मनोज कुमार के लिए देशभक्ति का अर्थ देश की सच्चाई को छुपाना भी नहीं था। एक प्रधानमंत्री के सुझाव पर उन्होंने ‘उपकार’ बनाई, मगर उसमें अमीरों की ‘गुलाबी रात गुलाबी’ वाली अश्लील ऐयाशी की सच्चाई भी दिखाई और मोहम्मद रफ़ी का गाया ‘ये काली रात काली’ वाला गीत भी रखा, जो भयावह ग़रीबी और भूख के सवाल उठाता है। लेकिन आगे चल कर, इमरजेंसी में सच्चाई का यह ख़ुमार मनोज को बहुत भारी पड़ा।
मनोज कुमार कोई बहुत अच्छे अभिनेता नहीं माने गए, पर उन्हें बड़ी-बड़ी फ़िल्में मिलीं जिनकी कामयाबी से वे बड़े अभिनेता बन गए। ‘उपकार’ ने तो जैसे उनकी किस्मत ही बदल दी। उनके निर्देशन ने उन्हें और बड़ा बना दिया। ‘उपकार’ के बाद ‘पूरब और पश्चिम’, ‘शोर’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’ और फिर 1981 में आई ‘क्रांति’ तक उनका निर्देशकीय करियर चरम पर पहुंच गया। दिलीप कुमार जैसा बनने का सपना लेकर आया और 1957 में ‘फैशन’ फ़िल्म में एक बेहद बूढ़े भिखारी की मामूली सी भूमिका से शुरूआत करने वाला युवक चौबीस साल बाद उन्हीं दिलीप कुमार को निर्देशन दे रहा हो, इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी।
मनोज ने अपनी इमेज भारत कुमार की बनाई या बनने दी, जिससे शायद उन्हें अपनी स्टार वैल्यू बढ़ाने में मदद मिली होगी। मगर इसे ज़्यादा से ज़्यादा बिजनेस की तिकड़म का लांछन दिया जा सकता है, क्योंकि तब देशभक्ति खासी निश्छ्ल और उदार होती थी। मेरे जैसे स्कूली बच्चों के लिए तब यह ऐसा अहसास था मानो किताबें और अध्यापक हमें कोई ज़िम्मेदारी सौंप रहे हैं। मसलन, हमें स्वाधीनता सेनानियों को अपना आदर्श मानना है, उनके सिद्धांतों का पालन करना है, कुछ बन कर दिखाना है और देश को आगे ले जाना है। तो जो देशभक्ति हमने तब समझी उसमें जाति या धर्म या क्षेत्र जैसा कुछ नहीं था। केवल देश था। देश का मतलब इसके नक्शे के भीतर की सारी धरती और सारे लोग। तब देशभक्ति में कोई आक्रामकता नहीं थी और यह किसी तरह का एजेंडा भी नहीं होती थी। इसलिए अगर आज हम मनोज कुमार की भारत कुमार की छवि के मानी खोजने निकलें, तो बहुत मुश्किल होगी। आज के भारत कुमारों की तरह मनोज अपनी फ़िल्मों में दुश्मनों की हत्याएं करते नहीं घूम रहे थे। उनकी देशभक्ति किसी को डराती नहीं थी, बल्कि उसमें तो दूसरों को अपना बनाने का उद्देश्य निहित था।
मनोज कुमार के लिए देशभक्ति का अर्थ देश की सच्चाई को छुपाना भी नहीं था। एक प्रधानमंत्री के सुझाव पर उन्होंने ‘उपकार’ बनाई, मगर उसमें अमीरों की ‘गुलाबी रात गुलाबी’ वाली अश्लील ऐयाशी की सच्चाई भी दिखाई और मोहम्मद रफ़ी का गाया ‘ये काली रात काली’ वाला गीत भी रखा, जो भयावह ग़रीबी और भूख के सवाल उठाता है। लेकिन आगे चल कर, इमरजेंसी में सच्चाई का यह ख़ुमार मनोज को बहुत भारी पड़ा।
इमरजेंसी 1975 में लगी थी। एक दिन मनोज कुमार के पास सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक अधिकारी का फोन आया। उनसे एक डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन करने का अनुरोध किया गया। फिर मनोज को इसकी स्क्रिप्ट भेजी गई जो पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम ने लिखी थी। उसे पढ़ कर जब पता लगा कि यह तो इमरजेंसी के समर्थन में है तो मनोज ने यह काम लेने से साफ़ इन्कार कर दिया। बल्कि अमृता प्रीतम को फोन करके उनसे भी कहा कि आप यह सब क्या कर रही हैं। ध्यान रहे, अमृता प्रीतम ने इमरजेंसी के समर्थन में एक वक्तव्य तैयार किया था और उस पर बहुत से पंजाबी कवियों व लेखकों से दस्तखत करवाए थे। बाद में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता मिली। हिंदी में यह काम श्रीकांत वर्मा कर रहे थे।
