nayaindia लोकसभा चुनाव: कांग्रेस-भाजपा दलबदल और नेताओं का दिलचस्प खेल

दलबदल के दलदल में राजनीति

लोकसभा चुनाव

लोकसभा चुनाव के बीच जिस तरह से कांग्रेस के नेता पार्टी बदल कर भाजपा में जा रहे हैं और जाते ही भाजपा की टिकट हासिल कर रहे हैं उसे लेकर सोशल मीडिया में मजाक और मीम्स की बाढ़ आई है। लोकसभा की अनेक सीटों पर भाजपा की ओर से पूर्व कांग्रेसी नेता चुनाव लड़ रहे हैं, जिनका मुकाबला कांग्रेस के उम्मीदवार से हो रहा है। यानी कांग्रेसी और पूर्व कांग्रेसी नेता के बीच लड़ाई है।

ऐसा नहीं है कि दलबदल पहले नहीं होता था लेकिन पहले कभी इतने सांस्थायिक रूप से दलबदल देखने को नहीं मिली। इस बार के चुनाव में यह इतना आम हो गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी इसे लेकर तंज किया। उन्होंने नेताओं को नसीहत दी कि वे चुनाव प्रचार में सोच समझ कर एक दूसरे पर हमला करें और संयमित भाषा का इस्तेमाल करें क्योंकि क्या पता आगे किसको किसके साथ काम करना पड़े। सुप्रीम कोर्ट ने भी महाराष्ट्र की दो पार्टियों के विभाजन के मामले में इस पर सुनवाई की है।

दलबदल या पार्टियों के विभाजन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस केवी विश्वनाथ की बेंच ने शरद पवार की पार्टी एनसीपी मामले में कहा कि सिर्फ विधायी बहुमत के आधार पर किसी पार्टी के असली पार्टी होने के दावे को स्वीकार करना ठीक नहीं होगा। दोनों जजों नें कहा कि सिर्फ विधायी आधार पर किसी पार्टी के असली होने का फैसला करना संवैधानिक व्यवस्था के साथ अपराध है।

अदालत की यह बात महाराष्ट्र के स्पीकर के साथ साथ चुनाव आयोग के फैसले पर भी लागू होगी क्योंकि पहले चुनाव आयोग ने ही एकनाथ शिंदे के गुट को असली शिव सेना और अजित पवार गुट को असली एनसीपी माना था। उसके बाद विधानसभा के स्पीकर ने भी इस पर मुहर लगाई। चुनाव आयोग और स्पीकर के फैसले का आधार यह था कि शिव सेना के ज्यादातर सांसद और विधायक एकनाथ शिंद के साथ थे और एनसीपी के मामले में ज्यादातर विधायक और सांसद अजित पवार के साथ थे।

लेकिन क्या सचमुच विधायक और सांसद साथ होना असली पार्टी होने का आधार है? अगर ऐसा है तो बिहार में राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी का क्या हुआ? उसे तो चुनाव आयोग ने असली पार्टी की मान्यता नहीं दी? गौरतलब है कि बिहार में छह सांसदों वाली लोक जनशक्ति पार्टी का विभाजन हुआ था, जिसमें पांच सांसद पशुपति पारस के साथ चले गए थे और चिराग पासवान अकेले बच गए थे।

दोनों के दावों की सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग ने दोनों को अस्थायी तौर पर अलग अलग नाम और अलग अलग चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिए। असली और नकली का फैसला नहीं हुआ। लेकिन अब स्थिति यह है कि इस बार लोकसभा चुनाव में पारस अलग थलग हो गए। भाजपा और जदयू ने उनके साथ समझौता नहीं किया। उनके सहित चार सांसदों को किसी ने टिकट नहीं दी और चिराग पासवान की पार्टी को एनडीए में पांच सीटें मिलीं।

जो फॉर्मूला चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र में लगाया उसके हिसाब से बिहार में असली पार्टी पशुपति पारस की होनी चाहिए थी लेकिन भाजपा और जदयू दोनों ने असली पार्टी चिराग को माना क्योंकि उनके पास सांसद भले नहीं थे पर संगठन और वोट उनके साथ था। महाराष्ट्र में उलटा हुआ। वहां संगठन उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ है लेकिन असली पार्टी शिंदे और अजित पवार की मानी गई। अब सोचें, अगर इस चुनाव में शिंदे और अजित पावर के सांसद हार जाएं तो क्या होगा?

