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31-07-2025 Vol 19

संकल्प के धनी और बात के पक्के

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मैं उसे “मालगुज़ार” कहता था। और वह था भी वैसा — दिल का राजा, बांटने वाला, लुटा देने वाला। वह मालगुज़ार जो अपनी दौलत नहीं, अपने स्वभाव से बड़ा था। एक ऐसा मित्र, जो खुद के लिए कुछ नहीं रखता था, और दोस्तों के लिए सब कुछ देने को तत्पर रहता था।

कल रात जब खबर आई कि जगदीप सिंह बैस नहीं रहे, तो कलेजा जैसे सुन्न हो गया। तिरपन वर्ष की उम्र, कच्चा परिवार, और अभी कुछ दिन पहले ही शादी की सालगिरह मनाई थी— भला यह कोई जाने की उम्र थी?

वे नौ महीनों से कैंसर से जूझ रहे थे, और जिस जज़्बे से लड़ रहे थे, हम सबने मान लिया था कि वो जीत गए हैं। पिछले महीने उनके बेटे देवांश ने माता-पिता के लिए एक सरप्राइज़ सालगिरह समारोह आयोजित किया था। वहाँ बैठे हम सब ने जब उन्हें मुस्कराते देखा तो यही लगा—अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। बात हुई कि डॉक्टर की हरी झंडी मिलते ही वो फिर से फील्ड रिपोर्टिंग शुरू करेंगे।

लेकिन नियति ने कुछ और तय कर रखा था।

मुंबई में मेडिकल चेकअप की रिपोर्ट ने सबको हिला दिया—जो तकलीफ़ थमती लग रही थी, वह फैल रही थी। पर जगदीप भाई हमेशा की तरह शांत, स्थिर, और आत्मनिष्ठ। कहते रहे—“चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक होगा।”

लगता था मानो किसी योगी ने अपनी देह की पीड़ा से मन को अलग कर दिया हो। जब भोपाल लौटे तो तबीयत बिगड़ी। ऑपरेशन हुआ, और हमेशा की तरह मुस्कान के साथ हाथ का इशारा दिया—“मैं ठीक हूँ…”

सहज निर्भीकता

जगदीप सिंह बैस, मध्यप्रदेश पत्रकारिता की वह शख्सियत थे, जिनका नाम ईमानदारी और निर्भीकता का पर्याय था। विज्ञान में स्नातक के बाद उन्होंने पत्रकारिता में मास्टर्स किया और जबलपुर नवभारत से अपने सफर की शुरुआत की। फिर ETV मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में एक दशक तक चीफ रहे, और बाद में नया इंडिया के प्रदेश प्रभारी  बने।

वे उन बिरले पत्रकारों में थे, जिनकी कलम साहस से चलती थी और जिनकी अंतरात्मा सत्ता के आगे नहीं झुकती थी। उन्होंने “ना काहू से बैर” कॉलम के जरिए जो लिखा, वह केवल विश्लेषण नहीं था—वह आत्मा की आवाज़ थी।एक बार कहा था — “स्वतंत्र पत्रकारिता केवल तब संभव है जब संपादक निडर हो। और हरिशंकर व्यास जैसे प्रधान संपादक के नेतृत्व में यह संभव हो पाता है।”

मुझसे उम्र में एक दशक छोटे थे जगदीप भाई। हमारी पहली मुलाकात विधानसभा की पत्रकार दीर्घा में हुई थी। जब उन्होंने “ना काहू से बैर” लिखने का वादा किया था, तो अंत तक उसे निभाया।

कुछ लोग होते हैं जो दुनिया में चुपचाप आते हैं, लेकिन जब चले जाते हैं तो भीतर बहुत कुछ तोड़ जाते हैं। जगदीप सिंह बैस उन्हीं में से एक था। कल रात जब उसका जाना तय हुआ, तो ऐसा लगा जैसे भीतर कुछ स्थायी रूप से खो गया हो। आवाज़ नहीं आई, शोर नहीं हुआ, बस एक निर्वात फैल गया — जैसे उजाले का एक सिरा अचानक बुझ गया हो। मैं उसे “मालगुज़ार” कहता था। और वह था भी वैसा — दिल का राजा, बांटने वाला, लुटा देने वाला। वह मालगुज़ार जो अपनी दौलत नहीं, अपने स्वभाव से बड़ा था। एक ऐसा मित्र, जो खुद के लिए कुछ नहीं रखता था, और दोस्तों के लिए सब कुछ देने को तत्पर रहता था।

पिछले साल गर्मियों में हम साथ-साथ सुबह-सुबह जंगल की पगडंडियों पर चलते थे। छह–सात किलोमीटर लंबी वॉक, बीएचईएल के सन्नाटे में, वह सिर्फ़ व्यायाम नहीं था, वह उसकी बीमारी को पराजित करने की एक रणनीति थी। तेज़ धूप में शाम को भी एमपी नगर की सड़कों पर उसकी लंबी चाल जारी रहती — मानो वह बीमारी को थकाकर पीछे छोड़ देना चाहता हो। एक दिन जब वह दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में जांच के लिए जाने से पहले मेरे घर आया, तो चाय पीते हुए मुस्करा कर बोला — “कुछ नहीं है… फिर भी जांच करा ही लेते हैं।” और उस एक वाक्य में मानो वह अपनी बीमारी को धोखा दे रहा था, जैसे अपने ही मन को समझा रहा हो कि कुछ बड़ा नहीं है। लेकिन अब समझ आता है, कि वह शायद उस दिन खुद को ही सांत्वना दे रहा था।

