nayaindia बिहार राजनीति: भाजपा का नया दौर

बिहार में भाजपा के लिए पूरा मैदान

बिहार में पिछले महीने भारतीय जनता पार्टी की एक रैली में उसके नेताओं, कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने जिस बर्बर अंदाज में लाठियां चलाईं और उसके सांसदों-विधायकों को पीटा वह बिहार की राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत का प्रस्थान बिंदु हो सकता है। असल में बिहार एक ऐतिहासिक राजनीतिक बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। भारतीय जनता पार्टी के सामने बिहार की राजनीति की केंद्रीय ताकत बनने का वास्तविक अवसर है। एक बार पहले भी 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद यह अवसर आया था लेकिन उस समय भाजपा इस अवसर का लाभ उठाने की स्थिति में नहीं थी।

यह भी कह सकते हैं कि वह लोकसभा चुनाव में मिली भारी भरकम जीत के बाद अति आत्मविश्वास में थी इसलिए 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की ओर से बनाए गए मंडल की राजनीति के नैरेटिव को बहुत हलके में लिया था। भाजपा नेता इस मुगालते में रहे कि नरेंद्र मोदी खुद पिछड़ी जाति के नेता हैं और उनका अखिल भारतीय करिश्मा ऐसा है कि उनके सामने लालू और नीतीश की पारंपरिक मंडल राजनीति नहीं टिकेगी। तभी चुनाव नतीजा भाजपा के लिए सदमे की तरह था और यही वजह रही कि पहला मौका मिलते ही वह फिर से नीतीश की शरण में पहुंच गई।

लेकिन इस बार भाजपा सावधान है और अपने दांव-पेंच आजमाने को तैयार है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उसने बहुत बारीकी से नीतीश कुमार को कमजोर करने की राजनीति की। चिराग पासवान का एनडीए से अलग होना और 2020 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारना इसी राजनीति का हिस्सा था। इस राजनीति ने नीतीश कुमार की पार्टी को न सिर्फ तीसरे नंबर की पार्टी बनाया, बल्कि तीसरे दर्जे की पार्टी भी बना दिया। उनका अपना वोट आधार बहुत कम हो गया और राष्ट्रीय जनता दल लगातार दूसरी बार प्रदेश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी।

इसके बाद सब कुछ लिखित पटकथा की तरह हुआ। नीतीश कुमार मंडल की राजनीति को बचाने और अपनी पार्टी के अस्तित्व की रक्षा के लिए राजद के साथ चले गए। उन्होंने लालू प्रसाद के साथ मिल कर सात पार्टियों का एक गठबंधन बनाया। जदयू और राजद के नेता इसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि मानते रहे लेकिन असलियत यह है कि उनकी इस राजनीति ने बिहार में विपक्ष का पूरा स्पेस भाजपा को सौंप दिया। अभी इकलौता विपक्ष भाजपा है और पूरा मैदान उसका है।

इससे पहले नवंबर 2015 से जुलाई 2017 तक यानी डेढ़ साल तक भाजपा इकलौते विपक्ष के तौर पर थी लेकिन तब वह विपक्ष की राजनीति करने की बजाय इस इंतजार में थी कि नीतीश कुमार कब वापसी करेंगे और भाजपा कब सत्ता में लौटेगी। वह विपक्ष के तौर पर काम करने की बजाय सत्ता में लौटने का इंतजार कर रही थी। इस बार तस्वीर अलग है। इस बार भाजपा ने अपने को मजबूत विपक्ष के लिए तैयार किया है।

कुछ भाजपा की तैयारियों और कुछ भाजपा विरोधी पार्टियों की राजनीति ने ऐसा अवसर बनाया है, जिसका इस्तेमाल करके वह प्रदेश की केंद्रीय राजनीतिक ताकत बन सकती है। इतिहास में भाजपा के सामने ऐसा अवसर पहले कभी नहीं आया। वह कभी भी बिहार की मजबूत पार्टी नहीं रही है। एकीकृत बिहार में उसकी ताकत दक्षिण बिहार में थी, जो क्षेत्र बाद में झारखंड बना और जहां आज भी भाजपा एक बड़ी ताकत है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने भी जैसा आधार दक्षिण बिहार यानी आज के झारखंड में बनाया था वैसा बिहार में नहीं बन सका था।

