nayaindia नीतीश कुमार के राजनीतिक दांव: भाजपा और राजद के बीच खेल

नीतीश का शह-मात का खेल

JDU Meeting Nitish Kumar

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव से पहले अपना बड़ा दांव चल दिया है। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की जगह जब नीतीश कुमार ने खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का फैसला किया तो मीडिया में जो विमर्श बना वह एकतरफा था। हर जगह यह माना और कहा गया कि अब नीतीश कुमार ने फिर से भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में लौटने का फैसला कर लिया है और इसलिए राजद समर्थक दिख रहे राष्ट्रीय अध्यक्ष को हटा दिया है। इस विश्लेषण में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन इस पूरे प्रयोग को दूसरे पहलुओं से भी देखने की जरुरत है।

दूसरे पहलुओं में बिहार की जमीनी राजनीति में नीतीश की पार्टी की हैसियत, उनके वोट आधार और सामाजिक समीकरण पर खास तौर से ध्यान देने की जरुरत है। ध्यान रहे नीतीश की पार्टी पिछले 20 साल में सबसे कमजोर स्थिति में है। लगातार दो विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी की सीटें कम हुई हैं और कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे उनकी मानसिक सेहत को लेकर सवाल उठे हैं। तभी उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एक दांव से नया विमर्श गढ़ने और अपने समर्थक मतदाताओं को सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया है

इसमें कोई संदेह नहीं है कि विधायकों की संख्या के लिहाज से जनता दल यू तीसरे नंबर की पार्टी है। लेकिन वह इसलिए है क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में साथ होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू को कमजोर करने की परोक्ष राजनीति की थी। भाजपा की शह पर चिराग पासवान ने नीतीश को खत्म करने का बीड़ा उठाया था और उनके हिस्से की हर सीट पर अपना उम्मीदवार उतारा था।

भाजपा की ओर से बार बार कहा जाता है कि चिराग ने यह काम अपनी मर्जी से किया था। लेकिन हकीकत सबको पता है। भाजपा के कई दिग्गज नेता 2020 में चिराग की पार्टी की टिकट पर लड़े थे और बाद में भाजपा में लौट गए थे। सोचें, 2019 में भाजपा, जदयू और लोजपा का परफेक्ट गठबंधन था। तीनों ने मिल कर 40 में से 39 लोकसभा सीटें जीती थीं तो 2020 में ऐसा क्या हो गया कि चिराग अलग लड़ने चले गए और नीतीश को खत्म करने का संकल्प कर लिया? वह भी तब जब उनके पिता रामविलास पासवान जीवित थे!

बहरहाल, भाजपा के इस दांव के बावजूद संयोग ऐसा हुआ कि नीतीश खत्म नहीं हुए। उनकी पार्टी को 43 सीटें मिल गईं और विधानसभा की संरचना ऐसी बनी कि उनके बगैर किसी की सरकार नहीं बन सकती थी। चूंकि भाजपा उनके चेहरे पर चुनाव लड़ी थी इसलिए मजबूरी हो गई कि उनको सीएम बनाया जाए। लेकिन नीतीश ने गांठ बांधी ली थी भाजपा से बदला निकालने की। तभी भाजपा के साथ करीब दो साल सरकार चलाने के बाद वे मंडल की राजनीति को जिंदा करने के लिए राजद के साथ चले गए। उसके बाद से भाजपा ने उनको राजनीतिक रूप से कमजोर करने का दूसरा अभियान शुरू किया। इसके तहत उनके आधार वोट को तोड़ने का प्रयास हो रहा है। इससे पहले तक भाजपा लालू प्रसाद के आधार वोट में सेंध लगाने का प्रयास कर रही थी।

लेकिन दूसरे चरण में उसने नीतीश को निशाना बनाया। इसके लिए कोईरी जाति के मजबूत नेता सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। ध्यान रहे नीतीश की राजनीति का कोर वोट आधार कोईरी-कुर्मी-धानुक का है। इसमें उन्होंने बड़ी होशियारी से अत्यंत पिछड़ी जातियों और महादलित को जोड़ा है और सामान्य वर्ग के सहयोग से एक मजबूत आधार तैयार किया है। सम्राट चौधरी को अध्यक्ष बनाने के बाद भाजपा ने उनकी जगह हरि सहनी को विधान परिषद में अपना नेता बनाया, जो अत्यंत पिछड़ी जाति से आते हैं और सामान्य वर्ग के विजय सिन्हा को विधानसभा में नेता विपक्ष बनाया। इस तरह भाजपा ने नीतीश के लव-कुश और अत्यंत पिछड़ा व सवर्ण के समीकरण की तरह अपना जातीय समीकरण तैयार किया।

तभी नीतीश कुमार के लिए यह जरूरी हो गया था कि वे अपने वोट आधार को टूटने से बचाने के लिए कोई पहल करें। ललन सिंह के अध्यक्ष रहते यह संभव नहीं था क्योंकि उनकी वजह से जदयू के पूरी तरह से राजद समर्थक और भाजपा-मोदी विरोधी पार्टी बन जाने की छवि बन रही थी। सो, ललन सिंह की जगह अध्यक्ष बन कर नीतीश ने एक तीर से कई शिकार किए हैं। उन्होंने पार्टी के राजद समर्थक होने की धारणा तोड़ी है। ध्यान रहे बिहार में राजद समर्थक होने का एक फायदा है कि मुस्लिम-यादव का 32 फीसदी वोट मिल जाता है लेकिन नुकसान बहुत ज्यादा है। बाकी 68 फीसदी वोट में नाराजगी का खतरा पैदा होता है।

