भोपाल। चुनाव में कई साख दांव पर लगती हैं . कुछ प्रतिष्ठित प्रतिमान और सम्मान अधिक मजबूत हो जाते हैं .कई प्रतिष्ठान ध्वस्त हो जाते हैं . लेकिन इस बार यानी 2023 में विधानसभा चुनाव की स्थिति कुछ अलग है . पांच राज्यों में जहां चुनाव प्रक्रिया चल रही है या जहां केवल परिणाम शेष हैं इस बार मीडिया की साख भी दांव पर लगी है . पहले भी चुनावी रस्साकशी में पार्टियों के साथ साथ मीडिया भी इस या उस ओर के लिए जोश दिलवाने में शामिल हो जाता था. ऐसे उदाहरण अपवाद होते थे,कम होते थे ,कहीं कहीं होते थे. लेकिन इस बार बात कुछ अधिक गंभीर है. मीडिया साफ़ साफ़ कई धड़ों में बंटा दिखाई दे रहा है. यह फर्क़ करना अब मुश्किल नहीं है कि मीडिया का कौन सा हिस्सा किस राजनीतिक दल या उम्मीदवार की तरफ पक्षपात कर रहा हैं .
मीडिया की प्रतिष्ठा जिन उसूलों की अभिरक्षा में महफूज रहती थीं ,वह सुरक्षा दीवार गिरने लगी है. वो उसूल इतने शक्तिहीन हो चले हैं कि अब खुद अपनी रक्षा करने में भी लाचारी के शिकार हो रहे हैं. और यह स्थिति किसी और की वजह से नहीं आई है . इस स्थिति की जिम्मेदारी खुद मीडिया के ही कुछ हिस्सों की है. खास बात यह है कि जो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है वह यह स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं है कि उनकी वजह से मीडिया की साख इस बार विधानसभा चुनाव में दांव पर लग गई है. कहना अनुचित नहीं होगा कि ऐसा लग रहा है मानो चुनाव में दो की जगह तीसरा पक्ष भी शामिल हो गया है. मानो 3 दिसंबर को उसका भी नतीजा आएगा कि वह विजयी रहा या पराजित हुआ. ऐसा पहले कभी हुआ हो बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि पहले कभी इस बड़े स्तर पर ऐसा कभी हुआ हो याद नहीं पड़ता है. देखना होगा कि मीडिया की यह स्थिति नतीजे के साथ और बिगड़ती है या सबक के तौर पर सुधार का आधार बनती है.
यह स्वीकारा जाता है कि मीडिया चुनाव में पार्टी नहीं होता ,उम्मीदवार नहीं होता, किसी उम्मीदवार का समर्थक नहीं होता किसी तथ्य का पैरोकार नहीं होता. वह तो एक तटस्थ दृष्टा होता है जो वही बताता है जो उसे दिखाई सुनाई पड़ता है. यह जरूर है कि वह दिखाई सुनाई पड़ने वाले दृश्यों के साथ एक निष्पक्ष मार्गदर्शिका टिप्पणी भी जोड़ देता है ताकि पाठक/ दर्शक को यह समझने में मदद मिले कि जो कुछ प्रस्तुत किया गया है वह उचित है अनुचित है, सही है गलत है, होना चाहिए नहीं होना चाहिए .इस निष्पक्ष राय को अब तक मीडिया की ऐसी शक्ति माना जाता रहा है जो किसी भी ताकत को अपने सामने झुका लेता है और इस तरह आमजन की स्थिति को किसी मसले से सुरक्षित रखता है .इस बार मीडिया विधानसभा चुनाव के प्रारंभ से ही सीधे-सीधे दो भागों में बंट गया. एक, जो किसी दल/ उम्मीदवार/ विचारधारा या/ व्यवस्था के पक्ष में हो गया और दूसरा वह जो इस स्थिति का पहले पक्ष की स्थिति का विरोधी हो गया.
