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सत्य ज्ञान, वाणी की देवी सरस्वती

भाष्यकारों ने सरस्वती को यज्ञरूपा भी कहा है। देवताओं के लिए संपादित किए जाने वाले यज्ञ में यजमान सरस्वती के पितरों की भांति रथारूढ होकर आने के लिए आह्वान करता है। सम्प्रति सरस्वती की मान्यता वाग्देवी (वाकदेवी) के रूप में है, और इस रूप में इनकी उपासनाआराधना, पूजाअर्चना वसंत पंचमी कही जाने वाली माघ शुक्ल पंचमी को धूमधाम और हर्षोल्लास पूर्वक की जाती है। यह मान्यता सहस्त्राब्दियों पुरानी हैं। इसलिए पारंपरीण है।

ऋग्वेद में सरस्वती को नदितमे और देवितमे दोनों ही संज्ञा से विभूषित किया गया है। वेद में नदी अथवा बहने वाली धारा को सचेतन प्रवाह का प्रतीकात्मक वर्णन करते हुए कहा गया है कि सरस्वती अंतःप्रेरणा की नदी है, जो सत्यचेतना  से निकलकर बहती है। सरस्वती का व्युत्पत्यर्थ है- गतिशीला, गतिमती। गतिशीलता के आधार पर ही सरस्वती प्रतीक ज्ञान, अंतःप्रेरणा की वाणी, ज्योति आदि अर्थों में स्वीकृत है। इस आधार पर सरस्वती सत्य की बहती हुई धारा की, दिव्य अंतःप्रेरणा की एवं वाणी की,  श्रुति की, स्पष्टतः वाणी की एवं सरस के ज्ञान अर्थ के आधार पर परमात्मा की प्रतीक- निष्क्रिय ब्रह्म का सक्रिय रूप भी हो जाती है।

ऋग्वेद 1/3/10 एवं यजुर्वेद 20/84 में सरस्वती को वाजेभिर्वाजिनीवती अर्थात अंतःप्रेरणा और ज्ञानादि की समृद्धताओं से परिपूर्ण, धियावसु अर्थात ज्ञान- विज्ञान -विचारादि की संपति से ऐश्वर्यवती, ऋग्वेद 1/3/11 एवं यजुर्वेद 20/85 में चोदयित्री सुनृतानाम् अर्थात सुखमय सत्यों की प्रेरिका, चेतंती सुमतिनाम् अर्थात उत्तमबुद्धियों को जगाने वाली, ऋग्वेद 1/3/12 एवं यजुर्वेद महो अर्णः प्रचेतयिती अर्थात चेतना की बाढ़ -ज्ञान सुंदर- ऋतम की व्यापक गति की प्रकाशिका आदि कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि सरस्वती सत्य चेतना से ऋतम् या महः से अद्रेः सानुः से अवरोहण करने वाली अंतःप्रेरणा की धारा है। वह अंतःप्रेरणा की, वाणी की, श्रुति की देवी है। पावकानः सरस्वती (ऋग्वेद 1/3/10) और महो अर्णः सरस्वती (ऋग्वेद 1/3/122) की व्याख्या करते हुए सायण ने सरस्वती का अर्थ माध्यमिका वाक् (वाक) किया है, जिसका अर्थ निरुक्तकारों ने वेदवाणी किया है।

इस तरह सरस्वती वाणी की देवी ही स्थिर होती है। सरस्वती से संबंधित ऋग्वैदिक ऋचाएं भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि सरस्वती अंतःप्रेरणा अर्थात वाणी की देवी है। ऋग्वेद 2/3/8 के अनुसार सरस्वती हमारी धी यानी प्रज्ञा अर्थात सद सद विवेकिनी बुद्धि की निष्पादिका है। ऋग्वेद के कई मंत्रों में ऋतावरि अर्थात सत्य ज्ञान और सत्य आचरण करने वाली आदि शब्दों से संबोधित किया जाना भी सरस्वती के वाणी रूप को ही उदभाषित करता है। वेद में सरस्वती के वाणी देवता रूप को और भी प्रतिष्ठित और अग्रसारित किया गया है। यजुर्वेद  9/30 के अनुसार सरस्वती वाणी को नियमित करने वाली देवी है।

