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कांग्रेस जा रही रसातल में

कांग्रेस

कांग्रेस को जोड़े रखने में नेहरू, गांधी परिवार और सत्ता ये दो फेविकोल रहे हैं। अब दोनों का जोड़ समाप्त हो रहा है। परिवार कमजोर हो रहा है और सत्ता आती नहीं दिख रही है। इसलिए कांग्रेस के बड़े और लोकप्रिय नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और राहुल गांधी ऐसा दिखा रहे हैं, जैसे उनको इसकी परवाह नहीं है। उनकी यह बेपरवाही कांग्रेस को रसातल में ले जा रही है।  

बिहार चुनाव के परिणामों के बाद  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस में एक और विभाजन की जो भविष्यवाणी की थी क्या वह सही होने जा रही है? क्या कांग्रेस पार्टी फिर एक बडे विभाजन की ओर बढ़ रही है? अब तो यह भी सवाल उठने लगा है कि क्या कांग्रेस का राम नाम सत्य होने वाला है यानी कांग्रेस पार्टी खत्म होने वाली है? कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और अब भी मुख्य विपक्षी पार्टी है। तीन राज्यों में उसकी सरकार है। उसके पास दोनों सदनों में सवा सौ के करीब सांसद हैं और पौने सात सौ के करीब विधायक हैं। फिर भी उसके भविष्य को लेकर इतने गंभीर सवाल उठ रहे हैं तो इसका मतलब है कि कहीं न कहीं नेतृत्व में गड़बड़ी है, जिसकी वजह से कांग्रेस न तो संगठन के स्तर पर मजबूत हो पा रही है और न उसका चुनावी प्रदर्शन सुधर रहा है। कर्नाटक से लेकर केरल तक कांग्रेस जिस तरह के विवादों में घिरी है वह देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक राहुल गांधी ने जब से कांग्रेस की कमान संभाली है, तब से कांग्रेस 75 चुनाव हार चुकी है। केंद्र से लेकर कई राज्यों में तो कांग्रेस तीन तीन चुनाव लगातार हारी है। इसमें गुजरात को छोड़ दें तब भी महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली जैसे राज्य भी हैं, जहां कांग्रेस ने हाल के दिनों तक राज किया था। पिछले साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा था। उसने 99 सीटें जीतीं, जबकि उससे पहले के दो चुनावों में उसे एक बार 44 और दूसरी बार 52 सीटें मिली थीं। 2024 में 99 सीटें मिलीं और 10 साल के बाद कांग्रेस को मुख्य विपक्ष पार्टी का दर्जा मिला तो राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष बन गए।

उससे पहले जब कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला था तब मल्लिकार्जुन खड़गे और अधीर रंजन चौधरी को नेता बनाया गया था। बहरहाल, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो प्रदर्शन किया उसे वह आगे के विधानसभा चुनावों में बरकरार नहीं रख सकी। लोकसभा के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड, दिल्ली और बिहार में चुनाव हुए हैं। इन छह राज्यों में से कांग्रेस को महाराष्ट्र में 16, जम्मू कश्मीर में छह, हरियाणा में 38, झारखंड में 16, दिल्ली में शून्य और बिहार में छह सीटें मिली हैं। इस तरह कांग्रेस को कुल 82 सीटें मिली हैं, जबकि भाजपा को अकेले बिहार में 89 सीटें मिली हैं। छह में से दो राज्यों में गैर भाजपा सरकार बनी लेकिन जम्मू कश्मीर में जीत नेशनल कॉन्फ्रेंस की थी और झारखंड में जेएमएम की।

बहरहाल, कांग्रेस के भविष्य को लेकर उठ रहे सवालों का तात्कालिक कारण कर्नाटक का विवाद है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है। कह सकते हैं कि किसी राज्य में मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के बीच खींचतान बहुत आम है। लेकिन कर्नाटक का मामला आम नहीं है। डीके शिवकुमार ने स्वंय इसका खुलासा किया कि चार-पांच लोगों के बीच सीक्रेट डील हुई थी। इसके बाद उन्होंने, ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ किस्म की एक पोस्ट भी लिखी।

स्पष्ट है कि उनसे वादा किया गया था कि ढाई साल तक सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहेंगे और उसके बाद ढाई साल के लिए उनको मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन 20 नवंबर को जब ढाई साल पूरे हुए तो शिवकुमार और उनके समर्थकों ने सत्ता परिवर्तन की मांग की और इसे लेकर खुले मंच से आरोप प्रत्यारोप की शुरुआत हो गई। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस आलाकमान इस मामले में कोई भी फैसला करने की स्थिति में नहीं है।

ध्यान रहे ऐसी ही स्थिति छत्तीसगढ़ में देखने को मिली थी। राज्य में 15 साल के बाद 2018 में कांग्रेस जीती तो भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। कहा जा रहा है कि उस समय भी कांग्रेस आलाकमान की ओर से टीएस सिंहदेव को ढाई साल के बाद मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया गया। ढाई साल के बाद जब सिंहदेव ने सीएम पद की मांग की तो उस समय तक बघेल इतने मजबूत हो गए थे और दिल्ली में ऐसी लॉबी बना ली थी कि उन्होंने पद नहीं छोड़ा। उसके बाद ढाई साल राज्य में खींचतान होती रही और अंत में 2023 में कांग्रेस बुरी तरह से हार कर सत्ता से बाहर हुई।