आज भी राजद को लेकर बिहार का बड़ा तबका आशंकित रहता है, जिसमें अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं, दलित हैं और सवर्ण हैं। दूसरी मझोली जातियां जैसे कोईरी-कुर्मी आशंकित नहीं रहते हैं लेकिन वे भी राजद विरोधी हैं क्योंकि ये जातियां अब सत्ता पर अपना अधिकार चाहती हैं। इसलिए नीतीश ने अध्यक्ष बन कर पहला काम तो यह किया कि राजद विरोधी वोट में मैसेज बनवाया कि वे राजद के आगे समर्पण नहीं कर चुके हैं और उनका अपना नेतृत्व कायम है। ध्यान रहे बिहार में कमजोर और वंचित जातीय समूहों, सवर्णों और महिलाओं में नीतीश के प्रति बहुत लगाव रहा है और तमाम प्रचार के बावजूद वह खत्म नहीं हुआ है। नीतीश ने उसे फिर से जिंदा करने का प्रयास किया है।

इसी दांव से उन्होंने जदयू के भाजपा विरोधी होने की छवि को तोड़ने का प्रयास भी किया है। गौरतलब है कि ललन सिंह की वजह से जदयू के बारे में यह धारणा बनी थी कि वह भाजपा और नरेंद्र मोदी की घनघोर विरोधी पार्टी हो गई है। संसद में दिया गया ललन सिंह का भाषण हो या बाहर के भी बयान हों। जैसे जैसे वे राजद के नजदीक पार्टी को ले जा रहे थे वैसे वैसे भाजपा से कटुता बढ़ रही थी।

नीतीश को पता है कि बिहार में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो केंद्र में नरेंद्र मोदी का समर्थन करता है लेकिन बिहार में नीतीश को देखना चाहता है। ललन सिंह की राजनीति से ऐसे वर्ग में नीतीश विरोधी धारणा बन रही थी। उनको हटा कर नीतीश ने इस तबके को संतुष्ट किया है। अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि नीतीश किसके साथ लोकसभा चुनाव लड़ेंगे लेकिन अगर वे राजद और कांग्रेस के साथ ही लड़ते हैं तब भी चुनाव में यह मैसेज बना रहेगा कि वे चुनाव के बाद भाजपा के साथ जा सकते हैं।

सो, नीतीश ने राजद के रंग में रंगे होने की धारणा तोड़ी है तो भाजपा से नजदीकी का मैसेज भी बनवाया है। इसका फायदा यह हुआ है कि 10 दिन पहले जहां यह चर्चा हो रही थी कि जदयू का विलय राजद में होगा, जदयू में टूट हो जाएगी और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनेंगे वहां अब यह चर्चा हो रही है कि जदयू का तालमेल भाजपा के साथ हो सकता है। इससे नीतीश को पहला फायदा यह हुआ है कि उनकी पार्टी टूटने की चर्चा थम गई है। अगर वे राजद के साथ ही रहते तो उनके कई सांसद छोड़ कर जाते क्योंकि पिछली बार वे राजद के खिलाफ लड़ कर जीते थे और इस बार उनकी सीट राजद को मिलने वाली है।

भाजपा के साथ जाने की चर्चाओं से सांसदों में कंफ्यूजन बना है। अगर जदयू और भाजपा का तालमेल हो जाता है तब तो कोई बात नहीं है लेकिन अगर नहीं भी जाते हैं और अगले एक-दो महीने कंफ्यूजन बना रहता है तो सांसदों के टूटने की संभावना काफी कम हो जाएगी। दूसरी ओर राजनीतिक पहल अपने हाथ में लेकर नीतीश ने गेंद भाजपा और राजद के पाले में डाल दी है। अगर राजद की महत्वाकांक्षा तेजस्वी को सीएम बनाने की है और नीतीश यह इच्छा नहीं पूरी करते तब भी लालू प्रसाद समर्थन वापस लेकर गठबंधन की सरकार नहीं गिरा सकते हैं।

इससे ‘इंडिया’ ब्लॉक में, सेकुलर राजनीति में और मतदाताओं के बीच उनकी साख बिगड़ेगी। तभी राजद की मजबूर है कि वह नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखे। दूसरी ओर भाजपा की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह नीतीश की पार्टी के 30 विधायक तोड़ सके। इतने विधायक तोड़ने से भी राज्य में उसकी सरकार नहीं बनने वाली है।

उलटे नीतीश को कमजोर करने के प्रत्यक्ष मैसेज से नीतीश को फायदा होगा। भाजपा के लिए सबसे अहम लोकसभा चुनाव हैं, जिसमें उसे अपनी 17 और लोजपा की छह सीटें बचानी हैं। जदयू, राजद और कांग्रेस के साथ होने की वजह से यह मुश्किल होगा। गौरतलब है कि पिछली बार एनडीए को 39 सीटें मिली थीं। अगर नीतीश और भाजपा का तालमेल हो जाता है तो एनडीए को फिर एकतरफा जीत मिलेगी और दूसरा फायदा यह होगा कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की राजनीति पंक्चर होगी। भाजपा को यह सब्जबाग दिखा कर नीतीश सीएम बने रह सकते हैं।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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