अथर्ववेद 5/10/18 में सरस्वती को उत्कृष्ट बनवाली मनोयुजा और मिस वाणी (वाचः) देवता कहा गया है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी का उल्लेख अनेक नदियों के साथ जिस प्रकार हुआ है, उसी प्रकार अनेक ऋचाओं में विशेष कर उन प्रार्थना मंत्रों में , जिनमें अग्नि के साथ अन्य देवताओं को आह्वान किया गया है, में सरस्वती देवता का आह्वान भी इड़ा, भारती (मही), होत्रा, वरुणी, धिषणा, दक्षिणा आदि स्त्री देवताओं के साथ किया गया है, जिनमें इड़ा और भारती के साथ सरस्वती देवीत्रय को ही प्रधानता मिली है। ऋग्वेद 10/110/8 में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हमारे यज्ञ में भारती शीघ्र आयें, इड़ा हमारी चेतना अर्थात ज्ञान को जगाती हुई आयें और सरस्वती आयें- सुंदर कर्मों वाली यह तीनों देवियां इस सुखमय आसन पर आकर बैठें। इस मंत्र का भाष्य महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारती का प्रतिभा युक्त वाणी, इड़ा का वेदवाणी एवं सरस्वती का विद्या देवी अर्थ किया है। इड़ा, भारती एवं सरस्वती तीनों का एक साथ आह्वान ऋग्वेद 1/188/8, 2/3/8, 3/1/8, 9/5/8 आदि अनेक मंत्रों में किया गया है। ऋग्वेद  9/5/8 के साथ कई मंत्रों में भारती ही मही अर्थात विशाल, महान, विस्तीर्ण भी कही गई है। ऋग्वेद 1/13/9 में आह्वान करते हुए कहा गया है कि इड़ा, सरस्वती और मही-ये तीनों देवियाँ, जो स्खलन को प्राप्त नहीं होतीं (अस्त्रिधः) और जो सुख उत्पन्न करने वाली मनोभुवः हैं, यज्ञिय आसन्न पर आकर बैठें-

इला सरस्वती मही तिस्त्रों देवीर्मयोभुवः।

बर्हिः सीदन्त्वस्त्रिधः ।। – ऋग्वेद 1/13/9

इस मंत्र में प्रयुक्त मही को सायण ने भारती स्वीकार किया है। महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस मंत्र का भाष्य करते हुए इड़ा का अर्थ पठन- पाठन की प्रेरणा देने वाली, सरस्वती का अर्थ उपदेश रूप ज्ञान को प्रकाशित करने वाली और मही का अर्थ सब प्रकार से प्रशंसनीय और महत गुण युक्ता किया है। ऋग्वेद 1/42/9 में भारती के लिए मही प्रयुक्त हुआ है। इड़ा, भारती और सरस्वती इन तीनों का आह्वान एक साथ यजुर्वेद में भी किया गया है-

तिस्त्रों देवी बर्हिरेदं सदनित्वड़ा सरस्वती भारती। -यजुर्वेद 4/4/1/8

इस मंत्र की व्याख्या करते हुए सायण ने इड़ा, भारती और सरस्वती को- अग्निमूर्ति- तिस्त्रः देव्योsग्निमूर्त्यः कहा है। महीधर, यास्कादि ने भी देवीत्रय को अग्नि अथवा आदित्य के रूप में ग्रहण किया है। अनेक मंत्रों में सरस्वती शुभ्रवर्णा कही गई है। सरस्वती नदी की जल की निर्मलता की भांति ही ऋग्वेद 7/95/6, 7/96/2 आदि अनेक मंत्रों में शुभ्रता के रूप में स्वीकृत है।

प्राचीन वैदिक संहिताओं में इड़ा, भारती और सरस्वती तीन अलग- अलग देवियाँ हैं, परंतु कालांतर में तीनों में ऐक्य करने का प्रयत्न हुआ है। अथर्ववेद 6/10/100/1 में तीनों को सरस्वती से एकाकार कर दिया गया- तिस्त्रः सरस्वती रदुः। पौराणिक ग्रंथों में सरस्वती का ही एक नाम भारती है, जो वर्तमान में भी प्रचलित है। ऋग्वेद में स्त्री देवता के अतिरिक्त पुरुष देवताओं के साथ भी सरस्वती का उल्लेख हुआ है। जिन देवताओं के साथ मंत्रों में वे उल्लिखित है, वहां वे उन देवताओं की सहायिका हैं। ऋग्वेद में ऋभुगण और सरस्वती (5/42/12), विश्वेदेवा- सरस्वती (ऋग्वेद 7/35/11), इंद्राग्नि- सरस्वती (8/38/10) आदि का उल्लेख अंकित है। ऋग्वेद 9/81/4, 10/65/1, 10/141/5 आदि कतिपय मंत्रों में सरस्वती का उल्लेख अग्नि, इन्द्र, पूषा, मित्रावरुण, मरूदगण, वायु, त्वष्टा, अश्विनौ आदि अनेक देवताओं के साथ भी हुआ है। विभिन्न पुरुष देवताओं में इन्द्र और पूषण के अतिरिक्त सरस्वती विशेषतः मरुतौ और अश्विनौ से सम्बद्ध है। ऋग्वेद 2/30/8 और 7/96/2 में सरस्वती को मरुत्वती और मरुत्सखा कहकर मरुतों से संबंध दर्शाया गया है।

