पूरे पांच साल गहलोत औरपायलट लड़ते रहे।…गहलोत तो वैसे भी जब भी मुख्यमंत्री बने हैं कभी बात नहीं करते। हार कर वापस आने के बाद ही मिलते हैं। इसलिए उनका पांच साल तक नहीं मिलना कोई नई बात नहीं है। वह तो एक प्रसंग आ गया तो उनका नाम लिख दिया। नहीं तो कांग्रेस में अधिकांश नेता ऐसे हैं जो पावर में रहते हुए चाहे वह सरकार का हो या संगठन का कभी बात नहीं करते। अपने अहंकार को वे अपना बड़प्पन समझते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कितने छोटे होते चले जा रहे हैं।
कांग्रेस हार गई! मगर क्या देश से बेरोजगारी, महंगाई, नफरत और विभाजन केसवाल भी हार गए? तीन राज्यों में ही तो कांग्रेस हारी है। लेकिन माहौलऐसा बनाया जा रहा है कि इन्डिया गठबंधन ही खत्म हो गया। इन्डिया तो साफ साफ कहकर 2024 लोकसभा के लिए बनाया गया था। और कांग्रेसके कहने से नहीं अन्य विपक्षी दलों की पहल पर। मुम्बई में जब इन्डिया कीलास्ट मीटिंग एक सितम्बर को खत्म हुई तब यह साफ कर दिया गया था किविधानसभा चुनाव फौरन होने वाले हैं और उसमें गठबंधन नहीं होगा।
वही हुआ। मगर एक चीज जो नहीं हुई कि नतीजे विपक्ष के और खासतौर सेकांग्रेस के अनुकूल नहीं आए। मगर यह क्या राजनीति में पहली बार हुआ है?भाजपा जो तीन राज्यों में जीती है है वह तो हमेशा से ऐसे ही एक के बाद एकचुनाव हारती रही है। मगर कभी किसी ने उसके समाप्त होने की घोषणा नहीं की।
बहुत से लोगो को तो पता भी नहीं होगा कि देश की आजादी के बाद 1952 में औरउसके बाद अगले कई चुनावों तक भाजपा जो उस समय जनसंघ थी मुख्य विपक्षी दलभी नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर की पार्टी हुआकरती थी। फिर सोशलिस्ट, स्वतंत्र पार्टी और दूसरी पार्टियां हुआ करतीथीं। वाजपेयी तीन तीन लोकसभा क्षेत्रों से एक साथ चुनाव लड़ते थे औरहारते थे। 1985 में लोकसभा में केवल दो सीटें भाजपा की आईं थीं। मगर नइससे भाजपा निराश हुई और न ही उसके खत्म होने की भविष्यवाणियां हुईं। उल्टे नेहरू वाजपेयी का परिचय यह कहकर विदेशी शासनाध्यक्षों से करवाते थेकि यह हमारे देश के भावी प्रधानमंत्री हैं।
विपक्ष को साथ लेकर चला जाता था। उसकी मदद की जाती थी। 1980 मेंराजनारायण बनारस से कमलापति त्रिपाटी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। चुनावप्रचार के दौरान दोनों टकरा गए। राजनारायण ने वहीं उनसे पैसे मांगे। कहनेलगे चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं। कमलापति ने फौरन उन्हें पैसेदिलवाए। कहा परेशान नहीं होना कम पड़ जाएं तो फिर मंगवा लेना। पहले ऐसेविपक्ष का ख्याल रखा जाता था। और यह याद रहे कि यह उन राजनारायण के लिएकांग्रेस कर रही थी जो इससे पहले 1977 में रायबरेली से इन्दिरा गांधी केखिलाफ चुनाव लड़ चुके थे।
मगर आज उसी पार्टी के राहुल की लोकसभा सदस्यता छीन ली जाती है। घर खालीकरवा लिया जाता है। 24 -25 मुकदमे लाद दिए जाते हैं। और रोज घोषणा कीजाती है कि राहुल खत्म हो गए। मगर वही राहुल इन चार बड़े राज्यों की विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत सेज्यादा वोट लाते हैं। और चार में केवल एक राज्य जीतने के बावजूद उनके वोटभाजपा को पड़े कुल वोटों से दस लाख ज्यादा होते हैं। कांग्रेस हारी यह सही है। इन तीन राज्यों में उसे इससे बेहतर नतीजे लानाथे। मगर तीनों जगह के क्षत्रप अपने अहंकार, आत्ममुग्धता और गुटबाजी केकारण जीती हुई बाजी हार गए। गलती इन तीनों राज्यों के नेताओं की है। नहींतो राहुल प्रियंका और पार्टी अध्यक्ष खरगे ने मेहनत में कोई कमी नहीं रखीथी।
