वैदिक ग्रन्थों में कुछ प्राकृतिक घटकों का नाम यथा, अग्नि, वायु व वरूण इत्यादि के नाम पर रखे गये हैं। इसका उद्देश्य अग्नि, वायु व वरुण आदि के महत्व को रेखांकित करते हुए घटक की पवित्रता स्थापित करना है। ताकि मानव समाज प्रकृति संरक्षण को धर्म की आज्ञा मानकर इसमें अपना योगदान ईश्वरीय सेवा समझकर दे। यह भाव ही प्रकृति के घटकों अर्थात पर्यावरण संरक्षण का बुनियादी आधार बनता है।…एक स्वस्थ पर्यावरण एक स्थिर और स्वस्थ मानव समाज की नींव है। इसलिए प्रकृति को संरक्षित करने की जिम्मेवारी संसार के प्रत्येक व्यक्ति की है।
28 जुलाई- विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस
भारतीय परम्परा में प्रकृति को जीवनदात्री माना गया है। संसार के सर्वप्रथम ग्रन्थ वेद में एकेश्वरवाद की महिमागान करते हुए एकमात्र ओ३म (ॐ) नामधारी परमात्मा का ही प्रार्थना, उपासना करने की आज्ञा दी गई है, लेकिन कालांतर में मनुष्य के वेद ज्ञान से दूर होने के परिणामस्वरूप एकेश्वरवाद के स्थान पर बहुदेववाद पूजन प्रथा का चलन होने पर मनुष्यों के हितसाधन का माध्यम बन चुकी प्रकृति के सभी घटकों यथा, अग्नि, वायु व जल, भूमि, ऋतुएं, भोजन इत्यादि को सुरसम्य मानकर पूजने की परम्परा चल पड़ी। क्योंकि मानव कृषि से लेकर सभी जीवकोपार्जन की सामग्री व वस्तुएं प्रकृति से ही प्राप्त करता है। वैदिक मतानुसार प्रकृति के घटकों में समन्वय होना ही सुख, शांति व समृद्धि का आधार है। पदार्थों का परस्पर सामंजस्य ही शांति है। प्राकृतिक घटकों में सुख, शांति, वैभव व समृद्धि की भावनाएं उपलब्ध होने की मान्यता होने के कारण ही भारतीय समाज में बहुदेववाद का चलन होने पर अनेक पर्व- त्योहारों व शुभ अवसरों पर प्रकृति पूजन की परिपाटी बन गई। भारतीय समाज की यह परिपाटी प्रकृति के घटकों का संरक्षण ही है। इससे प्रकृति प्रेम का भाव प्रस्फुटित होता है।
वैदिक ग्रन्थों में कुछ प्राकृतिक घटकों का नाम यथा, अग्नि, वायु व वरूण इत्यादि के नाम पर रखे गये हैं। इसका उद्देश्य अग्नि, वायु व वरुण आदि के महत्व को रेखांकित करते हुए घटक की पवित्रता स्थापित करना है। ताकि मानव समाज प्रकृति संरक्षण को धर्म की आज्ञा मानकर इसमें अपना योगदान ईश्वरीय सेवा समझकर दे। यह भाव ही प्रकृति के घटकों अर्थात पर्यावरण संरक्षण का बुनियादी आधार बनता है। यद्यपि वेद में स्पष्ट रूप से पर्यावरण शब्द कहीं नहीं आया है, परन्तु पृथ्वी, जल, वायु, ऋतुएं, भोजन, पेड़, पौधे सभी प्रकृति के अंग हैं, और इनके सहयोग से ही शुद्ध पर्यावरण निर्मित होता है। इसीलिए वैदिक ग्रन्थों में प्रकृति व पर्यावरण के महत्व को रेखांकित कर इसकी सृष्टि करने वाले परमात्मा व प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा गया है कि आरोग्यता व शुद्ध प्राणवायु प्रदान करने वाले मूल्यवान व विशाल वृक्षों से युक्त पृथ्वी की रक्षा एवं वन्दना करना हमारा कर्तव्य है।
वैदिक मतानुसार सब जगत के बनाने में समर्थ होने के कारण उस परमेश्वर का नाम शक्ति है । अमरकोश में शक्ति के अनेक अर्थ बतलाते हुए एक अर्थ प्रकृति भी किया गया है-कासूसामर्थ्ययोशक्तिः, शक्तिः पराक्रमः प्राणः, षड्गुणाश्शक्तयस्तिशत्रः । शक्ति, माया, प्रकृति सभी पर्यायवाची शब्द हैं। सृष्टि क्रम में आद्य एवं प्रधान (प्रकृष्टा) देवी होने के कारण इन्हें प्रकृति कहा है । शास्त्रों में इन्हें त्रिगुणात्मिका कहा गया है – सत्वं रजस्तमस्त्रीणि विज्ञेया प्रकृतेर्गुणाः । प्रकृति शब्द में तीन अक्षर होते हैं- प्र, कृ और ति । प्र, कृ और ति- ये तीनों क्रमशः सत्व, रज और तम- तीनों गुणों के द्योतक हैं। इसलिए ये परिणामस्वरूपा हैं। श्वेताश्वर उपनिषद में कहा है –