राजस्थान में भी यह कहानी दोहराई गई, जहां सचिन पायलट के प्रदेश अध्यक्ष रहते एक तरह से उनकी कमान में चुनाव लड़ा गया लेकिन मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत। पायलट को उप मुख्यमंत्री बनाया गया और कहा जा रहा है कि उनको भी सीएम बनाने का वादा किया गया। जब वादा पूरा नहीं हुआ तो उन्होंने कुछ विधायकों के साथ अलग होने का प्रयास किया लेकिन कामयाब नहीं हुए। राजस्थान का भी अंत नतीजा यह निकला कांग्रेस हार कर सत्ता से बाहर हुई।

अब ऐसा लग रहा है कि कर्नाटक में अगले ढाई साल सिद्धारमैया और शिवकुमार के बीच खींचतान चलती रहेगी और 2028 के चुनाव में कांग्रेस हार कर बाहर होगी। ध्यान रहे कांग्रेस की अभी सिर्फ तीन ही राज्यों में सरकार है और एक तथ्य यह भी है कि 2014 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस किसी भी राज्य में सत्ता में वापसी नहीं कर रही है यानी लगातार किसी राज्य में नहीं जीत रही है उलटे अपने मजबूत असर वाले राज्यों में भी सत्ता से बाहर होने के बाद वापसी की राह मुश्किल हो जा रही है। दूसरी ओर भाजपा कई राज्यों में लगातार चुनाव जीत रही है। एक बार जहां वह सत्ता में आ जा रही है वहां उसे हराना नामुमकिन होता जा रहा है।

पता नहीं कांग्रेस के नेता कभी इस बारे में सोचते हैं या नहीं कि थोड़े ही दिन पहले पार्टी बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को कई राज्यों से बेदखल कर दिया। केजरीवाल के कारण कांग्रेस दिल्ली में लगातार तीन विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव से शून्य पर रह जा रही है। आम आदमी पार्टी ने उसे पंजाब की सत्ता से बेदखल किया। इतना ही नहीं गुजरात में कांग्रेस को इतना कमजोर कर दिया है कि वह मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं हासिल कर सकी। गोवा में भी आप ने कांग्रेस का बुरी तरह से नुकसान किया है।

अब सवाल है कि क्या इन चुनावी आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी खत्म होने की ओर है? इसका जवाब है कि सिर्फ चुनाव हारने के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। क्योंकि इससे पहले भी अनेक पार्टियां लगातार चुनाव हारती रही हैं। भारतीय जनसंघ और भाजपा ने अनेक चुनाव हारने के बाद पहली जीत दर्ज की थी। समाजवादी पार्टियों का इतिहास हारने का ही रहा है। लेकिन ये पार्टियां हारने के बावजूद लड़ती रहती थीं। उनके पास एक सक्षम नेतृत्व था, जो लगातार लड़ता रहा था। कांग्रेस के पास उसकी कमी दिख रही है।

कांग्रेस हार रही है लेकिन एकाध अपवादों को छोड़ दें तो कहीं भी मजबूती से लड़ कर नहीं हार रही है। बिहार ताजा मिसाल है, जहां राहुल गांधी ने एसआईआर का मुद्दा बना कर यात्रा की और उसके बाद दो महीने के लिए गायब हो गए। आधा अधूरा गठबंधन रहा और बेहद खराब टिकट बंटवारा हुआ, जिसका नतीजा हुआ कि कांग्रेस 19 से घट कर छह सीट पर आ गई और पूरा महागठबंधन 110 सीट से कम होकर 35 सीट पर आ गया। उसके बाद भी उम्मीदवारों के बीच मारपीट और झगड़े चल ही रहे हैं।

कांग्रेस की असली समस्या यह है कि नेहरू, गांधी परिवार का करिश्मा खत्म हो गया है। राहुल गांधी चुनाव नहीं जिता पा रहे हैं। और जब सर्वोच्च नेता चुनाव नहीं जिता पाता है तो बाकी नेता दूसरी जगह अपना भविष्य देखने लगते हैं। कांग्रेस के साथ यही हो रहा है। 2014 का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस एकजुट रही क्योंकि पार्टी नेताओं को लग रहा था कि पहले की तरह कांग्रेस एकाध चुनाव हारने के बाद फिर सत्ता में आ जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह 2019 और 2024 में भी हारी। राज्यों की बात करें तो 2014 के बाद महाराष्ट्र से लेकर हरियाणा, गोवा, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, केरल, असम जैसे राज्यों में कांग्रेस हारी और उन राज्यों में भी वापसी नहीं हुई।

यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी को आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली जैसे राज्यों की विधानसभा में एक भी सीट नहीं है। असल में कांग्रेस के पास न संगठन का ढांचा बचा है, जिससे वह अपने नेताओं में वापसी का भरोसा बना सके और न विचारधारा की गोंद है, जिससे वह नेताओं को जोड़े रखे। कांग्रेस को जोड़े रखने में नेहरू, गांधी परिवार और सत्ता ये दो फेविकोल रहे हैं। अब दोनों का जोड़ समाप्त हो रहा है। परिवार कमजोर हो रहा है और सत्ता आती नहीं दिख रही है। इसलिए कांग्रेस के बड़े और लोकप्रिय नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और राहुल गांधी ऐसा दिखा रहे हैं, जैसे उनको इसकी परवाह नहीं है। उनकी यह बेपरवाही कांग्रेस को रसातल में ले जा रही है।  (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तामंग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)

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