चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने भारत की उच्च न्यायपालिका की एक बड़ी खामी की ओर इशारा किया है। उनके पूर्ववर्ती चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने भी जाते जाते इसका संकेत दिया था। उसे चीफ जस्टिस गवाई से ज्यादा विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि रिटायर होने के तुरंत बाद जजों के कोई सरकारी पद स्वीकार करने या बेंच से इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने से न्यायपालिका के सामने साख का संकट खड़ा होता है। आम लोगों का भरोसा टूटता है। उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन सबसे ताजा मिसाल कलकत्ता हाई कोर्ट के जज जस्टिस अभिजीत गांगुली का है, जिन्होंने बेंच में रहते हुए राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ कई फैसले किए और कई टिप्पणियां कीं और एक दिन बेंच से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए। वे भाजपा की टिकट से चुनाव लड़े और अभी लोकसभा सांसद हैं।
उनसे पहले कई न्यायाधीशों को रिटायर होने के साथ ही सरकार ने किसी न किसी पद पर नियुक्त किया। चीफ जस्टिस रहे रंजन गोगोई को राज्यसभा का मनोनीत सांसद बनाया गया तो जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। उनसे पहले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस ही एनएचआरसी के अध्यक्ष बनते थे। लेकिन जस्टिस अरुण मिश्रा से यह परंपरा टूटी। इससे भी पहले सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस पी सदाशिवन को केरल का राज्यपाल बनाया गया था। उससे पहले की भी कई मिसालें दी जा सकती हैं। इस मामले में कोई सरकार अपवाद नहीं है।
बहरहाल, चीफ जस्टिस गवई के पूर्ववर्ती चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने साफ किया था कि वे रिटायर होने के बाद कोई सरकारी पद नहीं लेंगे। यह एक स्वैच्छिक घोषणा है लेकिन पिछले कुछ दिनों में हुई नियुक्तियों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार न्यायपालिका से रिटायर होने वाले लोगों को भी कोई दूसरा पद देने के लिए कैसे चुन रही है। इसकी एक मिसाल जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाने में देखी जा सकती है। 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन के बाद से ही सुप्रीम कोर्ट का रिटायर चीफ जस्टिस ही इसका अध्यक्ष बनता था। चीफ जस्टिस रहे रंगनाथ मिश्र पहले अध्यक्ष थे और चीफ जस्टिस एचएल दत्तू तक यह सिलसिला चला।
लेकिन जून 2021 में केंद्र सरकार ने इस सिलसिले को तोड़ दिया और सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए विवादित जज जस्टिस अरुण मिश्रा को एनएचआरसी का अध्यक्ष बनाया। ऐसा नहीं है कि उस समय रिटायर चीफ जस्टिस नहीं थे। जस्टिस अरविंद शरद बोबड़े अप्रैल 2021 में रिटायर हुए थे। उनसे पहले रिटायर हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस टीएस ठाकुर भी थे। लेकिन उनकी बजाय सरकार ने अरुण मिश्रा को चुना। इसलिए यह भी कह सकते हैं कि चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और चीफ जस्टिस बीआर गवई को अंदाजा होगा कि सरकार उनको कोई नियुक्ति नहीं देने वाली है।
बहरहाल, इन दोनों माननीय जजों ने जो नजीर पेश की है और जिस तरह के नैतिकता के सवाल उठाए हैं वह सिर्फ न्यायपालिका के लिए नहीं है, बल्कि सेना के अधिकारियों और भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के अधिकारियों के बारे में भी है। जिस तरह से जज के रिटायर होने के तुरंत बाद किसी अच्छे पद पर विराजमान होने से न्यायपालिका के प्रति लोगों की धारणा प्रभावित होती है और न्यायपालिका की साख पर सवाल होता है वैसे ही सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति या प्रशासनिक अधिकारियों की भी सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद किसी राजनीतिक पद पर नियुक्ति या चुनाव लड़ने से सेना व प्रशासन की साख पर असर पड़ता है और सेवा की शुचिता व गुणवत्ता प्रभावित होती है। सरकारी अधिकारियों के मामले में दो साल का कूलिंग ऑफ पीरियड है लेकिन सरकार चाहे तो उसके माफ कर सकती है और रिटायर होने के तुरंत नियुक्ति का रास्ता साफ कर सकती है। चुनाव लड़ने के मामले में तो कोई कूलिंग ऑफ पीरियड नहीं है। सेना और प्रशासन के अधिकारी रिटाय़र होकर या इस्तीफा देकर चुनाव लड़ रहे हैं और मजे में राजनीति कर रहे हैं। इस बढ़ती प्रवृत्ति का असर सेवा की गुणवत्ता पर पड़ता है।
चीफ जस्टिस ने जिस साख और विश्वसनीयता पर असर की बात कही वह न्यायपालिका, सेना और प्रशासन तीनों के लिए एक समान है। जजों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की वजह से अदालती प्रक्रिया प्रभावित हो रही है। बहस के दौरान टिप्पणियों से लेकर फैसलों तक पर इसका असर दिखता है। कलकत्ता हाई कोर्ट के जज रहे जस्टिस अभिजीत गांगुली की ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ की गई टिप्पणियों और उनके फैसलों को देखा जा सकता है। ऐसा लग रहा था कि वे महीनों, बरसों से इस बात की तैयारी कर रहे थे कि उनको भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ना है और राजनीति करनी है। अगर यह नियम बने कि दो साल तक न कोई सक्रिय राजनीति में जा सकता है और न कोई पद स्वीकार कर सकता है तो इस प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। भारत की सेना बुनियादी रूप से तटस्थ और अराजनीतिक रही है लेकिन जनरल वीके सिंह सेना प्रमुख से रिटायर होने के बाद भाजपा में शामिल हो गए। उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा और केंद्र में मंत्री रहे।
दो बार सांसद रहने के बाद उनको राज्यपाल बना दिया गया। क्या उनकी यह ‘उपलब्धि’ सेना के दूसरे अधिकारियों को नहीं ललचाती होगी? इसी तरह मौजूदा सरकार ने अधिकारियों को चुन चुन कर मंत्री बनाया और बाद में उनको राज्यसभा या लोकसभा के जरिए संसद में पहुंचाया गया। विदेश सचिव रहे एस जयशंकर अभी विदेश मंत्री हैं तो राजदूत रहे हरदीप पुरी शहरी विकास मंत्री हैं। पूर्व आईएएस अधिकारी अर्जुन राम मेघवाल कानून मंत्री हैं तो अश्विनी वैष्णव रेल, सूचना प्रसारण और आईटी जैसे तीन बड़े मंत्रालय संभाल रहे हैं। गृह सचिव रहे आरके सिंह भी पिछली सरकार में मंत्री थे।
ध्यान रहे वैष्णव वीआरएस लेकर राजनीति में आए तो जयशंकर के रिटायर होने के बाद केंद्र सरकार ने उनका कूलिंग ऑफ पीरियड माफ किया, जिससे वे तत्काल की टाटा समूह में बड़े पदाधिकारी बन गए थे। कई आईएएस और आईपीएस अधिकारी वीआरएस लेकर चुनाव लड़े और जीते हैं। पहले ऐसे मामले अपवाद के तौर पर देखने को मिलते थे। लेकिन अब यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसलिए किसी उपाय से इसको रोकने की जरुरत है।