तभी बिहार में लालू प्रसाद की मंडल राजनीति को चुनौती देने के लिए भाजपा ने नीतीश कुमार को कंधे पर उठाया था। समता पार्टी के समय बना समीकरण दोनों के लिए फायदे वाला था इसलिए वह समीकरण चलता रहा। अब भाजपा खुद वह राजनीति करने की स्थिति में है। नीतीश कुमार के कमजोर होने और राजद की ताकत बढ़ने से भाजपा के लिए मौका बना है। खुद भाजपा ने भी कई राजनीतिक प्रयोग किए। सवर्ण, वैश्य और यादव नेतृत्व को आजमाने  के बाद अंत में भाजपा वहां पहुंची, जहां से नीतीश कुमार ने शुरुआत की थी। नीतीश ने शकुनी चौधरी के साथ मिल कर समता पार्टी का गठन किया था और लव-कुश का समीकरण बनाया था। लव यानी कुर्मी का प्रतिनिधि नीतीश कुमार करते थे और कुश यानी कोईरी का प्रतिनिधित्व शकुनी चौधरी करते थे।

अब भाजपा ने शकुनी चौधरी के बेटे सम्राट चौधरी को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। यह समय का पहिया 360 डिग्री पर घूमने जैसा है। याद करें 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नीतीश अकेले लड़े थे तब उनको 16 फीसदी वोट मिला था। उसमें बड़ा हिस्सा उनके लव-कुश समीकरण का था और बाकी अतिपिछड़ी जातियों का वोट था, जो उनको मिला। अब उनके लव-कुश के कोर वोट में भाजपा ने सेंध लगाई है। दूसरे, लालू प्रसाद की पार्टी के मजबूत होने से अति पिछड़ी और महादलित जातियां, नए आसरे की तलाश में हैं क्योंकि उनको दिख रहा है कि अब नीतीश महागठबंधन में रहते हुए उनके हितों की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं। वे उनको सत्ता में हिस्सेदारी भी नहीं दिला सकते हैं।

सो, एक तरफ भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति है, जिसमें गैर-यादव और गैर-कुर्मी पिछड़ी जातियों के लिए जगह बनी है और दूसरे राजद, जदयू, कांग्रेस और सभी लेफ्ट पार्टियों के एक साथ हो जाने से विपक्ष का पूरा स्पेस भाजपा को मिल गया है। पहले किसी की सरकार होती थी तो कम्युनिस्ट पार्टियां प्रदर्शन करती थीं अब सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली एकमात्र पार्टी भाजपा है। जिसको भी सरकार से नाराजगी है उसके पास भाजपा के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

गैर यादव और गैर कुर्मी राजनीति करने वाली पार्टियों में मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी है और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल है। ये दोनों पार्टियां भी भाजपा के साथ हैं या आ जाएंगी। महादलित राजनीति करने वाले जीतन राम मांझी भी भाजपा के साथ जुड़ गए हैं। और तमाम छिटपुट संकेतों के बावजूद सवर्ण बुनियादी रूप से भाजपा के साथ हैं हीं। सो, जो भाजपा कभी बिहार में हाशिए की पार्टी होती थी और जिसे हमेशा बैसाखी की जरूरत होती थी वह अपने दम पर एक बड़ा राजनीतिक व सामाजिक समीकरण बना कर लड़ने की स्थिति में है।

उसके मुकाबले महागठबंधन का जो समीकरण दिखाया जा रहा है वह एक बुलबुला है, जिसकी हकीकत अधिकतम 40 फीसदी वोट की है। भाजपा के रास्ते में एक बाधा नीतीश कुमार थे, उनके कमजोर होने से वह बाधा दूर हो गई है। महागठबंधन के नेता अब भी 2015 के चुनाव नतीजे की माला जपते हैं। लेकिन तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। भाजपा अकेले वैकल्पिक राजनीतिक ताकत के तौर पर उभर चुकी है। और यह हकीकत है कि वर्जिन टेरेटरी यानी ऐसी जगह, जहां भाजपा कभी सत्ता में नहीं आई है वहां उसके लिए सबसे उर्वर जमीन होती है।

वहां लोगों के में उत्सुकता रहती है कि वे भाजपा को आजमाएं। पिछले 33 साल से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सत्ता देख रहे लोगों में अगर भाजपा को आजमाने की चाहना हो तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। जातीय जनगणना और आरक्षण की राजनीति जदयू व राजद का आखिरी दांव है, जिसे आजमाया जा रहा है। अगर यह दांव चला तो हो सकता है कि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए थोड़ा और इंतजार करना पड़ सकता है लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुत मजबूती से लड़ेगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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