इस विभाजन को इस तरह भी देखा जा सकता है कि मीडिया का एक हिस्सा सत्ता का समर्थक हो गया और दूसरा हिस्सा विपक्ष का वकील बन गया. यह भाव खत्म हो गया कि सही क्या है गलत क्या है, उचित क्या है अनुचित क्या है, आमजन को क्या बताया जाना ठीक है उसे क्या नहीं बताया जाना ठीक है. अपने-अपने समर्थन के पक्ष में मीडिया ने सब कुछ परोसना शुरू कर दिया यह देखे बिना कि उसका चुनाव के इतर आम जनजीवन पर, आम धारणाओं पर, आम व्यवहार पर, आम व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा. क्या उससे आमजन का नुकसान हो सकता है या व्यवस्था के प्रति विश्वास खत्म हो सकता है. शासन का अर्थ अपभ्रंश में जा सकता है या ऐसा नुकसान हो सकता है जो आने वाले समय में पूरी व्यवस्था को ही अविश्वसनीय बना दे. पक्ष विपक्ष में बंटते वक्त यह भी नहीं देखा गया कि इस कदम से, इस मानसिकता से, इस व्यवहार से मीडिया के उन हिस्सों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा जो पक्ष या विपक्ष में विभाजित ना होकर अब भी एक तटस्थ राय, एक निष्पक्ष मत आमजन के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं , प्रस्तुत कर रहे हैं या उनका उसूलों के प्रति विश्वास आज भी कायम है. कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया के कुछ हिस्सों का राजनीतिक आधार पर विभाजित हो जाना खुद मीडिया के लिए भी आत्मघाती हो सकता है और यदि मीडिया के नीव में कुछ पत्थर इस तरह कमजोर हुए तो उसका पूरा भवन भी ढह सकता है यानी जिस डाली पर बैठे हैं उसे ही यह मानकर काट रहे हैं कि हमारा इस से लाभ होगा. लेकिन वह नहीं जानते, वह नहीं समझते या वे जानना समझना ही नहीं चाहते कि तात्कालिक लाभ प्रतिष्ठा से वे इतना प्रभावित है कि अपने भविष्य के संकट का भी आभास उन्हें नहीं हो रहा है.
मीडिया का चुनाव में विचारधारा के आधार पर विभाजन होता तो एक बारगी यह माना जाता है कि लोकतंत्र में किसी विचारधारा को अपनाना बुनियादी अधिकार है लेकिन यहां भी एक उसूल शामिल है कि यदि कोई विचारधारा लोकतंत्र की नीव को ही खतरे में डाल रही हो तो उसका विरोध किया जाना चाहिए और इस विरोध के लिए मीडिया में विभाजन नहीं आम राय होना चाहिए. फिलहाल यह बात एक फेंटेसी ही लगती है क्योंकि मीडिया तो बंटवारे की राह पर आगे बढ़ चुका है और अपने-अपने ढंग से अपने-अपने समर्थकों का भला करने में जुट गया है यह जाने बिना कि यदि उसूलों के नीव के पत्थर डगमगाए तो वह अपने कदम कहां रखेगा. इसीलिए यह मनन चिंतन योग्य विषय है कि चुनाव में केवल राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की ही नहीं बल्कि मीडिया की साख भी दांव पर लगी है.
एक समय था जब चुनाव पूर्व के अनुमान, मतदान के बाद के एग्जिट पोल मीडिया में विचार के आधिकारिक नहीं लेकिन एक विश्वसनीय आधार के तौर पर सामने आते थे. इन अनुमानों की विश्वसनीय भी संदिग्ध हो चली है और इन पर से अपनी राय कायम करने वाले मीडिया के कुछ हिस्सों की साख भी अविश्वसनियता के कारण संदिग्ध होती जा रही है. जो जैसा नतीजा देखना चाहता है वैसी राय वैसे अनुमान वैसे टिप्पणी करने वाले विशेषज्ञ और वैसी सामग्री प्रकाशित प्रसारित करने वाले मीडिया के हिस्से प्रमुखता से आगे बढ़ रहे हैं यह जाने बिना कि ऐसे अनुमान और ऐसी चर्चाएं मतदाता के विश्वास की नींव को कमजोर कर देंगे जिसे भरना शायद संभव भी नहीं होगा. एक बार संदेह पैदा हो जाने के बाद उसे मिटाना कई गुना मुश्किल हो जाता है . यह स्थिति मीडिया की ताकत को भी घटा रही है. मीडिया भी अब किसी विसंगति को किसी अप्रासंगिकता को ठीक करने की स्थिति में नहीं रह जाएगा. देखना होगा कि जागरूक पारदर्शिता के लिए पहचाने जाने वाला मीडिया अपनी इस स्थिति को कितनी पारदर्शिता के साथ विश्लेषित करता है और कितनी जल्दी इससे उबरने की कोशिश करता है क्योंकि अपनी साख की चिंता उसे भी होनी चाहिए. साख ही तो है जो मीडिया का मजबूत आधार होती है.