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानांस्वरूपाः ।
जो जन्मरहित सत्व, रज, तमोगुण रूप प्रकृति है, वही स्वरूपाकार से बाहर प्रजारूप हो जाती है, अर्थात प्रकृति परिणामिनी होने से वह अवस्थांतर हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थांतर होकर दूसरे रूप में कभी प्राप्त नहीं होता, सदा कूटस्थ होकर निर्विकार रहता है। दुर्ज्ञेया होने के कारण प्रकृति को दुर्गा कहा जाता है। दुर्गा शब्द में दु अक्षर दुःख, दुर्भिक्ष, दुर्व्यसन, दारिद्रय आदि दैत्यों का नाश्वाचक, रेफ रोगघ्न तथा गकार पापघ्न और आकार अधर्म, अन्याय, अनैक्य, आलस्यादि अनेकानेक असुरों का नाशकर्ता है। सर्वसम्पतस्वरूपा प्रकृति लक्ष्मी कहलाती है। वाक्, बुद्धि, विद्या, ज्ञानरूपिणी प्रकृति सरस्वती कहलाती है।
लौकिक मान्यतानुसार परमात्मा ने अपनी प्रतिकृति के रूप में प्रकृति का निर्माण किया। और प्रकृति ने पेड़ -पौधों,वनस्पतियों के द्वारा धरा को श्रृंगारित कर मानव समाज को पर्यावरण की शुद्धता समर्पित की। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारतीय समाज पर्यावरण के महत्व को जानते हुए पर्यावरण की रक्षा के लिए समर्पित रहा है,क्योंकि मानव जीवन का अस्तित्व प्रदूषण रहित प्राकृतिक वातावरण से ही है। इसीलिए वेदों में प्रकृति संरक्षण के माध्यम से विश्व मानव को सावधान किया गया है कि मानव की समस्त सुख- शांति एवं आरोग्य पूर्णतः शुद्ध पर्यावरण पर निर्भर है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद के अनेक सूक्त पूर्ण रूप से प्रकृति के घटकों यथा, भूमि, वायु, वर्षा एवं जल के महत्व को समर्पित हैं। वनस्पति एवं वृक्ष प्रकृति अर्थात पर्यावरण के प्रमुख अंग हैं। वृक्ष अपनी शाखाओं में मूक पक्षियों को घोसले निर्माण के लिए स्थान प्रदान करते हैं। वृक्ष की कोंपले और पत्ती प्राणवायु प्रदान करते हैं। फल पक्षियों एवं मानव का पोषण करते हैं। बादलों को रोक कर वर्षा को आमन्त्रित करते हुए भूमि के कटाव को रोकते है।
वृक्ष मानव के लिए स्वास्थ्यवर्धक एवं अनेक प्रकार से लाभदायक हैं। पर्यावरण का ऋतुओं से घनिष्ठ संबंध है। ऋतुएं पर्यावरण को नियंत्रित कर मानव जीवन को स्वास्थ्य प्रदान करती है, और प्राकृतिक संतुलन बनाये रखती है। ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त व वसन्त ऋतुएं रात -दिन शुद्ध वातावरण प्रदान करती है। पृथ्वी उसे धारण कर समस्त संसार को लाभान्वित कर शुद्ध जल,वायु,वनस्पति एवं खाद्यान्न प्रदान करती है। भूमि पर अवस्थित समुद्र, नदियाँ एवं अन्य अनेक जलधाराएं अन्न,औषधियाँ,वनस्पति व शुद्ध प्राणवायु प्रदान करती है। इसलिए उनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। जल ही जीवन है। मानव जीवन, कृषि, वनस्पति एवं खाद्यान्न का अस्तित्व पूर्णतः जल पर ही आधारित है। जल समस्त जगत हेतु कल्याणकारी है ! इसके सेवन से आंतरिक एवं बाह्य शुद्धि होती है। जल में आरोग्यप्रद औषधीय गुण होते हैं। आयुर्वेद में जल का बडा महत्व है। मानव शरीर में 70 प्रतिशत एवं मस्तिष्क में 90 प्रतिशत जल होता है। जल दीर्घायु प्रदान करता है। जल अन्न, वनस्पति आदि का उत्पादक है। मनुष्य का आधार है। सभी औषधियों की औषधि है। जल समस्त प्राणियों को रोग मुक्त करता है। इसलिए वर्षा काल से शिक्षा लेकर अपने ऐश्वर्य एवं आयु वृद्धि हेतु ईश्वर से प्रार्थना करना चाहिए, क्योंकि पर्याप्त वर्षा ही सुख – समृद्धि, खाद्यान्न व वनस्पति प्रदान करती है।
