समय आ गया है कि संविधान निर्माताओं का सम्मान करते हुए और भारत के मूल चरित्र के अनुकूल बनाई गई प्रस्तावना को बहाल किया जाए यानी ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द प्रस्तावना से हटाया जाए। विपक्ष के नेता राहुल गांधी को यह बात हजम नहीं हो रही है। सवाल है कि राहुल गांधी क्या यह कहना चाहते हैं कि जिन संविधान निर्माताओं ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द मूल संविधान में नहीं शामिल किया था वे भी मनुस्मृति पसंद करने वाले थे?
देश में आपातकाल लागू करने और संविधान की हत्या करके भारत की आत्मा में बसे लोकतांत्रिक मूल्यों को तहस नहस करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही फैसले के 50 साल पूरे होने के मौके पर अच्छा हुआ, जो संविधान की प्रस्तावना में जबरदस्ती जोड़े गए दो शब्दों ‘धर्मनिरेपक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने की बहस शुरू हुई। तत्कालीन सरकार ने इमरजेंसी के मध्य में संविधान में 42वां संशोधन किया था और भारत के संविधान की पूरी संरचना ही बदल दी थी। सरकार ने यह काम ऐसे समय में किया था, जब लगभग पूरा विपक्ष जेल में बंद किया जा चुका था। सिर्फ सत्तापक्ष के या सत्तापक्ष के प्रति समर्थन रखने वाली पार्टियों के सांसद सदन में मौजूद थे। उस समय सरकार ने 42वां संशोधन पारित कराया। इस संशोधन के जरिए ही चुनाव स्थगित किए गए और लोकसभा का कार्यकाल पांच से बढ़ा कर छह साल किया गया। देश के लोगों ने सरकार की इस मनमानी का करारा जवाब मार्च 1977 में दिया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रायबरेली से और उनके बेटे श्री संजय गांधी को अमेठी सीट से चुनाव हरवा दिया। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस पार्टी चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी।
इमरजेंसी की अवधि में इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संशोधन के जरिए न सिर्फ संविधान के बुनियादी ढांचे को बदल दिया था, बल्कि संविधान की प्रस्तावना को भी बदल दिया। कांग्रेस की पारंपरिक तुष्टिकरण की राजनीति के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल किया गया। इसी तरह ‘समाजवादी’ शब्द भी प्रस्तावना में जोड़ा गया। ध्यान रहे श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 का चुनाव ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर जीता था। लेकिन उनको पता था कि यह सिर्फ नारा है और उनकी सरकार गरीबी मिटाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि आजादी के पहले ही कांग्रेस के अंदर के तमाम समाजवादी नेता एक एक करके पार्टी छोड़ चुके थे। जो बचे रह गए थे वे भी इमरजेंसी से पहले कांग्रेस से बाहर हो गए। उनको समझ में आ गया था कि इंदिरा गांधी की राजनीति समाजवाद की नहीं, बल्कि परिवारवाद की है। तभी अपनी साख बचाने के लिए संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द उन्होंने जुड़वाया, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।
इमरजेंसी के बाद से ही गाहेबगाहे यह बात उठती रहती है कि संविधान की प्रस्तावना को उसके मूल रूप में स्थापित किया जाए। प्रस्तावना को मूल रूप में स्थापित करने का अर्थ है कि उसमें से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटाया जाए। इमरजेंसी हटने के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने संविधान का 44वां संशोधन किया, जिसके जरिए 42वें संशोधन द्वारा किए गए अधिकतर बदलावों को वापस बहाल कर दिया गया। लोकसभा का कार्यकाल वापस पांच साल नीयत किया गया। परंतु पता नहीं किस कारण से जनता पार्टी की सरकार ने संविधान की प्रस्तावना से हुई छेड़छाड़ को ठीक नहीं किया जा सका। अगर उसी समय यानी 44वें संशोधन के जरिए ही मूल प्रस्तावना की बहाली हो गई होती तो इमरजेंसी के 50 साल बाद इस विषय पर बहस नहीं हो रही होती।
भारतीय जनता पार्टी की ओर से समय समय पर यह मुद्दा उठाया जाता है और इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा संविधान सभा द्वारा अंगीकार की गई मूल प्रस्तावना को वापस बहाल करने की स्पष्ट मंशा रखती है। 2023 में जब संसद की नई इमारत बनी और उसमें पहला सत्र आहूत किया गया तो सांसदों को संविधान की प्रति दी गई। उस प्रति में पहले मूल प्रस्तावना को रखा गया और उसके बाद संशोधित प्रस्तावना को शामिल किया गया। विपक्ष ने इस पर विवाद खड़ा करने का प्रयास किया। परंतु सरकार ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। इसी तरह पिछले साल ओडिशा में जब पहली बार भारतीय जनता पार्टी की अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो विधानसभा में संविधान सभा द्वारा अंगीकार किए गए संविधान की मूल प्रस्तावना को प्रदर्शित किया गया। कांग्रेस और बीजू जनता दल के सदस्यों ने इसका विरोध किया। परंतु सरकार की ओर से स्पष्ट कर दिया गया कि विधानसभा में प्रदर्शित प्रस्तावना ही असली है और मूल संविधान को प्रतीकित करने वाली है। उसके बाद अब फिर यह विमर्श आगे बढ़ा है। अब उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इस संदर्भ में निर्णायक कदम उठाएगी। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अनेक ऐतिहासिक भूलों को अपने मजबूत निर्णय से ठीक किया है। अनुच्छेद 370 समाप्त करने का निर्णय हो या नागरिकता संशोधन कानून का निर्णय हो या वक्फ कानून को बदलने का फैसला हो, हर बार सरकार ने मजबूत इच्छाशक्ति के साथ ऐतिहासिक भूलों को ठीक किया है। उसी तरह सरकार को जल्दी से जल्दी संविधान की मूल प्रस्तावना बहाल करने का फैसला भी करना चाहिए।
इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के अवसर पर एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने फिर से यह प्रसंग छेड़ा है। उन्होंने कहा कि इमरजेंसी की अवधि में, विपक्ष की अनुपस्थिति में मनमाने तरीके से संविधान से छेड़छाड़ किया गया और प्रस्तावना को बदल कर उसमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि इन दोनों शब्दों को हटा कर मूल प्रस्तावना को बहाल किया जाए। केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने उनके इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि भारत का मूल स्वभाव सर्वधर्म समभाव वाला है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता का भाव इसके अनुकूल नहीं है। ऐसे ही समाजवादी चेतना भारत के स्वभाव में है और संविधान के हर प्रावधान में इसकी झलक है। तभी संविधान निर्माताओं ने इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना में रखना जरूरी नहीं समझा था। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री श्री जितेंद्र सिंह ने भी श्री दतात्रेय होसबाले की बात का समर्थन किया।
इन दो शब्दों को किस तरह से संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया और उसका क्या उद्देश्य था, इसकी पृष्ठभूमि तो समझ में आ गई है। परंतु इसके साथ ही इस बात को भी समझने की जरुरत है कि आखिर संविधान निर्माताओं ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द को प्रस्तावना में क्यों नहीं शामिल किया था? ऐसा नहीं है कि उनके सामने यह प्रश्न नहीं आया था। संविधान सभा के सामने कम से कम तीन बार यह प्रश्न आया कि संविधान की प्रस्तावना में ये दोनों शब्द भी शामिल करने चाहिए। संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने 1948 में अलग अलग समयों पर धर्मनिरेपक्षता और संघीय समाजवाद यानी फेडरल सोशियलिज्म शब्द शामिल करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन हर बार उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया गया। हर बार उनका प्रस्ताव वोटिंग के जरिए खारिज हुआ यानी संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य इस राय के थे कि ये दोनों शब्द प्रस्तावना में जोड़ने की जरुरत नहीं है। असल में चाहे पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या सरदार वल्लभ भाई पटेल या डॉक्टर भीमराव अंबेडकर हों, सबने इस विचार को खारिज किया। सबने किसी न किसी रूप में इस सत्य को माना कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय अवधारणा नहीं है, बल्कि एक यूरोपीय अवधारणा है, जो भारत जैसे बहुभाषी और बहुधर्मी राष्ट्र के अनुकूल नहीं है। साथ ही यह भारत की सहस्त्राब्दियों की संस्कृति और परंपरा को भी प्रतीकित नहीं करती है। कई विद्वानों ने ‘धर्मनिरेपक्ष’ शब्द की व्याख्या धर्म विरूध होने के रूप में भी की है। तभी डॉक्टर अंबेडकर मानते थे कि इस शब्द को अगर शामिल किया गया तो कई तरह की भ्रांतियां फैलेंगी और लोकतंत्र नष्ट हो सकता है।
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ने के केटी शाह के प्रस्ताव को खारिज किए जाने की सूचना देते हुए एक मौके पर कहा कि,‘मुझे खेद है कि मैं प्रोफेसर केटी शाह के संशोधन को स्वीकार नहीं कर सकता, राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं, जिन्हें लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार खुद तय करना होगा। इसे संविधान में ही नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इससे लोकतंत्र पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा। मेरे विचार से आप लोगों से यह तय करने की स्वतंत्रता छीन रहे हैं कि वे किस तरह का सामाजिक संगठन चाहते हैं, जिसमें वे रहना चाहते हैं’। इससे स्पष्ट है कि डॉक्टर अंबेडकर और संविधान सभा के अधिकतर सदस्य नहीं चाहते थे कि भारत के संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा जाए। उन्होंने ‘समाजवादी’ शब्द को लेकर भी कहा कि भारत के संविधान में नागरिकों के लिए अवसर की समानता प्रदान करने वाले अनेक अनुच्छेद हैं। इसलिए समाजवादी शब्द जोड़ने की जरुरत नहीं है।
सबसे आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि इमरजेंसी के समय जब संविधान की प्रस्तावना को बदला गया तब इंदिरा गांधी ने अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की कही बातों को भी ध्यान में नहीं रखा या उसे भी खारिज कर दिया। दिसंबर 1946 में नेहरू ने ही प्रस्तावना का एक स्वरूप पेश किया था, जिसे ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ कहा गया था। उन्होंने भारत को एक ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ बनाने का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘कानून शब्दों से बनते हैं लेकिन यह प्रस्ताव कानून से भी ऊपर है’। जिस प्रस्तावना को पंडित नेहरू ने कानून से ऊपर का दर्जा दिया उसको उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने मनमाने तरीके से बदल दिया! अब समय आ गया है कि संविधान निर्माताओं का सम्मान करते हुए और भारत के मूल चरित्र के अनुकूल बनाई गई प्रस्तावना को बहाल किया जाए यानी ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द प्रस्तावना से हटाया जाए। विपक्ष के नेता राहुल गांधी को यह बात हजम नहीं हो रही है कि प्रस्तावना में सुधार की बात हो रही है। क्योंकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटने से उनकी तुष्टिकरण की राजनीति को चोट पहुंचती है। इसलिए उन्होंने मूल प्रस्तावना की बहाली की बात का विरोध किया। परंतु विरोध का कोई तर्क नहीं सूझा तो कह दिया कि भाजपा और आरएसएस को संविधान नहीं मनुस्मृति पसंद है। सवाल है कि क्या वे यह कहना चाहते हैं कि जिन संविधान निर्माताओं ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द मूल संविधान में नहीं शामिल किया था वे भी मनुस्मृति पसंद करने वाले थे? (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)