राष्ट्रवाद के नाम पर भारत में फिर दिखावे का खेल शुरू हो गया है। देश के लोग तुर्किए और अजरबैजान का बहिष्कार कर रहे हैं। देश के बड़े उद्योगपति लोगों को उकसा रहे हैं कि वे इन दोनों देशों का बहिष्कार करें क्योंकि इन दोनों देशों ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान पाकिस्तान का साथ दिया था। उद्योगपति से सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर बने एक सज्जन का कहना है कि तुर्किए को भारत के पर्यटकों ने पिछले साल 44 सौ करोड़ रुपए का कारोबार दिया है। उनकी अपील है कि देश में ज्यादा खूबसूरत जगहें हैं इसलिए लोगों को तुर्किए जाने की बजाय देश में घूमना चाहिए।
भारत के लोग बड़े उत्साह के साथ राष्ट्रवाद के इस महायज्ञ में अपने हिस्से का होम कर रहे हैं। वे तुर्किए और अजरबैजान की यात्रा रद्द कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि उनके इस महान कर्म को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में शामिल किसी सैनिक के योगदान के बराबर माना जाए। हालांकि इन भोले लोगों को कहा जाए कि तुर्किए में टाटा समूह का निवेश है, जीएमआर का निवेश है, अडानी ग्रीन भी निवेश करने जा रहा है इसलिए तुर्किए के साथ साथ इन कंपनियों का भी बहिष्कार करना चाहिए तो शायद राष्ट्रवाद का उफान थोड़ा कम हो!
बहरहाल, अभी तो मीडिया में बताया जा रहा है कि तुर्किए और अजरबैजान की बुकिंग में 60 फीसदी की कमी आई है और कैंसिलेशन की दर ढाई सौ फीसदी बढ़ गई है। बड़े जोर शोर से इस बहिष्कार अभियान का प्रचार किया जा रहा है। असल में इस तरह हम भारतीय लोग अपने चरित्र का परिचय दे रहे हैं। हमारा चरित्र शक्तिशाली के सामने डट कर खड़े होने का नहीं है। हम कमजोर पर अपनी ताकत आजमाते हैं। तभी तुर्किए और अजरबैजान का बहिष्कार कर रहे हैं और चीन का नाम भी नहीं ले रहे हैं।
अगर पाकिस्तान का साथ देने के लिए बहिष्कार करना ही है तो शुरुआत चीन से होनी चाहिए। उद्योगपति से सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर बने सज्जन जो बता रहे हैं कि तुर्किए व अजरबैजान को भारतीय पर्यटकों ने 44 सौ करोड़ रुपए का कारोबार दिया उनको बताना चाहिए कि चीन के साथ हमने कितने का कारोबार किया और उसमें हमारा नुकसान कितना है यानी भारत का व्यापार घाटा कितना है!
लेकिन वे नहीं बताएंगे। यही हिप्पोक्रेसी हमको ‘महान’ बनाती है। तुर्की व अजरबैजान के बहिष्कार की मुहिम पर सोचते हुए राजू श्रीवास्तव का एक स्टैंडअप एक्ट याद आ रहा था, जिसमें उन्होंने कबीर दास के एक दोहे की पैरोडी बनाई थी, ‘ऐसी वाणी बोलिए की जम के झगड़ा होए, पर उससे ना बोलिए जो आपसे तगड़ा होए’।
राष्ट्रवाद की हिप्पोक्रेसी और चीन
यही हमारा जीवन चरित्र है। हम उससे कभी नहीं बोलते हैं, जो हमसे तगड़ा हो यानी हमसे शक्तिशाली हो। भारतीयों के मन से यह भय निकालते निकालते महात्मा गांधी की जान चली गई लेकिन हमारे मन का भय नहीं गया। वैसे तो दर्जनों मनोभाव होते हैं, जिनके बारे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी किताब ‘चिंतामणि’ में बहुत विस्तार से लिखा है। लेकिन हम भारतीय मूल रूप से दो ही मनोभावों से निर्देशित होते हैं। पहला है भय और दूसरा है लालच। ये ही दोनों मनोभाव असल में हम भारतीयों को चीन का नाम लेने या उसका बहिष्कार करने से रोकते हैं।
भारत के लाखों छोटे उद्यमी अपना उद्यम बंद कर चुके हैं और वे चीन के सामानों के व्यापारी बन गए हैं। वे चीन से बहुत सस्ता सामान खरीदते हैं और भारत में बेच कर मुनाफा कमाते हैं। पहलगाम कांड के बाद दिल्ली और देश के बाजार बंद कराने वाले व्यापारियों से अगर कहा जाए कि वे बाजार बंद कराने की बजाय चीन से कारोबार बंद कर दें तो उनका राष्ट्रवाद तुरंत हवा में विलीन हो जाएगा। लेकिन तुर्किए और अजरबैजान के बहिष्कार के नाम पर सबका राष्ट्रवाद फनफना कर बाहर आ गया है।
कुछ दिन पहले ऐसे ही एक पिद्दी से देश मालदीव का बहिष्कार पूरा देश कर रहा था। 145 करोड़ लोगों का देश पांच लाख की आबादी वाले मालदीव का बहिष्कार कर रहा था। मजेदार बात यह है कि उससे मालदीव की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। वहां के राष्ट्रपति चीन के समर्थक हैं तो चीन के समर्थक बने हुए हैं। उसी तरह तुर्किए और अजरबैजान जैसे पिद्दी देशों का बहिष्कार किया जा रहा है कि उन्होंने पाकिस्तान का साथ दिया। लेकिन चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया उस पर चौतरफा चुप्पी है। चीन ने पाकिस्तान को अपना सदाबहार दोस्त कहा।
उसने पाकिस्तान को सैन्य साजोसामान दिए। इतना ही नहीं चीन ने पाकिस्तान की संप्रभुता की रक्षा करने की गारंटी दी है। फिर भी उससे कोई नाराजगी नहीं है! इससे पहले 2020 में गलवान घाटी में चीन के सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों की हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें हमारे 20 बहादुर जवान शहीद हुए थे। उसके बाद चीन ने लद्दाख में भारत की जमीन कब्जा कर ली।
महीनों, बरसों तक चीन के साथ वार्ता हुई और अंत में यह समझौता हुआ कि भारत पहले जिन इलाकों में गश्त करता था उन्हें बफर जोन बना दिया जाए और भारत गश्त की पुरानी जगह से बहुत पीछे हट गया। यह भी तथ्य है कि गलवान झड़प के बाद के पांच वर्षों में चीन के साथ कारोबार में बेइंतहां बढ़ोतरी हुई। सरकारी और निजी दोनों कारोबार बढ़ता ही गया।
अभी चीन ने अरुणाचल प्रदेश के अंदर 27 गांवों, पहाड़ों, नदियों के नाम बदल दिए हैं। चीन ने जो नाम बदले हैं उनमें 15 पहाड़ों के नाम हैं, पांच कस्बे हैं, चार पहाड़ी दर्रे हैं, दो नदियां और एक झील शामिल है। इन तमाम नामों की सूची चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने प्रकाशित किया है। चीन ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर भी इनका नाम डाल दिया है। पिछले कई बरसों से चीन अरुणाचल प्रदेश के गांवों, कस्बों, नदियों और पहाड़ों के नाम बदल रहा है। पिछले आठ साल में उसने कुल 92 नाम बदले हैं।
वह इन इलाकों को चीनी, तिब्बती या पिनयिन नाम देता है। भारत की ओर से कहा गया है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग था, है और आगे भी रहेगा। लेकिन हैरानी है कि इससे देश में किसी का खून नहीं खौल रहा है। किसी को चीन का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं हो रही है। कोई बात तक नहीं कर रहा है। सारा जोर तुर्की और अजरबैजान पर दिखाया जा रहा है।
अगर बहिष्कार करना है तो चीन का कीजिए। बंद कर दीजिए चीन के साथ कारोबार। जिस तरह से पाकिस्तान के साथ लड़ाई के समय 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देश के लोगों से एक समय का खाना छोड़ने की अपील की थी वैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के लोगों से सहयोग की अपील करते हुए चीन से कारोबार बंद कर दें। क्या प्रधानमंत्री ऐसा कर सकते हैं? चीन के साथ भारत का कारोबार 128 अरब डॉलर यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें से 113 अरब डॉलर से थोड़ा ज्यादा का आयात भारत करता है और 14 अरब डॉलर से थोड़ा ज्यादा का निर्यात करता है।
इस तरह एक सौ अरब डॉलर यानी करीब नौ लाख करोड़ रुपए का सालाना व्यापार घाटा चीन से है। तभी कारोबार बंद करने का भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर होगा। कृषि और दवा से लेकर ऑटोमोबाइल और दूसरे कई सेक्टर बुरी तरह से प्रभावित होंगे। असलियत यह है कि आत्मनिर्भर भारत बनाते बनाते सरकार ने भारत को चीन पर निर्भर बना दिया है। उसके बगैर भारत का काम चल ही नहीं सकता है। इसलिए कोई चीन का नाम नहीं लेता है। राष्ट्रवाद की बंदूक कभी पाकिस्तान, कभी मालदीव, कभी तुर्किए तो कभी अजरबैजान की ओर मोड़ दी जाती है।
अगर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान पाकिस्तान की मदद के लिए तुर्की और अजरबैजान का बहिष्कार किया जा रहा है तो साथ के साथ चीन का भी बहिष्कार होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का भी बहिष्कार होना चाहिए, जिसने पाकिस्तान को 2.3 अरब डॉलर का कर्ज दिया है। अमेरिका का भी होना चाहिए, जिसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को दोस्त बताया है और भारत के साथ साथ पाकिस्तान को भी महान देश कहा है। लेकिन हम लोगों में इतनी हिम्मत नहीं है कि चीन, अमेरिका, आईएमएफ आदि का बहिष्कार करें इसलिए तुर्किए, अजरबैजान से काम चलाते हैं।
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Pic Credit: ANI