तभी सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बेहद गंभीर और जरूरी दिख रही है। उम्मीद करनी चाहिए कि वह आगे दलबदल कानून और दसवीं अनुसूची को लेकर कुछ स्पष्ट दिशा निर्देश देगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी पार्टी को असली मानने के लिए सिर्फ विधायकों और सांसदों की संख्या को मानने के चलन की बजाय संगठन की क्षमता का भी ध्यान रखना जरूरी किया जाना चाहिए। क्योंकि पार्टी का संगठन ही स्थायी है।

विधायक और सांसद तो आते जाते रहते हैं। जैसे इन दिनों आवाजाही लगी हुई है। इतनी भारी संख्या में दलबदल हुई है कि मतदाता भी कंफ्यूज होंगे कि चेहरा किसका है और चुनाव चिन्ह कौन सा है। जिनको मतदाता दशकों से पंजा छाप पर चुनाव लड़ते देख रहे थे वे कमल का फूल लेकर घूम रहे हैं। कहीं लालटेन निशान वाले कमल के फूल छाप पर लड़ रहे हैं तो कहीं तीर वालों ने लालटेन थाम लिया है। कहीं तीर धनुष वाले कमल के निशान पर चुनाव लड़ रहे हैं तो कहीं कमल वाले पंजा छाप पर लड़ रहे हैं।

पूरे देश में दलबदल का ऐसा दलदल बना है कि विचारधारा और पार्टी के सिद्धांत आदि चीजें पूरी तरह से समाप्त हो गई हैं। देश में जिस तरह से सत्ता के लिए अंधी होड़ शुरू हुई है उसे देख कर नहीं लगता है कि कानूनी तरीके से इसे रोका जा सकता है। जिस समय देश में दलबदल रोकने वाला कानून नहीं था उस समय दलबदल बहुत कम था। पार्टियां टूटती थीं तो समान विचारधारा वाली दूसरी पार्टी बन जाती थी।

समाजवादियों की बनाई पार्टियां कई बार टूटीं लेकिन उनके नेता कांग्रेस या जनसंघ और बाद में भाजपा में नहीं जाते थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से लेकर बाद में जनता पार्टी, लोकदल, समाजवादी जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल और उससे निकली इसी नाम की अनेक पार्टियां बनीं। समाजवादी विचार को मानने वाले नेता इन्हीं पार्टी में रहे। कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट सबके नेता अपनी अपनी पार्टियों में रहे। दलबदल अपवाद होता था। एक दल से दूसरी विचारधारा वाले दूसरे दल में जाने जैसा एक्स्ट्रीम दलबदल बहुत कम होता था।

लेकिन जब से दलबदल रोकने का कानून बना है तब से यह राजनीतिक शिष्टाचार बन गया है। नेताओं के लिए विचारधारा का कोई मतलब नहीं रह गया है और न लोकलाज का कोई मतलब रह गया है। वे कल तक जिस नेता और पार्टी का विरोध करते थे और सार्वजनिक रूप से गालियां देते थे आज उसी पार्टी के नेता की तारीफ के पुल बांधने में उनको दिक्कत नहीं हो रही है।

सोचें, मौजूदा डिजिटल दौर में जब हर व्यक्ति की कही बातें वीडियो और ऑडियो के रूप में उपलब्ध हैं, तब भी नेताओं को अपनी बात से पलटने में मिनट भर का समय नहीं लग रहा है। उसे दिखाया जाता है कि कुछ समय पहले वे जिस नेता को गाली दे रहे थे, आज उसके चरण छू रहे हैं तो वह बेशर्मी के साथ या तो इसका बचाव करता है या टाल जाता है।

सो, यह महामारी है। यह राजनीति के रसातल में पहुंच जाने का सबूत है। यह फालतू की बात है कि सख्त कानून बना देने से यह रूक जाएगा। या यह कानून बन जाए कि एक पार्टी की टिकट से चुनाव जीतने वाला अगर पार्टी छोड़े तो उसे अनिवार्य रूप से इस्तीफा देना पड़ेगा या उसके चुनाव लड़ने पर रोक लग जाए तो दलबदल रूक जाएगा। कितना भी सख्त कानून बना लिया जाए इसे नहीं रोका जा सकता है। क्योंकि हर कानून के बीच से रास्ता निकाल लिया जाता है। दलबदल करा कर फायदा उठाने वाली पार्टी उनको टिकट देकर चुनाव लड़ाती है।

अगर उसके लड़ने पर रोक लग जाएगी तो उसके परिवार का कोई दूसरा सदस्य, उसकी पत्नी या बेटा बेटी में से कोई चुनाव लड़ेगा। चूंकि भारत में राजनीति सत्ता हासिल करने और देश के 140 करोड़ लोगों को भेड़ बकरियों की तरह हांकने की शक्ति हासिल करने का माध्यम बन गई है, यह असीमित शक्ति और बेहिसाब धन कमाने का जरिया बन गई है इसलिए इसे किसी तरह से नहीं रोका जा सकता है। यह भारतीय राजनीति के भयंकर रूप से भ्रष्ट हो जाने का सबूत है।

जब तक विचारधारा के लिए प्रतिबद्धता की राजनीति नहीं लौटती है, राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होता है, शुचिता बहाली नहीं होती है तब तक किसी कानून से दलबदल नहीं रूकने वाला है। नेता पूरी बेशर्मी के साथ उस पार्टी के साथ जाएंगे, जिसकी सत्ता है या जिसके जीतने के अवसर हैं। यह एक राज्य या एक पार्टी का मामला नहीं है। तेलंगाना में सत्ता बदलते ही क चंद्रशेखर राव की पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल होने वालों की होड़ मची है। नेता को सत्ता चाहिए और पार्टियों को जिताऊ नेता चाहिए इसलिए दोनों की साझा सहमति से यह काम चलता रहेगा।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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