इस साल अब सिर्फ बिहार में विधानसभा का चुनाव है। बिहार अब भी भारतीय जनता पार्टी के लिए अबूझ पहेली है। ऐसी पहेली, जिसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक सब सुलझाना चाहते हैं। (bihar asseimbly election)
लेकिन समझ में नहीं आता है कि इस चक्रव्यूह को कैसे तोड़ें। लोकसभा चुनाव में जो बिहार बड़ी आसानी से भाजपा के हाथ में आ जाता है वह विधानसभा चुनाव में कैसे हाथ से फिसल जाता है यह बड़ा सवाल है।
ध्यान रहे बिहार में एनडीए 2009 से लेकर 2024 तक चार चुनावों से बड़ी जीत हासिल कर रहा है। इसमें 2014 का चुनाव भाजपा ने बिना नीतीश कुमार के लड़ा था और तब भी उसने बड़ी जीत हासिल की थी।
बगैर नीतीश के भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 40 में से 32 सीटें जीती थीं। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में वही भाजपा और वही उसके सहयोगी सब फेल हो गए।
पूरा एनडीए 59 सीटों पर सिमट गया। दोनों चुनावों का फर्क यह था कि 2014 में नीतीश अकेले लड़े थे तो 2015 में उन्होंने राजद और कांग्रेस से हाथ मिला लिया था। (bihar asseimbly election)
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नीतीश ने 2014 के चुनाव से सबक लिया कि अकेले नहीं लड़ना है तो भाजपा ने 2015 के नतीजे से सबक लिया कि बिना नीतीश के नहीं लड़ना है। भाजपा को समझ में आ गया कि नीतीश के बिना 2014 में मिली जीत एक बार की जीत थी, जिसे दोहराया नहीं जा सकता है।
तभी उसके बाद नीतीश ने पाला बदला तब भी भाजपा ने उनसे दूरी नहीं बनाई। उनको 43 सीट मिली तब भी उनको मुख्यमंत्री बनाया और राजद के साथ जाकर वापस लौटे तब भी उनको सीएम बनाया। (bihar asseimbly election)
2024 के चुनाव में नीतीश को लगभग बराबर सीटें देकर समझौता किया, जिसका लाभ भाजपा को मिला। इस पृष्ठभूमि में जब 2025 के विधानसभा चुनाव को देखते हैं तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या नीतीश अब भी एनडीए की नाव पार लगा सकते हैं?
इसके अलावा और भी कई सवाल हैं, जो नीतीश की पार्टी के भविष्य, चिराग पासवान के साथ नीतीश के संबंध और भाजपा व नीतीश के संबंधों से जुड़े हैं।
सबसे पहले इस सवाल पर विचार की जरुरत है कि क्या नीतीश अब भी एनडीए को चुनाव जिताने में सक्षम हैं या उनकी वजह से एनडीए के लिए रास्ता मुश्किल हो गया है? (bihar asseimbly election)
नीतीश कुमार का चेहरा NDA की सबसे बड़ी पूंजी
बिहार में नीतीश कुमार का चेहरा अब भी एनडीए की सबसे बड़ी पूंजी है। लेकिन उस पूंजी का लगातार क्षरण हो रहा है। इसका मुख्य कारण नीतीश स्वंय हैं। (bihar asseimbly election)
उनकी सेहत को लेकर लगातार आ रही खबरें और सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनके आचरण से उनके नेतृत्व करने की क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं।
बिहार के राजनीतिक रूप से सजग मतदाता यह देख रहे हैं कि पिछले 20 साल से बिहार का राजकाज चला रहे नीतीश अब शारीरिक और मानसिक रूप से थके हुए हैं, पहले की तरह सक्षम नहीं हैं और इसका असर सरकार के कामकाज पर पड़ रहा है।
उनके बारे में बन रही इस धारणा ने बिहार के मतदाताओं को विकल्प पर विचार करने के लिए बाध्य किया है। ध्यान रहे इससे पहले बिहार के लोग विकल्प के बारे में सोचते भी नहीं थे। (bihar asseimbly election)
व्यापक मतदाता समूह नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए आंख बंद करके वोट डालता था। लेकिन नीतीश की नेतृत्व और प्रशासन संभालने की क्षमता सवालों के घेरे में है।
बिहार के मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव के बाद (bihar asseimbly election)
नीतीश खुद इस बात से परिचित हैं और इसलिए वे चाहते थे कि समय से पहले चुनाव हो जाए। पिछले साल जनवरी में भाजपा के साथ वापस लौटने के बाद से वे लगातार विधानसभा चुनाव कराने के लिए दबाव बना रहे थे।
लेकिन भाजपा इसे टालती रही है क्योंकि वह नीतीश के साथ शह मात का खेल खेल रही है। भाजपा को लग रहा है कि नीतीश कुमार अभी तक मोलभाव करने की स्थिति में हैं और अगर अभी चुनाव होता है तो उनकी पार्टी को ज्यादा सीटें देनी होंगी।
अगर नीतीश की मानसिक व शारीरिक स्थिति और बिगड़ती है तो फिर उनकी पार्टी मोलभाव की स्थिति में नहीं रह जाएगी। यह भाजपा का दूर का दांव है, जो वह अपना मुख्यमंत्री बनाने की सोच में चल रही है। (bihar asseimbly election)
इसी सोच में अमित शाह ने कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री का फैसला चुनाव के बाद होगा। इसका मतलब है कि भाजपा नीतीश के नेतृत्व में तो लड़ेगी, लेकिन वे मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं होंगे।