उन दिनों मनोज को सरकार से एक फीचर फिल्म का प्रस्ताव भी मिला। इसका नाम ‘नया भारत’ रखा जाना था। मनोज को इस आइडिया में दम लगा और वे इंदिरा गांधी और संजय गांधी से इस पर बात करने भी गए। जैसा कि एक इंटरव्यू में मनोज ने बताया कि उन्होंने सलीम-जावेद से इसकी एक स्क्रिप्ट भी तैयार करवाई जो गांधी परिवार को बहुत पसंद आई। मगर थोड़े दिनों बाद ही स्क्रिप्ट में फेरबदल के लिए कहा गया। और मनोज ने इसके लिए भी इन्कार कर दिया। मगर अब जो बात बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गई।
इमरजेंसी में सरकार ने एक पॉलिसी बनाई थी कि कोई भी फ़िल्म अपनी रिलीज़ के दो हफ्ते बाद दूरदर्शन पर दिखाई जा सकती है। इसकी पहली शिकार मनोज कुमार की फ़िल्म ‘शोर’ हुई जिसे वे दोबारा रिलीज़ करने वाले थे। इससे उन्हें खासा आर्थिक नुक्सान हुआ। फिर ‘दस नंबरी’ के साथ भी यही हुआ जिसमें मनोज हीरो थे। तब मनोज ने लड़ने की ठान ली। उन्होंने इस पॉलिसी को अदालत में चुनौती दी और उसे बदलवा कर माने।
ध्यान रहे, इमरजेंसी में किशोर कुमार के गानों पर प्रतिबंध लग गया था क्योंकि उन्होंने सरकार के पक्ष में करवाए जा रहे कार्यक्रम ‘गीतों भरी शाम’ में आने से इनकार कर दिया था। गुलज़ार की फ़िल्म ‘आंधी’ को रिलीज़ होने के कुछ ही दिन बाद उतार कर उस पर बैन लगा दिया गया था। केवल इसलिए कि उसकी नायिका की तुलना इंदिरा गांधी से की जा रही थी। कुछ दिक्कत ‘शोले’ को पास करने पर भी हुई क्योंकि सरकार मान रही थी कि ये जो सलीम-जावेद का एंग्री यंग मैन है वह सत्ता प्रतिष्ठान का विरोधी है। देव आनंद और उनके दोनों भाइयों विजय आनंद और चेतन आनंद ने भी इमरजेंसी का विरोध किया था। देव आनंद ने तो खैर बाद में एक पार्टी भी बनाई थी। मगर अदालत में चुनौती देने की हद तक मनोज कुमार ही पहुंचे थे।
‘तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं,‘ दुष्यंत कुमार का यह शेर मनोज को बहुत पसंद था। अपने कई इंटरव्यू में उन्होंने यह शेर सुनाया। किसी व्यथा की तरह। क्या इसी कड़वाहट की वजह से मनोज कुमार 2004 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे? दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि बाद में मनोज यह कहते भी मिले कि ‘मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। मैं तो गुजरात में किसी के चुनाव प्रचार में गया था, जैसे बहुत से फ़िल्म वाले जाते हैं, तो वहीं किसी ने मेरे हाथ में एक रसीद पकड़ा दी।‘
बहरहाल, मनोज कुमार ने हिंदी सिनेमा में जो मुकाम हासिल किया, उनके साथ के बहुत से अभिनेता उस पर रश्क कर सकते हैं। मगर हर किसी की एक सीमा होती है जिससे वह हार जाता है। वे तमाम कोशिशें करके भी अपने बेटे को फ़िल्मों में स्थापित नहीं कर पाए। अंत में उसके लिए एक बिजनेस शुरू करना पड़ा। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह अनिश्चितताओं की दुनिया है। इस हद तक कि जिन दादा साहब फाल्के ने देश में सिनेमा की शुरूआत की उन्हीं को एक दिन रंजीत स्टूडियो के गेट के बाहर केदार शर्मा को रोक कर कहना पड़ा कि भाई मुझे कुछ काम दो, मुझे ज़रूरत है। दादा साहब फाल्के पुरस्कार जीतने वाले मनोज कुमार यह किस्सा अक्सर सुनाते थे।
आज मनोज कुमार नहीं हैं और आगरा में वह जीवन सिनेमा भी नहीं है जहां साठ साल पहले मैंने चालीस पैसे में उनकी ‘शहीद’ देखी थी। उसकी जगह वहां एक नया थिएटर बन गया है और उसका कोई अँग्रेजी नाम रख दिया गया है। सब कुछ अनिश्चित है।