इसलिए वेद मन्त्रों से प्रार्थना कर वर्षा ऋतु का स्वागत करना चाहिए। स्वस्थ्य जीवन हेतु आरोग्य प्रदाता शुद्ध वायु का सेवन आवश्यक है। प्रातःकाल की वायु प्राणदायक होती है। इस वायु के सेवन से प्राणी निरोगी एवं दीर्घजीवी बनता है। वायु औषधियुक्त होकर समस्त रोगों को दूर करता है। वायु देवदूत बनकर प्रवाहित होकर समस्त जीव जन्तु, मानव वनस्पति को रोग मुक्त करता है। इस वायु के घर अंतरिक्ष में ईश्वर द्वारा स्थापित अमरता के निक्षेप से यह वायु हमारे जीवन के लिए जीवन तत्व प्रदान करता है। यह वायु हमारा पितृवत पालक, बन्धुवर, धारक व पोषक और मित्रवत सुखकर्ता है। ध्वनि भी प्रकृति अर्थात पर्यावरण का अंग है। वेदों में हमेशा मधुर वचन बोलने का आदेश देते हुए कहा गया है कि कर्कश आवाज मानसिक शान्ति को भंग करती है। वेद के मार्ग पर चलने से यह संसार मधुर हो सकता है। पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त वस्तुएं, सूर्य की क्रान्ति मधुर हो सकती है। इसलिए मानव को शांति से रहना और दूसरों को भी शांति से रहने देना चाहिए। भोजन के प्रति आगाह करते हुए वेद में कहा गया है कि कम खाना और शांति से पूर्ण रूप से चबा -चबा कर खाना चाहिए। इससे पचाने में आसानी होती है। जैसे समुद्र धीरे -धीरे सब कुछ अपने में समा लेता है।
भारतीय पुरातन ग्रन्थों में प्रकृति संरक्षण को सुरसम्य मानकर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए दिए गए स्पष्ट आज्ञा के अवहेलना का कुप्रभाव अब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। प्रकृति के प्रभाव को कमतर आंककर वृक्षों व वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई, भूगर्भ से जल एवं खनिजों का अत्यधिक दोहन, ध्वनि प्रदूषण, आदि मानवीय क्रिया कलापों के कारण जनजीवन संकट में है। मौसम का बदलता रूख और ऋतुओं के परिवर्तनीय स्वरूप का प्रभाव मानव जीवन को संकट में डालने वाला बनता जा रहा है। समय पर वर्षा न होने से पेयजल और अन्नोत्पादन की समस्या गहराती जा रही है। नदियों एवं तालाबों का जल प्रदूषित हो रहा है। वायुमण्डल के दूषित होने से अन्न भी विषैला हो रहा है। मिलावट ने मानवता को खतरे में डाल दिया है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण मनुष्य ग्लोबल वार्मिंग, विभिन्न बीमारियों, प्राकृतिक आपदाओं, बढ़े हुए तापमान आदि के प्रकोप का सामना कर रहा है।
एक स्वस्थ पर्यावरण एक स्थिर और स्वस्थ मानव समाज की नींव है। इसलिए प्रकृति को संरक्षित करने की जिम्मेवारी संसार के प्रत्येक व्यक्ति की है। वर्तमान के साथ ही भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने और टिकाऊ संसार के निर्माण के लिए प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाली हर कृत्य पर रोक समय की मांग है। मनुष्य के द्वारा प्रकृति के संसाधनों का अधिकाधिक इस्तेमाल अर्थात शोषण करने और इसके संरक्षण के प्रति समुचित कदम उठाने के सम्बन्ध में एक प्रजाति के रूप में आत्मनिरीक्षण किये जाने की भी सख्त आवश्यकता है। इसीलिए अर्थात प्रकृति संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 28 जुलाई को विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस मनाया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि भूमि,जल, वायु,और भोजन के शुद्ध रहने से ही पर्यावरण शुद्ध होगा, जिससे मानव का शारीरिक, मानसिक,भौतिक, आध्यात्मिक आदि समस्त क्षेत्रों में विकास होगा, और सुख, शांति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी।
 
								 
								
								


 
												 
												 
												 
												 
												 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	 
																	