nayaindia loksabha election 2024 ज़िल्लेसुब्हानी की विदाई के गगनीय संकेत

ज़िल्लेसुब्हानी की विदाई के गगनीय संकेत

2024 अपने पर भारी पड़ता देख ज़िल्लेसुब्हानी इन दिनों बिना सोचे-समझे अपनी बनैटी घुमा रहे हैं। विपक्षी राजनीतिक दलों की तुलना वे आतंकवादी संगठनों से करने लगे हैं। वे पहले हैं, जो विपक्ष को ले कर अपने मुखारविंद का गटरीकरण करने में भी नहीं हिचक रहे हैं। दायित्व बोध के सिंहासन पर बैठ कर आंय-बांय-शांय की ऐसी बारिश करने वाले वे भारत के पहले राजनीतिक हैं।

बेहयाई है, हताशा है या भीतर का असहाय-भाव — मैं नहीं जानता। ऐंठ है, घमंड है या सर्वशक्तिमान होने का थोथा अहसास — मैं नहीं जानता। लेकिन इतना मैं ज़रूर जानता हूं कि इन दिनों ज़िल्लेसुब्हानी की ज़ुबां से जो पतनाला बह रहा है, उन की देह भाषा जिस तरह अष्टावक्री हो गई है और उन के मनोभाव जितनी अशुचिता की तरफ़ लुढ़कते जा रहे हैं, वह उन के दिन लद जाने का गगनीय संकेत है। ज़िल्लेसुब्हानी थे तो शुरू से ही ऐसे, मगर उन की ताज़ा बेचैनी, बेताबी, हड़बड़ी और सनक देख कर हर समझदार देशवासी स्तब्ध है। उन के तालठोकू बदन से झांकती आंखों से रिसती कातरता देख कर आजकल मुझे उन पर सचमुच तरस आने लगा है।

ज़िल्लेसुब्हानी का आत्मविश्वास बुरी तरह डिगा हुआ दिखाई देने लगा है। जो थोड़ा-बहुत धैर्य उन में था, वह भी लगता है कि पेचीदा मसलों से आंख चुराने की वज़ह से मुट्ठी से फिसलता जा रहा है। उन के ओढ़े हुए पराक्रम का मुलम्मा बेतरह पिघल गया है। उन की आभ्यंतरिक भीरुता का कुरूप कंकाल आवरण चीर कर बाहर आता जा रहा है। हर मुश्क़िल को चुटकी बजाते हल कर लेने का दावा करते नहीं अघाने वाले ज़िल्लेसुब्हानी अब ज़रा-सी मुश्क़िल आते ही ताताथैया करने लगते हैं। उन की संवेदनाएं जनम से ही सूखी हुई थीं। अब तो वे राख ही हो गई हैं। इसलिए उन्हें न तो स्त्रियों के चीरहरण, सतीत्वहरण और हत्याओं के चलचित्र विचलित कर रहे हैं और न वंचित वर्ग की लगातार दुरूह होती जा रही ज़िंदगी की गाथाएं।

कुंठा, ईष्या और प्रतिशोध महामना बनने की राह के सब से बड़े व्यवधान हैं। इसलिए ज़िल्लेसुब्हानी की गोद में गिरे इतने बड़े अवसर की सात साल पूरे होते-होते पपड़ियां उखड़ने लगीं और नौ साल पूरे होते-होते परखच्चे बिखर रहे हैं। अगर वे थोड़े-से सहृदय होते, अगर वे अपनी कुढ़न पर काबू रख पाते और अगर इंतकाम लेने पर इतने उतारू न होते तो इतिहास के कई पन्ने अपने लिए आरक्षित कर लेते। मगर इन ख़ामियों ने उन्हें नायक के बजाय प्रतिनायक बना डाला। अगर वे अपने कुछ ऐब तिरोहित कर देते तो सकल हृदय सम्राट की तरह याद किए जाते। पर अपने रग-रग में बसे कुछ अपगुणों की वज़ह से वे हिंदू हृदय सम्राट तक नहीं बन पाए। वे अपने को मानते कुछ भी रहें, मगर असलियत तो यही है कि जितने हिंदू उन्हें वोट देते हैं, उस से ज़्यादा हिंदू उन के खि़लाफ़ मतदान करते हैं।

2024 अपने पर भारी पड़ता देख ज़िल्लेसुब्हानी इन दिनों बिना सोचे-समझे अपनी बनैटी घुमा रहे हैं। विपक्षी राजनीतिक दलों की तुलना वे आतंकवादी संगठनों से करने लगे हैं। वे पहले हैं, जो विपक्ष को ले कर अपने मुखारविंद का गटरीकरण करने में भी नहीं हिचक रहे हैं। दायित्व बोध के सिंहासन पर बैठ कर आंय-बांय-शांय की ऐसी बारिश करने वाले वे भारत के पहले राजनीतिक हैं। तवारीख़ उन्हें एक बेरहम शासक, बेदर्द मनुष्य और आईनी अंजुमनों को बर्बरता से कुचलने वाले हुक़्मरान की तरह याद करेगी। जब वे तख़्तविहीन हो जाएंगे तो जम्हूरी इदारे उन की याद में अपनी आंखें कभी गीली नहीं करेंगे। नौ बरस में यही उन्होंने कमाया है।