उसका “कुछ नहीं है” कहना एक विश्वास बन गया था, और उस विश्वास ने उसे अंतिम समय तक थामे रखा। अस्पताल की छठवीं मंज़िल तक सीढ़ियों से चढ़कर वह डॉक्टर को बताता था — “अगर कुछ गंभीर होता, तो मैं चढ़ पाता?” सबको झटका तब लगा जब उसने अपने सभी दोस्तों को फोन किए, माफी मांगी कि फोन नहीं उठा पाया — और फिर कहा, “अब जो होगा, सो होगा। हमने तो अपनी ओर से सब कुछ कर ही लिया है।” वह मानो खुद के लिए विदा की भूमिका लिख रहा था, लेकिन शब्दों में कोई शिकवा नहीं था, सिर्फ़ आत्मस्वीकृति थी — गहरी, सधी हुई।

जगदीप पत्रकार था, लेकिन इस दौर की पत्रकारिता में फिट नहीं बैठता था। वह ऐसा पत्रकार था जो खबरों में नहीं, लोगों में जीता था। उसे अखबार से ज़्यादा उन चेहरों की परवाह थी जो अपने संघर्षों में नज़रअंदाज़ हो जाते हैं। वो किसी को घर दे देता, किसी को कार, किसी को नौकरी का अवसर — और बदले में कुछ नहीं मांगता। उसकी कमाई केवल और केवल यह थी कि किसी के चेहरे पर मुस्कान आ जाए। उसकी दौलत वह संतोष था जो दूसरों को थोड़ा बेहतर कर देने से हासिल होता है।

उसने नया इंडिया में “ना काहू से बैर” नाम से जो स्तंभ शुरू किया, वह केवल एक लेखन का मंच नहीं था — वह उसकी आत्मा की आवाज़ थी। और जैसे वह खुद वादा करता था, उसी तरह उसने उस लेखनी को अंतिम सांस तक निभाया। वह एक भरोसे का पुल बनाता था — पाठक और पत्रकारिता के बीच। उसका मानना था कि निर्भीक पत्रकारिता किसी निडर संपादक के बिना संभव नहीं, और वह हर बार यही दोहराता था कि “हरिशंकर व्यास जैसे संपादक के साथ ही निष्पक्षता निभाई जा सकती है।”

मैंने उससे बहुत कुछ सीखा — उसने कभी सिखाया नहीं, लेकिन उसका जीवन एक खुली किताब था। बड़ी से बड़ी खुशी को भीतर समा लेना और बड़े से बड़ा दुख हँसते-हँसते पी जाना — यह कला उसमें सहज थी। वह हमेशा सामान्य बना रहता — चाहे कुछ भी हो रहा हो। उसके भीतर एक सादगी थी, जो उसे बड़ा बनाती थी। वह कभी ऊंचे पद पर नहीं बैठा, लेकिन सबकी नज़रों में ऊंचा ही रहा। उसका घर भोपाल में बड़ा था, लेकिन उसे गांव जैसा रखा — मिट्टी की गंध, खुला आंगन, और भीतर एक चौपाल जैसा अपनापन। उसके घर का रास्ता पक्की सड़क से नहीं, पगडंडी से जाता था — और वह पगडंडी जैसे ही तो था, सीधा, सच्चा, धरती से जुड़ा।

वह कहता था — “मालगुज़ार हूं, लेकिन मेरी जायदाद बस दोस्ती है।” और यह बात उसने हर रिश्ते में जीकर दिखाई। पिछले इतवार जब उसने लगभग हर दोस्त को फोन किया, तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि वह यह आखिरी बार है। मैं उससे मिलना चाहता था, लेकिन अस्पताल के दरवाज़े से लौट आया — यह सोचकर कि जब वह ठीक हो जाएगा, तब मिलूंगा। पर नियति को कुछ और मंज़ूर था।

आज जब उसके बेटे देवांश ने जबलपुर के खितौला गांव में उसे मुखाग्नि दी, तो लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। वह सिर्फ़ एक पत्रकार नहीं था, वह पत्रकारिता की आत्मा था — एक ऐसी आत्मा, जो अब विरल होती जा रही है। वह चला गया, लेकिन पीछे वो उजाला छोड़ गया है जिसकी कमी अब हर शब्द, हर स्मृति में महसूस होगी।

वे संकल्प के धनी थे, और बात के पक्के।

उन जैसे पत्रकार अब बहुत कम बचे हैं—

यह उस मूल्यवान पत्रकारिता पर विराम है जो अब धीरे-धीरे दुर्लभ होती जा रही है।

और आज रविवार दोपहर, जबलपुर के अपने पैतृक गाँव खितौला (सिहोरा) में, उनके इकलौते पुत्र देवांश ने उन्हें मुखाग्नि दी। एक जीवन पंचतत्व में विलीन हो गया — लेकिन स्मृति में अमर हो गया।

ॐ शांति।

राघवेन्द्र सिंह

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