इसी तरह भाजपा ने मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के साथ किया था। इसी की काट में नीतीश के बेटे निशांत कुमार को लॉन्च किया जा रहा है। उनके रूप में जदयू को एक नेता मिल सकता है लेकिन इससे एनडीए के अंदर का अंतर्विरोध बढ़ जाएगा।
सीएम का चेहरा बना कर चुनाव नहीं लड़ा जाएगा
बहरहाल, एक तरफ नीतीश कुमार की सेहत और उनके 20 साल के शासन की एंटी इन्कम्बैंसी है तो दूसरी ओर भाजपा का यह दांव है कि नीतीश को सीएम चेहरा नहीं घोषित करना है। ध्यान रहे नीतीश पिछले 30 साल से सीएम प्रोजेक्ट होकर ही लड़ रहे हैं।
पहली बार ऐसा हो रहा है कि उनको सीएम का चेहरा बना कर चुनाव नहीं लड़ा जाएगा। इस वजह से भी बिहार के मतदाता विकल्प के बारे में सोच रहे हैं। एनडीए के लिए इसी वजह से स्थिति विकट हो रही है कि उसके पास कोई विकल्प नहीं है। (bihar asseimbly election)
नीतीश कुमार ने अपने लंबे राजनीतिक जीवन में अपना कोई उत्तराधिकारी या कोई विकल्प नहीं बनाया। इसी तरह भाजपा ने बिहार में कोई चेहरा तैयार नहीं किया। पिछले 30 साल में जो एक चेहरा बना था वह सुशील मोदी का था, जिनका निधन हो गया है।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाजपा की कमान संभालने के बाद नित्यानंद राय से लेकर संजय जायसवाल और रेणु देवी से लेकर तारकिशोर प्रसाद तक का प्रयोग हुआ और अब सम्राट चौधरी पर आकर प्रयोग रूका है।(bihar asseimbly election)
फिर भी भाजपा ने सम्राट चौधरी को बिहार की एकछत्र बागडोर नहीं सौंपी। अगर सौंपी गई होती तो वे नीतीश का विकल्प बन सकते थे। वे उसी लव कुश समीकरण का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके नेता नीतीश हैं।
इसके अलावा नीतीश ने महिला, अति पिछड़ा, महादलित, पासवान और सवर्ण मतदाता अपने साथ जोड़ा था, जो सम्राट चौधरी के साथ भी जुड़ा रह सकता है। परंतु यह तब होता, जब यह संदेश बनता कि चुनाव के बाद सम्राट मुख्यमंत्री होंगे।(bihar asseimbly election)
नीतीश मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं (bihar asseimbly election)
अब स्थिति यह है कि नीतीश मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं होंगे और दूसरा कोई चेहरा प्रोजेक्ट नहीं किया गया है। यानी बिना चेहरे के सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की तैयारी है।
इसका एडवांटेज राजद के तेजस्वी यादव को मिल सकता है क्योंकि वे एक विकल्प के तौर पर पिछले 10 साल में स्थापित हुए हैं। उनके नेतृत्व में एक निरंतरता है। वे 2015 में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार में उप मुख्यमंत्री बने। (bihar asseimbly election)
2017 में जब नीतीश राजद को छोड़ कर भाजपा के साथ गए तो तेजस्वी नेता प्रतिपक्ष बने। 2020 के चुनाव में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनी और वे फिर नेता प्रतिपक्ष बने। 2022 में नीतीश ने उनको फिर उप मुख्यमंत्री बनाया।
उसके बाद 2024 में वे फिर नेता प्रतिपक्ष बने। पिछले दो चुनावों से उनकी पार्टी बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी बन रही है। इस निरंतरता ने उनको नीतीश के विकल्प के तौर पर स्थापित किया है।
उनको इस वजह से भी एडवांटेज है कि वे पिछड़ी जाति से हैं, जिसकी आबादी बिहार में 63 फीसदी के करीब है और उस राजनीतिक धारा से आते हैं, जिसका पिछले 35 साल से राज है। (bihar asseimbly election)
मुस्लिम-यादव समीकरण 32 फीसदी का
जैसे लालू प्रसाद और राबड़ी देवी से बिहार का राज नीतीश को ट्रांसफर हुआ उसी तरह नीतीश से तेजस्वी को हो सकता है। यह ट्रांसफर बहुत सहज रूप से हो सकता है।
अगर पिछड़ी जातियों को लग जाता है कि नीतीश अब नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं हैं और उनकी पार्टी या गठबंधन कोई दूसरा अच्छा विकल्प नहीं पेश कर पा रहा है तो वे तेजस्वी की ओर मुड़ सकते हैं। (bihar asseimbly election)
तर्क के लिए एनडीए के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बात कही जा सकती है, राजद के यादव वोट आधार के खिलाफ अति पिछड़ी जातियों व सवर्ण ध्रुवीकरण की बात भी कही जा सकती है लेकिन यह सिर्फ तर्क के लिए है।
क्योंकि मुस्लिम-यादव समीकरण 32 फीसदी का है, जिसमें इस बार कोई टूट नहीं होगी। ऊपर से पिछले लोकसभा चुनाव में दलित वोट का एक चौथाई हिस्सा महागठबंधन के साथ गया। सासाराम की सुरक्षित सीट पर कांग्रेस के मनोज राम की जीत इसी वजह से हुई।
मुकेश सहनी की वजह से कुछ मल्लाह वोट राजद के साथ जुड़ेगा। इसके अलावा एनडीए के अंतर्विरोध की वजह से कुशवाहा और पासवान ये दो वोट नीतीश की पार्टी के खिलाफ जा सकते हैं, इसका भी फायदा राजद को होगा। (bihar asseimbly election)