मैं ज़िल्लेसुब्हानी का कतई प्रशंसक नहीं हूं। मैं उन के कण-कण से असहमत हूं। इसलिए कि उन्होंने भारतीय राजनीति में तरह-तरह के हथकंडों के ज़रिए सरकार-हरण करने की बेहद ओछी परंपरा को ठोस और संस्थागत बनाया। इसलिए कि वे तमाम सरहदी मामलों पर सचमुच कुछ करने के बजाय महज़ अधर-सेवा करते रहे। इसलिए कि उन्हें आर्थिक मामलों की कुछ भी समझ नहीं है, लेकिन वे उन में नाक घुसाए बिना बाज़ नहीं आते हैं। इसलिए कि वे राजनय के बुनियादी आयामों से बेख़बर हैं और उसे ले कर निःसार रूमानी भाव से भरे हुए हैं। इसलिए कि वे सारे राजनीतिक-सामाजिक मसलों को सिर्फ़ आयोजन-प्रबंधन की निग़ाह से देखते हैं। इसलिए कि वे अपने को सर्वज्ञाता समझते हैं और किसी की कुछ सुनने को तैयार नहीं होते हैं। इस सब के चलते, बावजूद नए संसद भवन के, बावजूद नई केंद्रीय वीथिका के और बावजूद भारत मंडपम के, नौ साल में भारत की असली नींव पोली हुई है। चमचमाते कंगूरों को देख कर इतराने वाले बहुत देर बाद यह समझ पाएंगे कि ज़िल्लेसुब्हानी ने अपनी फलों की दुकान पर दरअसल छिलके सजा कर रखे हुए हैं।

इतना सब गड़बड़ होते हुए भी एक बात के लिए मैं ज़िल्लेसुब्हानी की तारीफ़ करूंगा। वह यह कि अपने सियासी दल में उन्होंने पारिवारिक विरासत की परंपरा नहीं पनपने दी। जो थोड़े-बहुत टीले थे भी, उन्हें चकनाचूर कर दिया। भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर में यह करना आसान नहीं था। यह एक काम उन्हें बाकी सब से अलग मूर्तितल पर स्थापित करता है। अपने राजनीतिक दल के अंतिम छोर तक उम्मीद की इतनी अटल किरण बिखेर देना उन की अनन्य उपलब्धि है। भले ही यह काम उन्होंने अपनी इकलखुरा जीवन परिस्थितियों के चलते किया हो, भले ही इस क़दम के पीछे कोई दार्शनिक अभिप्राय न रहा हो, भले ही उन्होंने यह सब इस सौतिया-डाह के चलते किया हो कि जब मेरे परिवार की भावी राजनीतिक संभावनाएं शून्य हैं तो किसी और की राह भी मखमली क्यों रहे; लेकिन उन के हाथों यह हुआ, इस का श्रेय तो उन्हें देना ही होगा। बाकी सब-कुछ के लिए तो वे ख़ुद ही अपनी पीठ ज़ोरशोर से थपथपा लेते हैं, मगर आज नहीं तो कल, इस एक काम के लिए देश उन की पीठ ज़रूर थपथपाएगा।

फिर भी सियासी पुरावृत्त के चित्रगुप्त जब ज़िल्लेसुब्हानी का बहीखाता टटोलेंगे तो उस के सारे पन्नों पर उन्हें काले दाग़-धब्बे ही नज़र आएंगे। जब एक पाप सारे पुण्यों को लील लेता है तो इतने सारे पाप मिल कर किसी एक पुण्य को भला कहां टिकने देंगे? इसलिए मुझे ज़िल्लेसुब्हानी के अभागेपन पर तरस आता है। उन के अनुचर उन्हें भाग्यशाली मानते रहें, वे उन्हें महामानव समझते रहें, वे उन्हें अपने दिल का बादशाह बनाए रहें, मगर मुझे इस भाग्यहीनता पर रहम ही आता है। सोचिए तो सही कि नौ साल पहले एक बड़े कबीले में जिसकी आसमान से उतरे मसीहा की तरह पूजा हो रही थी, आज उस के अपने लोग भी बेसब्री से उस की विदाई का इंतज़ार कर रहे हैं। ऐसे में दिल पर क्या गुज़रती है, ज़िल्लेसुब्हानी का दिल ही जानता होगा!

एक बात और। जो समझ रहे हैं कि ज़िल्लेसुब्हानी के विदाई-पल उन की वज़ह से नज़दीक आ रहे हैं, वे अपने रंगबिरंगे पंखों से निग़ाह हटा कर ज़रा ख़ुद के पैरों की तरफ़ नज़र डालें। ज़िल्लेसुब्हानी अगर जाएंगे तो इन मयूरों के कारण नहीं जाएंगे। वे इन मयूरों के बावजूद अलविदा होंगे। वे इसलिए रुख़सत होंगे कि वे अवाम के ज़ेहन से उतर गए हैं। उन की रवानगी के बीजमंत्र का जाप जनमानस में पैठ गया है। आने वाले इसलिए नहीं आ रहे हैं कि वे आने लायक हैं। नौ साल पहले ज़िल्लेसुब्हानी भी इसलिए लिए नहीं आए थे कि वे आने लायक थे। वे इसलिए आए थे कि देश उकता चुका था। देश आज भी उकता चुका है। हवा में यह सौंधी ख़ुशबू इसीलिए है।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें