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हम आजादी में जी रहे या पाबंदियों में?

आजादी

एक अनुशासन के रूप में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी कभी न कभी इस सवाल से जरूर टकराए होंगे कि असली आजादी क्या है? आजादी की परिभाषा तय करने के क्रम में एक तुलनात्मक प्रश्न पूछा जाता है। मान लीजिए कि एक बच्चा है, जो सुबह अपनी मर्जी से उठता है, स्कूल नहीं जाता है, दिन भर खेल-कूद में या मटरगश्ती में रहता है, उसका जहां मन होता है वहां जाता है, जो मन होता है वह करता है और एक दूसरा बच्चा है, जो सुबह समय से उठता है, तैयार होकर स्कूल जाता है, स्कूल से लौट कर होमवर्क करता है, उसके बाद खेलने जाता है, फिर घर आकर पढ़ता है और समय से सो जाता है, इन दोनों में से किसको आजाद कहा जाएगा- जो मनमर्जी करने को स्वतंत्र है उसे या जो पाबंदियों में जीवन जी रहा है उसे? इ

सी सवाल के जवाब में सकारात्मक और नकारात्मक आजादी की अवधारणा विकसित हुई। इसके मुताबिक सकारात्मक आजादी का मतलब होता है कुछ पाबंदियों के साथ आजादी!

लेकिन सवाल है कि सकारात्मक आजादी के सिद्धांत के तहत नागरिकों पर कितनी पाबंदियां हो सकती हैं? यह एक सार्वभौमिक और शाश्वत प्रश्न है। तभी रूसो ने कहा था कि इंसान स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन सारी उम्र जंजीरों में जकड़ा होता है। सोचें, यह उस दार्शनिक ने कहा था, जिसके विचारों का फ्रांस की क्रांति पर सर्वाधिक असर हुआ और जिसके विचारों से स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा निकला। बहरहाल, आजादी के अमृतकाल में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर यह सवाल भारत के संदर्भ में बहुत मौजूं है कि नागरिकों की आजादी पर कितनी पाबंदियां होनी चाहिए?

इस सवाल को ऐसे भी पूछ सकते हैं कि जितनी पाबंदियां देश के नागरिक झेल रहे हैं उन्हें देखते हुए क्या उनको आजाद कहा जा सकता है? असल में पिछले कुछ समय से नागरिकों की आजादी को सीमित करने के कई प्रयास हो रहे हैं। बोलने की आजादी पर पाबंदी लगाई जा रही है, खान-पान और पहनावे की आजादी को सीमित किया जा रहा है, विवाह और तलाक जैसी निजी चीजों को नियंत्रित करने का प्रयास हो रहा है और यहां तक कि जीने के अधिकार को भी राजनीतिक विचारधारा का विषय बनाया जा रहा है।

आजादी के 76 साल पूरे होने की पूर्व संध्या पर खबर आई कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर मध्य प्रदेश में उनके खिलाफ 41 मुकदमे दर्ज हुए हैं। देश का शायद ही कोई महानगर या बड़ा शहर होगा, जहां राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ है। मानहानि के एक मुकदमे में सूरत की अदालत ने उनको दो साल की सजा सुनाई है, जिसकी वजह से उनकी लोकसभा की सदस्यता चली गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगाई है तो उनकी सदस्यता बची है। ये दोनों सत्तापक्ष के विरोधी नेता हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के एक शहर में एक आम नागरिक को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि वह ऐसे व्हाट्सऐप ग्रुप का एडमिन था, जिसमें किसी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कथित तौर पर कोई अपमानजक पोस्ट लिख दी थी।

पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक कार्टून शेयर करने वाले प्रोफेसर को गिरफ्तार कर लिया गया था और तमिलनाडु में सीपीएम के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक पोस्ट लिखने के आरोप में भाजपा के राज्य सचिव एसजी सूर्या को गिरफ्तार कर लिया गया। आजादी की सालगिरह की पूर्व संध्या पर ऑनलाइन पढ़ाने वाले एक व्यक्ति का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें उसने बच्चों से कहा कि वे अगली बार जब वोट डालें तो किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति को ही वोट दें। उसने किसी का नाम नहीं लिया लेकिन इस वीडियो के बाद उसका जीना दूभर हो गया।

ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत में वाक और अभिव्यक्ति की आजादी कितनी खतरे में है। लोगों को अभिव्यक्ति के प्लेटफॉर्म के रूप में सोशल मीडिया मिल गया है लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी निर्बाध नहीं है। कुछ पाबंदियां संविधान के जरिए लगाई गई हैं और बाकी राजनीतिक या सरकारी पाबंदियां हैं। ऐसा नहीं है कि अभिव्यक्ति का नया प्लेटफॉर्म मिल जाने से लोगों को बोलने की ज्यादा आजादी मिल गई है। उलटे उनकी आजादी सीमित हो गई है। किसी को पता नहीं है कि उसकी कौन सी पोस्ट उसे जेल पहुंचा सकती है या राक्षसी ट्रोल्स का शिकार बना सकती है। पहले सोशल मीडिया नहीं था तो जुलूस निकाले जाते थे और प्रदर्शन होते थे। अब प्रदर्शन के अलग खतरे हैं।

सरकारें सीसीटीवी कैमरे या फेस रिकग्निशन सॉफ्टवेयर के जरिए प्रदर्शन में शामिल लोगों की पहचान कर रही हैं। अगर प्रदर्शन के दौरान सरकारी या निजी संपत्ति को नुकसान होता है तो उसकी वसूली की जा रही है और यह डर भी दिखाया गया है कि प्रदर्शन में शामिल युवाओं को नौकरी मिलने में दिक्कत होगी। इसका लब्बोलुआब यह है कि अपनी असहमति को अपने पास रखिए। अगर उसे अभिव्यक्त करेंगे तो सजा हो सकती है। अगर संसद में अपनी असहमति व्यक्त करते हैं तो माइक बंद कर दिया जाएगा या सांसद को सदन से निलंबित कर दिया जाएगा।

अमृतकाल में आजादी के 76 वर्ष पूरे होने के मौके पर गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने कहा है कि उनकी सरकार इस बात का अध्ययन करेगी कि क्या संविधान की सीमा में रहते हुए ऐसा प्रावधान किया जा सकता है कि प्रेम विवाह करने से पहले माता-पिता की मंजूरी अनिवार्य हो। सोचें, सरकार प्रेम विवाह के लिए अभिभावक की अनुमति को अनिवार्य करने पर विचार कर रही है! क्या इसके आगे तलाक के लिए और बच्चे पैदा करने के लिए भी अभिभावक की मंजूरी अनिवार्य की जा सकती है? भारत सरकार किसी को सम्मानित करने से पहले उससे यह गारंटी लेने के कानून पर विचार कर रही है कि वह पुरस्कार या सम्मान वापस नहीं करेगा। असहमति होगी तब भी अवार्ड वापसी नहीं करनी है।

खान-पान पर पाबंदी के अलग प्रयास हो रहे हैं। होमो सेपियंस के विकास का अध्ययन करने वाले भले मानते हों कि मनुष्य के मांसाहारी होने से सभ्यता के विकास की रफ्तार तेज हुई थी लेकिन भारत में इसे सीमित करने का प्रयास हो रहा है। एक के बाद एक धार्मिक स्थलों के आसपास इसकी बिक्री पर पाबंदी लगाई जा रही है। धार्मिक यात्राओं के रास्ते में मांस-मछली की बिक्री पर रोक लगाई जा रही है।

पर्युषण पर्व से लेकर नवरात्रि तक के धार्मिक मौकों पर बड़े बड़े शहरों में मांस-मछली की बिक्री पर पाबंदी लगाई जा रही है। राह चलते लोगों की थैलियों की तलाशी ली जा रही है। यहां तक कि घरों में घुस कर देखा जा रहा है कि किसकी रसोई में क्या बन रहा है। पहनावे के आधार पर महानगरों तक में स्त्रियों के चरित्र का आकलन किया जा रहा है और पहनावे के आधार पर पहचान करने की भी बात हो रही है।

सरकार डाटा प्रोटेक्शन का कानून ले आई है, जिससे निजता का अधिकार प्रभावित होगा। निजता आजादी की बुनियादी शर्त है लेकिन भारत में उससे ऊपर कई चीजें हैं। संविधान के मौलिक अधिकारों में सम्मान से जीने का अधिकार शामिल है। लेकिन यह अधिकार संविधान से नहीं मिला है। जब संविधान नहीं था तब भी लोगों को सम्मान से जीने का अधिकार था। लेकिन अब उस अधिकार पर भी ग्रहण हैं। कुछ समय से मॉब लिंचिंग की अनेक घटनाएं हुई हैं और धर्म, जाति या राजनीतिक विचारधारा के विद्वेष की वजह से हत्या का सबसे वीभत्स मामला पिछले दिनों जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस में देखने को मिला, जहां पुलिस के एक जवान ने चार लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। इस मामले की सांप्रदायिक पहलू से जांच हो रही है। सोचें, यह आजादी का अमृतकाल है और इसमें आजादी इतनी तरह की पाबंदियों के साथ है!

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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