nayaindia पतंजलि समूह: बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण की माफी का विवाद

एक बार में क्यों नहीं मानते अदालत की बात?

पतंजलि समूह

पतंजलि समूह के बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण ने सुप्रीम कोर्ट से बिना शर्त माफी मांगी है। दोनों की ओर से दिए गए हलफनामे की भाषा माफी मांगने जैसी ही है। साथ ही दोनों ने यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अक्षरशः पालन किया जाएगा। कोई भ्रामक विज्ञापन नहीं जारी होगा और न कोई प्रेस कांफ्रेंस होगी। लेकिन सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार आदेश दिया था या मौखिक टिप्पणी की थी उसी समय क्यों नहीं उसकी बात मान ली गई थी?

सर्वोच्च अदालत की खंडपीठ के कहने के बावजूद भ्रामक विज्ञापन दिए जाते रहे और प्रेस कांफ्रेंस भी हुई। इतना ही नहीं पिछली सुनवाई में जब बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तब भी खुद माफी मांगने की बजाय वकील को हलफनामा देकर कोर्ट में भेज दिया। जब कोर्ट ने वकील की ओर से माफी मांगने को स्वीकार नहीं किया और नाराजगी जताई तब दोनों कोर्ट के सामने पहुंचे और माफी मांगी, जिसे अदालत ने नामंजूर कर दिया। सोचें, यह क्या मानसिकता है कि सर्वोच्च अदालत की बात भी एक बार में नहीं माननी है? जब तक अदालत कई बार नहीं कहे तब तक या तो समय मांगते रहे, उस पर अमल टालते रहो या सीधे सीधे अनदेखी कर दो?

देश में न्यायपालिका के सम्मान की बात सभी करते हैं। सरकारें और संवैधानिक व वैधानिक संस्थाओं तो खैर करती ही हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक खास प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। सर्वोच्च न्यायपालिका को भी अपनी बात मनवाने के लिए कई बार कहना पड़ रहा है। एक बार में न्यायपालिका की बात नहीं मानी जा रही है। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों एक बार में बात मानने की बजाय सरकार और अन्य संस्थाएं फैसला सुन लेती हैं, चुप होकर बैठ जाती हैं और फैसले पर अमल का समय आता है तो अदालत में अतिरिक्त समय की मांग करने पहुंच जाती हैं? क्या जान बूझकर किसी रणनीति के तहत ऐसा हो रहा है? क्या इससे अदालत के फैसलों की गरिमा कम नहीं होगी और उसकी साख पर असर नहीं होगा?

पतंजलि समूह की ओर से सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना इकलौता मामला नहीं है। सरकार और वैधानिक या संवैधानिक संस्थाओं की ओर से कई मामलों में देखने को मिला है कि उन्होंने फैसलों को चुपचाप स्वीकार किया और अमल से ऐन पहले अतिरिक्त समय की मांग की। सबसे क्लासिकल केस चुनावी बॉन्ड से चंदे का है। सर्वोच्च अदालत ने जब भारतीय स्टेट बैंक को चुनावी बॉन्ड की जानकारी देने के लिए कहा और छह मार्च की समय सीमा तय की तब स्टेट बैंक ने उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया।

लेकिन चार मार्च को बैंक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके कहा कि उसे 30 जून तक का समय चाहिए। सबको पता है कि इस पर अदालत ने कैसी फटकार लगाई। अदालत ने पूछा कि बैंक ने उसके आदेश के बाद 26 दिन में क्या किया? इसके बाद बैंक की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 11 मार्च को कहा कि 24 घंटे में जानकारी दें और 12 मार्च की शाम तक स्टेट बैंक ने सारी जानकारी चुनाव आयोग को दे दी। जो जानकारी बची रह गई थी वह दूसरी फटकार में सार्वजनिक हो गई।

इससे पहले अडानी समूह पर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सेबी को अडानी समूह की जांच करने को कहा था। सेबी ने जांच शुरू की लेकिन जांच लंबी खींचती गई। सेबी ने बार बार अतिरिक्त समय की मांग की। उसमें भी अदालत की फटकार के बाद सेबी ने आनन फानन में जांच पूरी करके रिपोर्ट दाखिल की। दो मामलों को छोड़ कर बाकी की जांच पूरी हो गई है। उससे पहले इसी तरह का कारनामा महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर ने किया था। वे शिव सेना और एनसीपी के विधायकों की अयोग्यता के मामले पर फैसला लटका कर बैठे रहे।

जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला करने को कहा तो उन्होंने एक कान से सुन कर दूसरे कान से बात निकाल दी। बाद में तमाम सरकारी कानूनी अधिकारी अतिरिक्त समय मांगने पहुंच गए। अतिरिक्त समय मिला उसमें भी फैसले में देरी हुई। अंत में सुप्रीम कोर्ट को समय सीमा देनी पड़ी कि 30 दिसंबर तक और 31 जनवरी तक दोनो पार्टियों के विधायकों की अयोग्यता पर फैसला किया जाए। उससे पहले ईडी के तत्कालीन निदेशक संजय मिश्रा को हटाने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने एक समय सीमा दी और बाद में सरकार के आग्रह पर उस समय सीमा को आगे बढ़ाना पड़ा। सोचें, इन संस्थाओं के बारे में। भारत सरकार, भारतीय स्टेट बैंक, सेबी और महाराष्ट्र के स्पीकर इन चारों के आचरण से ऐसा लगा जैसे इन्हें सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खास परवाह नहीं है।

इसी तरह का मामला अब जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव को लेकर दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर में चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि 30 सितंबर तक राज्य में विधानसभा का चुनाव होना चाहिए। तब ऐसा लग रहा था कि जब लोकसभा और चार राज्यों के विधानसभा चुनाव का ऐलान होगा तो उसके साथ ही जम्मू कश्मीर में भी चुनाव का ऐलान हो जाएगा। लेकिन चुनाव आयोग ने लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में चुनाव का ऐलान किया और जम्मू कश्मीर को छोड़ दिया। चुनाव आयोग की ओर से घोषित कार्यक्रम के मुताबिक चार जून को लोकसभा और चार राज्यों के चुनाव नतीजे आएंगे। उसके बाद कम से कम 10 दिन लगेगा सरकार गठन की प्रक्रिया में। तो क्या उसके बाद जून से लेकर सितंबर के बीच जम्मू कश्मीर में चुनाव कराया जाएगा? या चुनाव आयोग अतिरिक्त समय की मांग करने अदालत जाएगा?

ध्यान रहे इस साल अक्टूबर में महाराष्ट्र, नवंबर में हरियाणा और दिसंबर में झारखंड के विधानसभा चुनाव हैं। अगर चुनाव आयोग चाहे तो इन तीनों राज्यों का चुनाव एक साथ हो सकता है। लेकिन किसी अज्ञात कारण से अब तक तीनों राज्यों में अलग अलग चुनाव होते रहे हैं। आखिरी बार 2014 में जम्मू कश्मीर का चुनाव हुआ था। तभी ज्यादा संभावना इस बात की है कि जुलाई से सितंबर के बीच मॉनसून का मौसम खत्म होने के बाद राज्यों के चुनाव होंगे। सो, संभव है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में जाए और अक्टूबर में महाराष्ट्र के साथ या उसके बाद हरियाणा या झारखंड के साथ चुनाव कराने की बात कहे। यानी दो तीन महीने का समय और मांगे।

लेकिन सवाल है कि जब लोकसभा के साथ जम्मू कश्मीर का विधानसभा चुनाव नहीं कराना था तो चुनाव आयोग ने उसी समय अदालत से क्यों नहीं कहा कि वह अक्टूबर में या उसके बाद चुनाव कराएगा? यह बिल्कुल उसी मानसिकता का प्रतीक है, जैसी ऊपर बताए गए चार मामलों में दिखी है। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है यानी चुनाव आयोग समय मांगने नहीं जाता है और 30 सितंबर तक चुनाव कराने की प्रक्रिया शुरू होती है तो यह एक अलग ही रिकॉर्ड होगा। ‘एक देश, एक चुनाव’ के राग के बीच हर महीने चुनाव होने का एक नया रिकॉर्ड बनेगा!

हालांकि जम्मू कश्मीर की पार्टियां अब निराश हो गई हैं। उनको लग रहा है कि भाजपा की केंद्र सरकार राज्य में चुनाव नहीं कराने वाली है। नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा कि अब राज्य में कभी चुनाव नहीं होंगे। हालांकि पता नहीं यह बात कितनी सही है लेकिन इतना तो दिख रहा है कि जब तक भाजपा को अपना मुख्यमंत्री बनाने की संभावना नहीं दिखती है तब तक वहां शायद ही चुनाव हों। बहरहाल, वह राजनीतिक मसला अलग है। असली मसला न्यायपालिका के सम्मान का है। अगर सरकार और उसकी संस्थाएं अदालती फैसलों को लेकर इस तरह का व्यवहार करेंगी तो दूसरों से कैसे यह उम्मीद की जाएगी कि वे पूरी निष्ठा के साथ अदालत के फैसले को मानें और उस पर अमल करें!

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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