पुराणों के अश्विनी कुमार- अश्विनौ-देवभिषक हैं। सरस्वती के साथ अश्विनौ का संबंध सरस्वती के भिषक रूप का द्योतक है। ऋग्वेद में अश्विनौ द्वारा इन्द्र में शक्ति का आधान कराने के क्रम में सरस्वती का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद 10/ 135/5 के अनुसार इन्द्र के उपचार हेतु देवों द्वारा संपादित सौत्रामणी यज्ञ में अश्विनौ के साथ सरस्वती ने भी इन्द्र में ओजबल स्थापित की। यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता 19/12 में रोगनिवारण अथवा उपचार में सहायिका की विशेष भूमिका निभाने के कारण ही सरस्वती अश्विनौ की पत्नी अर्थात विशिष्ट सहायिका भी कही गई है। यजुर्वेद 19/94 के अनुसार अश्विनौ की सहायता से ही सरस्वती इन्द्र के लिए राक्षस नमुचि से सोम भी लाती है। एक अन्य स्थान पर कहा गया है- अश्विनौ ने महौषधि दी है, तो सरस्वती ने औषधि रूप मधु। रोगोपचार में इनकी विशिष्ट भूमिका होने के कारण ही यजुर्वेद 20/62 में ऋषि प्रार्थना करते हुए कहते हैं- दिन में हमारी रक्षा अश्विनौ करें और रात्रि में सरस्वती। अथर्ववेद 5/23/1 में सरस्वती से रोगोत्पादक कृमियों को नष्ट करने की प्रार्थना की गई है।

इस प्रकार वैदिक ग्रंथों में सरस्वती के भिषक रूप का दर्शन होता है। सरस्वती के रोग निवारक क्षमता का उल्लेख परवर्ती साहित्य में भी हुआ है। कथासरितसागर 10/10/30-39 के अनुसार लोकविश्वास के अनुसार विदित होता है कि पाटलिपुत्र की महिलाएं रुग्ण व्यक्तियों के उपचार हेतु सरस्वती औषधि रूप प्रयुक्त करती थीं। अश्विनौ के साथ सरस्वती के भिषक रूप के वर्णनों में यजुर्वेद के बीसवें अध्याय के मंत्र सर्वाधिक महत्व के हैं। संतानोत्पादन में सहायक देवों के साथ संबंध उनके भिषक रूप को प्रमाणित करता है। ऋग्वेद 6/61/1 के अनुसार दिवोदास को वध्यश्व नामक पुत्र सरस्वती कृपा से ही प्राप्त हुआ था।

ऋग्वेद 10/184/2 में कहा गया है कि यज्ञ में आह्वान किए जाने पर सरस्वती पितरों की भांति रथासीन हो कर आती है और बर्हि पर अधिष्ठित हो जाती है। ऋग्वेद 1/164/40 के अनुसार सरस्वती के भयो भू स्तन संपति प्रदायक हैं। ऐतरेय ब्राह्मण 4/1/1 के अनुसार सत्य और मिथ्या ही उसके दो स्तन हैं। ऋग्वेद 1/3/10, 7/95/2, 8/21/17, 9/67/32 आदि के अनुसार सरस्वती धन आदि पोषक पदार्थों की प्रदात्री है। ऋग्वेद 1/89/3, 7/95/4, 8/21/17 आदि मंत्रों में सरस्वती सुभगा कही गई है, सुंदरी कही गई है। सरस्वती याज्ञिकों में पवित्र मंत्रों की प्रेरिका और भद्रमति वाले उपासकों के लिए उनके अनुष्ठेय कर्मों की दर्शिका है। ऋग्वेद 6/61/3- 4 के अनुसार सरस्वती देवशत्रुओं की संहारिका और वृत्रघ्नी है।

अनेक मंत्रों की व्याख्या करते हुए भाष्यकारों ने सरस्वती को यज्ञरूपा भी कहा है। देवताओं के लिए संपादित किए जाने वाले यज्ञ में यजमान सरस्वती के पितरों की भांति रथारूढ होकर आने के लिए आह्वान करता है। उनसे प्रसन्नतापूर्वक हव्यादि ग्रहण करने और आरोग्य एवं समृद्धि प्रदान करने के लिए प्रार्थना करता है। ऋग्वेद 7/95/5 में कहा गया है कि सरस्वती (यज्ञरूपा) के लिए हवि वहन, नमस्कार और स्तुति कर यजमान संपति प्राप्ति का आकांक्षी है। कुछ मंत्रों में सरस्वती ज्योतिरूपा, सूर्य रश्मिमयी भी स्वीकारी गई हैं। ऋग्वेद 7/96 सूक्त में सरस्वती सरस्वान भी कहे गए हैं। कुछ विद्वानों ने सरस्वान का अर्थ सूर्य भी किया है। यज्ञरूपा अथवा ज्योतिरूपा सरस्वती का व्युत्पत्यर्थ गतिशीलता अथवा गतिमान ही स्वीकारा जाता है। सम्प्रति सरस्वती की मान्यता वाग्देवी (वाकदेवी) के रूप में है, और इस रूप में इनकी उपासना- आराधना, पूजा- अर्चना वसंत पंचमी कही जाने वाली माघ शुक्ल पंचमी को धूमधाम और हर्षोल्लास पूर्वक की जाती है। यह मान्यता सहस्त्राब्दियों पुरानी हैं। इसलिए पारंपरीण है।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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