एससीओ शिखर सम्मेलन से लेकर विक्टरी डे परेड तक यही जताया गया है कि दुनिया की वर्तमान कथा सिर्फ हताशा की नहीं है। बल्कि कहीं कुछ नया भी गढ़ा जा रहा है। 21वीं सदी का तीसरे दशक आते-आते ‘इतिहास के अंत’ की थीसीस का एंटी-थिसीस साकार रूप ले चुका है। अब आने वाले दशकों की कथा इसी नई थीसिस से प्रेरित होगी। संदेश यह है कि हम विश्व व्यवस्था के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं।
शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का तियानजिन शिखर सम्मेलन एक ऐतिहासिक मुकाम बना है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं विश्व व्यवस्था के संचालन के नए नजरिये को वहां सामूहिक रूप से और जितनी स्पष्टता से जताया गया, उसके पहले संभवतः ऐसा किसी एससीओ शिखर सम्मेलन में नहीं हुआ था। इस बार ऐसा हो सकने की कुछ पृष्ठभूमि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति और उस वजह से पश्चिमी खेमे में आ रहे बिखराव से भी बनी।
लेकिन तियानजिन में जो हुआ, उसे महज प्रतिक्रिया अथवा पश्चिम के खिलाफ लामबंदी के रूप में देखना गलत होगा। बेशक, पश्चिमी मीडिया में इसे इसी रूप में पेश किया गया है, मगर हकीकत यह नही है। एससीओ या ब्रिक्स+ जैसे मंच अंतरराष्ट्रीय सहयोग का जो मॉडल पेश कर रहे हैं, वह गुणात्मक रूप से अलग है। इस मॉडल में श्रेणी क्रम नहीं है। बल्कि समानता और मतभेदों के सम्मान पर यह संबंध आधारित है।
चीन के शहर तियानजिन में ये सारी बातें अधिक प्रखरता से जाहिर हुईं, तो उसका बड़ा कारण वहां भारत की बेहिचक भागीदारी रही। अभी पिछले साल तक इस मंच के अंदर भारत की भूमिका को लेकर अटकलों का बाजार गर्म रहता था। मगर ताजा बनी परिस्थितियों के बीच इस बार काफी हद तक एससीओ के उद्देश्य से भारत की सहमति बनती नजर आई। नतीजतन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वहां जुटे अन्य नेताओं के साथ बेहतर समन्वय दिखा। इससे ग्लोबल साउथ की एकजुटता बेहतर ढंग से व्यक्त हुई।
चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को समर्थन देने के प्रश्न पर एससीओ के बाकी सदस्य देशों के साथ भारत का मतभेद जरूर कायम रहा। मगर इस मतभेद की वाजिब वजहें हैं। बहरहाल, उल्लेखनीय यह है कि यह मुद्दा साझा घोषणापत्र जारी होने की राह में रुकावट नहीं बना। पहले के शिखर सम्मेलनों की तरह ही इस बार भी घोषणापत्र में बीआरआई को समर्थन देने वाले देशों का नाम लेकर उल्लेख किया गया, और उनमें भारत शामिल नहीं था। फिर भी मतभेद का सम्मान करने की सोच के तहत एससीओ ने इस मुद्दे को विवाद में तब्दील नहीं होने दिया।
(https://x.com/airnewsalerts/status/1962394821601243175)
नतीजतन, एससीओ के सदस्य देश एक साझा घोषणापत्र पर सहमत हुए, जिसमें कहा गयाः ‘दुनिया गहरे ऐतिहासिक परिवर्तनों से गुजर रही है, जिसका असर राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक संबंधों के हर क्षेत्र पर पड़ रहा है। इसलिए एक उचित, न्यायपूर्ण, तथा बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के निर्माण की आकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं- एक ऐसी विश्व व्यवस्था की, जो सभी देशों के विकास और परस्पर लाभदायक अंतरराष्ट्रीय सहयोग की नई संभावनाएं खोले।’
और ऐसी संभावनाएं तियानजिन में खुलीं। वहां एससीओ डेवलपमेंट बैंक की स्थापना पर सदस्य देशों के बीच महत्त्वपूर्ण सहमति बनी। स्पष्टतः इसका मकसद बिना अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल किए अंतरराष्ट्रीय कारोबार को बढ़ावा देना है। निर्णय हुआ कि सभी सदस्य देश अपनी भुगतान प्रणालियों को प्रस्तावित बैंक से जोड़ेंगे। एससीओ बैंक सदस्य देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए धन भी मुहैया कराएगा।
इस तरह पश्चिम नियंत्रित वित्तीय व्यवस्था की एक और वैकल्पिक बैंकिंग संस्था अस्तित्व में आएगी। नई संस्था न्यू डेवलपमेंट बैंक (ब्रिक्स बैंक) और एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) के पूरक के रूप में काम करेगी। न्यू डेवलपमेंट बैंक और AIIB पहले ही ग्लोबल साउथ के देशों के लिए वित्त (finance) का महत्त्वपूर्ण स्रोत बन चुके हैँ। खास बात यह है कि ये बैंक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की तरह राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित नहीं हैं। अब एक और ऐसे बैंक की स्थापना विकासशील देशों की बुनियादी विकास की जरूरत को पूरा करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल होगी।
एससीओ बैंक की स्थापना के अलावा कुछ अन्य संस्थाओं के निर्माण पर भी रजामंदी हुई है। इनमें शामिल हैः एससीओ ऊर्जा साझेदारी-समूह (consortium) और मादक पदार्थों के खिलाफ साझा कदम के लिए संगठन।
साझा घोषणापत्र के अलावा तियानजिन में दूरगामी महत्त्व के कई अन्य दस्तावेजों को भी एससीओ के नेताओं ने मंजूरी दी। उनमें शामिल हैः
-2026-2035 अवधि के लिए विकास रणनीति
– बहुपक्षीय व्यापार के लिए साझा वक्तव्य
– दूसरे विश्व युद्ध में नाजीवाद, फासीवाद और सैन्यवाद पर विजय एवं संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की 80वीं सालगिरह एक विशेष साझा बयान
यह महत्त्वपूर्ण है कि एससीओ शिखर सम्मेलन ने ईरान पर इजराइल और अमेरिका के हमलों की दो टूक शब्दों में निंदा की। साथ ही यह दोहराया कि मध्य-पूर्व में शांति एवं स्थिरता के लिए फिलस्तीनी मुद्दे का न्यायपूर्ण समाधान ही एकमात्र रास्ता है। साथ ही गजा में विनाशकारी स्थिति पैदा करने के कृत्य की कड़े शब्दों में निंदा की गई।
साझा बयान में कहा गया- ‘एससीओ के सदस्य देश आर्थिक सहित तमाम एकतरफा उत्पीड़क कदमों का विरोध करते हैं। इन देशों की नीति में गुट बनाना और मसलों को हल करने के लिए टकराव का नजरिया अपनाना शामिल नहीं है। एससीओ देशों की नीति आंतरिक मामलों में अ-हस्तक्षेप और ताकत का इस्तेमाल करने की है, जो टिकाऊ विकास एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार है।’
मेजबान चीन ने एससीओ के सदस्य देशों के अलावा कई अन्य देशों के नेताओं को भी तियानजिन में आमंत्रित किया। उनको लेकर वहां एससीओ प्लस की शिखर बैठक आयोजित हुई। इस बैठक के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी नई पहल- ग्लोबल गवर्नेंस इनिशिएटिव (जीजीआई) की रूपरेखा पेश की। चीन इसके पहले ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव (जीडीआई), ग्लोबल सिक्युरिटी इनिशिएटिव (जीएसआई) और ग्लोबल सिविलाइजेशन इनिशिएटिव (जीसीआई) पेश कर चुका है। इनमें से जीडीआई को संयुक्त राष्ट्र के एसडीजी (टिकाऊ विकास लक्ष्यों) से समन्वित किया गया है और उसे संयुक्त राष्ट्र ने अपना लिया है। जीसीआई भी संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे का हिस्सा बन गई है। इस वर्ष जून में संयुक्त राष्ट्र ने ‘सभ्यताओं के बीच संवाद’ का आयोजन किया, जो जीसीआई से प्रेरित था। नए दौर में जीएसआई को एससीओ ने अपनी मूलभूत सोच के रूप में अपना रखा है।
अब चीन की तरफ से प्रस्तुत जीजीआई को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यह पहल इन पांच मान्यताओं पर आधारित हैः
– संप्रभुता की समानता (sovereign equality)
– अंतरराष्ट्रीय कानून (international rule of law) का पालन
– बहुपक्षीयता (multilateralism) का अनुपालन
– जन-केंद्रित नजरिए का समर्थन, और
– वास्तविक कदमों पर ध्यान केंद्रित करना
शी जिनपिंग ने अपनी इस पहल के तहत सहभागी देशों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के सेंटर बनाने की घोषणा की। शुरुआत में दस देशों में लुबान वर्कशॉप नाम से ऐसे केंद्र स्थापित किए जाएंगे। चीन में लुबान ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण नाम है। चीनी परंपरा में लुबान चीनी कारीगरी और वास्तुकला के देवता माने जाते हैं। इन केंद्रों की स्थापना के अलावा शी ने चीन की चंद्र स्थल परियोजना (lunar station project) से जुड़ने का आमंत्रण भी सहभागी देशों को दिया है।
जाहिर है, तियानजिन शिखर सम्मेलन ना सिर्फ एससीओ के विस्तार का मौका बना (लाओस यहां इस संगठन का डायलॉग पार्टनर बना), बल्कि इस मंच के तहत सहयोग का दायरा भी विस्तृत हुआ है। इस तरह 30 साल पहले आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ सहयोग के लिए बना पांच देशों का यह मंच अब सहयोग की नई दुनिया गढ़ने का उपकरण बन गया है। 1996 में रूस, चीन, कजाखस्तान, किर्गिजिस्तान और ताजिकिस्तान ने शंघाई फाइव नाम से इस मंच की शुरुआत की थी। 2001 में उज्बेकिस्तान भी शामिल हुआ, और तब इसका नाम शंघाई सहयोग संगठन हो गया। अब इस संगठन में दस देश पूर्ण सदस्य, दो देश पर्यवेक्षक और 15 देश डायलॉग पार्टनर की हैसियत से शामिल हैं। भारत 2017 में एससीओ का पूर्ण सदस्य बना था।
चूंकि इस संगठन की स्थापना आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ हुई थी, इसलिए सुरक्षा सहयोग हमेशा एससीओ की प्राथमिकता रहा है। मगर धीरे-धीरे वहां सुरक्षा की नई अवधारणा विकसित हुई है। यह अवधारणा इस समझ पर आधारित है कि सुरक्षा अविभाज्य है। यानी किसी की सुरक्षा किसी और की कीमत पर नहीं हो सकती। अर्थात सबके सुरक्षित होने में ही सबकी सुरक्षा है। समझ यह है कि कोई भी देश आज की सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का अकेले सामना नहीं कर सकता। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग अनिवार्य है।
सुरक्षा की धारणा को और विस्तार चीन की ग्लोबल सिक्युरिटी इनिशिएटिव से मिला है। इस पहल की मूल मान्यता है कि विकास ही सुरक्षा का सर्वोच्च रूप और क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने की कुंजी है। इसी क्रम में एससीओ ने बीआरआई को समर्थन दिया है। भारत इससे अलग है, तो इसलिए कि इस परियोजना को लागू करते वक्त भारत की प्रादेशिक अखंडता का ख्याल नहीं रखा गया। चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर इसी परियोजना का हिस्सा है, जो जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान के कब्जे वाले हिस्से से गुजरता है। भारत की आपत्ति है कि उसके इस हिस्से से कॉरिडोर को गुजराने का फैसला बिना उसकी सहमति लिए किया गया।
भारत 2017 में एससीओ का सदस्य बना। उसी वर्ष पाकिस्तान भी इसका पूर्ण सदस्य बना। दोनों देशों के बीच आपसी रिश्ते लगातार तनाव भरे रहे हैं। इसके बावजूद दोनों देश इस मंच में शामिल हुए। दोनों विकासशील देश हैं। दोनों के सामने सुरक्षा संबंधी गंभीर चुनौतियां हैं। इसके बावजूद सीमापार आतंकवाद तथा अन्य मुद्दों को लेकर उनके बीच फिलहाल किसी सहमति या समझौते की गुंजाइश नहीं दिखती। बहरहाल, एससीओ के तहत सुरक्षा की अपनाई गई अवधारणा दोनों के लिए उपयोगी है।
विकास ही सुरक्षा का सर्वोत्तम रूप है- यह समझ पारंपरिक सुरक्षा दृष्टिकोण से हटकर अधिक समग्र और दीर्घकालिक नजरिए को दर्शाती है। यह विचार उस सोच को चुनौती देता है, जिसमें सुरक्षा को केवल सैन्य शक्ति या सीमाओं की रक्षा तक सीमित किया जाता है। इसके बजाय आर्थिक समृद्धि, इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण और आधुनिक तकनीक के क्षेत्र में सहयोग सुरक्षा की ऐसी धारणा से जुड़े हैं, जिसके केंद्र में आम जन हैं। समझ यह है कि अगर सभी देशों के शासक वर्ग अपनी आम जनता के हितों को सर्वोपरि रखें, तो अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की नई समझ से वे प्रेरित और मार्ग-निर्देशित हो सकते हैँ। तियानजिन शिखर बैठक में विभिन्न नेताओं के भाषणों और सम्मेलन के आखिर में जारी साझा घोषणापत्र में यह समझ व्यक्त हुई है।
मेजबान चीन ने एससीओ के तियानजिन शिखर सम्मेलन का कार्यक्रम दूसरे विश्व युद्ध में नाजीवाद और फासीवाद पर मित्र देशों की निर्णायक जीत और संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की 80वीं सालगिरह पर आयोजित अपने समारोह ठीक पहले रखा। शिखर सम्मेलन 30 अगस्त से एक सितंबर तक चला। तीन सितंबर को बीजिंग में विजय दिवस परेड हुई। शिखर सम्मेलन में आए अधिकांश नेता इस परेड में शामिल हुए। उनके अलावा कई अन्य देशों के नेताओं को भी इस मौके पर आमंत्रित किया गया।
हालांकि पश्चिमी मीडिया ने परेड को चीन की सैनिक शक्ति के प्रदर्शन के रूप में पेश किया, मगर इस अवसर का महत्त्व उससे कहीं ज्यादा रहा है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कहते रहे हैं कि इस वक्त हम ऐसे परिवर्तनों से गुजर रहे हैं, जैसा गुजरे 100 साल नहीं देखा गया। सदियों तक पश्चिमी उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के शिकंजे में रहे ग्लोबल साउथ का आखिरकार अब उदय हो रहा है। इस घटनाक्रम ने उपरोक्त परिवर्तनों को गति दी है। विक्टरी डे परेड को चीन ने इस परिवर्तन का साकार रूप पेश करने का मौका बनाया। परेड बीजिंग के मशहूर तियेनआनमन चौराहे से गुजरी, जहां पृष्ठभूमि में लाल झंडे लहरा रहे थे। इस मौके पर उपस्थित विश्व नेताओं के सामने अपने संक्षिप्त संबोधन में शी जिनपिंग ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद से प्रेरित विशिष्ट चीनी प्रकृति के समाजवाद का उल्लेख किया।
यह इस बात की घोषणा थी कि 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ पश्चिम ने जिस ‘इतिहास के अंत’ (अमेरिकी राजनीति-शास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने अपने एक बहुचर्चित लेख में यह अभिधारणा प्रस्तुत की थी, जो बाद में उनकी एक किताब का शीर्षक भी बनी) की घोषणा थी, उस ‘इतिहास’ ने कहीं अधिक ताकत से अपनी वापसी कर ली है। फुकुयामा ने कहा था कि सोवियत संघ के विघटन के साथ पूंजीवाद और पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्र ने अंतिम रूप से विजय प्राप्त कर ली है। अब आगे की दुनिया इन्हीं व्यवस्थाओं के अनुरूप चलेगी और सारे विश्व को इसी में ढलना होगा।
पश्चिमी देशों में धुर-दक्षिणपंथ के उदय और बढ़ते बिखराव के बीच फुकुयामा आज एक हताश शख्सियत हैं। 2012 में उन्होंने लिखा था कि उनकी दो दशक पुरानी समझ गलत साबित होने लगी है। पिछले वर्ष डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने अपनी अभिधारणा की हार सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर ली।
अब एससीओ शिखर सम्मेलन से लेकर विक्टरी डे परेड तक यही जताया गया है कि दुनिया की वर्तमान कथा सिर्फ हताशा की नहीं है। बल्कि कहीं कुछ नया भी गढ़ा जा रहा है। 21वीं सदी का तीसरे दशक आते-आते ‘इतिहास के अंत’ की थीसीस का एंटी-थिसीस साकार रूप ले चुका है। अब आने वाले दशकों की कथा इसी नई थीसिस से प्रेरित होगी। संदेश यह है कि हम विश्व व्यवस्था के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं। इस दौर की कहानी ग्लोबल साउथ में और वहां की जनता के हाथों लिखी जाएगी।