार किए गए।

दूसरी ओर मुस्लिम सांप्रदायिक नेताओं को वंदे मातरम् का विरोध राजनीतिक रूप से फायदेमंद दिख रहा था इसलिए उनको इसे स्वीकार ही नहीं करना था। तभी उन्होंने 1909 में भी इसका विरोध किया और सभी अंतरे हटा कर सिर्फ दो अंतरे स्वीकार करने के 1937 के फैसले के बाद भी इसका विरोध किया। आजादी के बाद भी इसका विरोध जारी रहा। अभी भी चाहे राजनीतिक दल एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी हों या सामाजिक संगठन जमीअत उलमा ए हिंद के नेता अरशद मदनी हों सबका विरोध राजनीतिक है। वास्तविकता यह है कि वंदे मातरम् के विरोध का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। यह भी समझने की जरुरत है कि इस गीत में जिसे माता कहा जा रहा है वह भारत माता नहीं हैं, बल्कि मातृभूमि है। यह गीत बुनियादी रूप से बंगाल के लिए लिखा गया था। तभी मूल गीत में ‘सप्त कोटि कंठ कल कल निनाद कराले, द्विसप्त कोटि भुजैर्दृत खरकर वाले’ लिखा गया है। इसमें सात करोड़ कंठ और 14 करोड़ भुजाओं का जिक्र किया गया है। उस समय अविभाजित बंगाल की आबादी सात करोड़ के करीब थी। बाद में जब इसे राष्ट्रीय गीत बनाया गया तो ‘सप्त कोटि’ को ‘कोटि कोटि’ कर दिया गया।

इसलिए यह किसी देवी या माता या किसी मूर्ति की पूजा का गीत नहीं है, बल्कि मातृभूमि की वंदना का गीत है। यह किसी धार्मिक मान्यता का हिस्सा नहीं है, बल्कि आजादी की लड़ाई और व्यापक रूप से भारत की संस्कृति का हिस्सा है। लेकिन समय समय पर हिंदू और मुस्लिम दोनों में सांप्रदायिक राजनीति करने वाले लोग इस पर विवाद उठा कर अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश करते रहते हैं। अभी भी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले संसद में इस पर चर्चा कराने और आधे अधूरे तथ्यों के आधार पर वंदे मातरम् के अंतरे हटाने के लिए कांग्रेस और उसमें भी खासतौर से पंडित नेहरू को जिम्मेदार ठहराने का दयनीय प्रयास राजनीति से जुड़ा है तो ओवैसी और मदनी जैसे नेताओं के भड़काऊ बयान भी उनकी राजनीति का हिस्सा हैं। इनका धर्म और समाज से कोई लेना देना नहीं है।

दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रोबाओ सुबियांतो ने इसी साल संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया तो अरबी में ‘अस्सालम आलेकुम’ कहा तो साथ ही संस्कृत में ‘ओम स्वस्तिअस्तु’ भी कहा। सोचें, दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश के सबसे बड़े नेता को सीधे तौर पर हिंदू धर्म से जुड़े ‘ओम स्वस्तिअस्तु’ का उच्चारण करने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भारत के मुस्लिम नेताओं को आजादी का कौमी नारा वंदे मातरम् बोलने में दिक्कत है!

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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