कमी अगर थी तो केवल एक बात की। कि राहुल को सख्ती करना नहीं आया।राजस्थान में सबसे कम केवल 2 प्रतिशत वोटों के अंतर से कांग्रेस हारी है।और सबको मालूम है कि यह गुटबाजी का नतीजा है। पूरे पांच साल गहलोत औरपायलट लड़ते रहे। और पांच साल नहीं उससे कुछ ज्यादा ही कहने चाहिएक्योंकि 2018 में चुनाव की घोषणा के बाद अक्तूबर के अंत या नबंबर केबिल्कुल शुरू में गहलोत और पायलट दस जनपथ से लड़ते हुए सीधे 24 अकबर रोडकांग्रेस मुख्यालय आए थे। और यहां प्रेस कान्फ्रेंस में भी एक दूसरे कोटेड़ी निगाहों से देखते रहे थे। दरअसल 10 जनपथ में तत्कालीन कांग्रेसअध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया ने गहलोत की मंशा के अनुरूप पायलट कोविधानसभा चुनाव लड़ने को कह दिया था। पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे।और उनका तर्क था कि पूरे राज्य में सक्रिय रहने के कारण उनका एक सीट परबंधना ठीक नहीं होगा। लेकिन गहलोत उन्हें बांधना चाहते थे। उस समय तकपायलट के पास कोई सुरक्षित सीट भी नहीं थी। कहां से लड़ेंगे हमारे पूछने
पर वे इतने नाराज हो गए थे कि उसके बाद आज तक उन्होंने कभी बात नहीं की।इसी तरह गहलोत से भी वहीं आखिरी बात हुई थी। गहलोत तो वैसे भी जब भीमुख्यमंत्री बने हैं कभी बात नहीं करते। हार कर वापस आने के बाद ही मिलतेहैं। इसलिए उनका पांच साल तक नहीं मिलना कोई नई बात नहीं है। वह तो एकप्रसंग आ गया तो उनका नाम लिख दिया। नहीं तो कांग्रेस में अधिकांश नेताऐसे हैं जो पावर में रहते हुए चाहे वह सरकार का हो या संगठन का कभी बातनहीं करते। अपने अहंकार को वे अपना बड़प्पन समझते हैं। उन्हें पता हीनहीं होता कि वे कितने छोटे होते चले जा रहे हैं।
खैर वह अलग बात है। कांग्रेस की कथा अनंत है। फिलहाल यह कि इन पांच सालराहुल राजस्थान पर कोई फैसला नहीं ले पाए। न ही सख्ती कर पाए। राजस्थानदेश में सबसे ज्यादा कांग्रेसी मिज़ाज का राज्य है। पांच साल की इतनीभयानक गुटबाजी और राष्ट्रीय नेतृत्व की किंकर्तव्यविमुढ़ता के बावजूदवहां केवल दो परसेन्ट कम वोट मिले। और सीटें भी 69 अच्छी खासी आई हैं। यहएक अच्छी केस स्टडी है। हालांकि कांग्रेस करेगी नहीं उसे अपनी वास्तविककमियां देखने और दूर करने में ज्यादा इन्टरेस्ट होता नहीं है। जो चंदनेता हाईकमान के इर्दगिर्द होते हैं उनकी बात ही फाइनल होती है। इन्दिरागांधी के बाद से कांग्रेस में जानकारी लेने उसे क्रास चेक करने लोगों सेमिलने का सिलसिला खत्म हो गया है।
कांग्रेस में किसी को नहीं मालूम की राहुल, प्रियंका या पार्टी अध्यक्ष खरगे से मिलने का तरीका क्या है? मुलाकात इतनी मुश्किल बना रखी है कि बड़े नेता भी निराश हो जाते हैं। दूसरी बात जो नेताओं को सबसे ज्यादातकलीफ देती है कि मुलाकात हो भी जाए तो कही बात पर क्या अमल हुआ इसकी कोईजानकारी नहीं मिलती है। खैर! फिर वही कहना पड़ेगा कि कहानी अंतहीन है। जब तक कहेंगे सुनातेरहेंगे। मगर यहां शब्दों की सीमा है। तो मुख्य बात कि पार्टी नफरत नहींफैलाती, हिंसा क्रूरता की बात नहीं करती। भारत के विचार के अनुरूप प्रेम और सदभाव की बात करती है तो जनता उसके साथ आती है।
अभी हिन्दू मुसलमान के नशे बहुत डूबी थी तो थोड़ी कम आई। कहीं दो परसेन्टसे तो कही तीन परसेन्ट से कमी रह गई। मगर जनता जागी है। बेरोजगारी औरमंहगाई उससे अब बर्दाश्त नहीं हो रही है। इसलिए इस हार से जनता नहीं हारी है। इन्डिया गठबंधन कमजोर नहीं हुआ है।इन्डिया से जुड़े सभी विपक्षी दलों को मालूम है कि थोड़ी और जान लगा देनेसे वे जीत सकते हैं। और यह चुनाव 2024 लोकसभा ऐसा है जिसमें अपनी जीत से ज्यादा विपक्ष कोमोदी जी की हार चाहिए। सब जानते है कि अगर मोदी जी की हैटट्रिक हो गई तोफिर भारत की राजनीति में विपक्ष का नाम भी नहीं बचेगा!