नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित अपनी राजधानी माहिष्मति में उन्होंने लंकाधिपति रावण के अतिरिक्त नागों के राजा कार्कोटक नाग को भी हराकर बंदी बना रखा था। एक हज़ार हाथों की शक्ति होने की वरदान के कारण सहस्त्रार्जुन नाम से विख्यात माहिष्मती नरेश के पास एक हजार अक्षौहिणी सेनाएं भी थी। लेकिन परशुराम से उनकी विवाद के कारण यह अति समृद्ध व विख्यात हैहय साम्राज्य नष्ट हो गया।
28 अक्टूबर- सहस्त्रार्जुन जयंती
भारतीय काल गणनानुसार पचीसवें कृतयुग के आरंभ में माहिष्मती साम्राज्य के महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी के त्रेतायुगीन हैहय शासक महाराज कृतवीर्य अत्यंत प्रतापी राजा थे। उनकी कई रानियां थी, लेकिन किसी को कोई संतान नहीं थी। राजा और उनकी रानियों के द्वारा पुत्र रत्न प्राप्ति के लिए घोर तपस्या किये जाने के बाद भी उन्हें कोई सफलता नहीं मिल रही थी। तब उनकी एक रानी इक्ष्वाकुवंशी राजा हरिशचंद्र की पुत्री महारानी पद्मिनी ने देवी अनुसूया से इसका उपाय पूछा, तो देवी अनुसूया ने उन्हें अधिक मास में शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी को उपवास रखने और भगवान विष्णु की पूजा करने के लिए कहा। उन्होंने विधिपूर्वक एकादशी का व्रत किया। जिसके कारण प्रसन्न भगवान ने उन्हें वर मांगने के लिए कहा, तो राजा और रानी ने उनसे सर्वगुण सम्पन्न, सभी लोकों में आदरणीय तथा किसी से पराजित न होने वाले पुत्र प्राप्ति का वरदान मांगा।
भगवान ने उनसे कहा कि ऐसा ही होगा। यथासमय कार्तवीर्य की पत्नी इक्ष्वाकुवंशी राजा हरिशचंद्र की पुत्री महारानी पद्मिनी के गर्भ से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को श्रवण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में एक पुत्र का जन्म हुआ, जो कालांतर में सहस्त्रार्जुन, कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से विख्यात होकर पूजित हुआ। कार्तवीर्य अर्जुन को अर्जुन, सहस्रार्जुन, सहस्त्रबाहु अर्जुन, सहस्त्रादित्य, सुदर्शन सहस्रार्जुन, कृतवीर्यनन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। इनका जन्म का नाम एक वीर था। धनुष, तलवार, चक्र, त्रिशूल आदि अस्त्र संचालन में सिद्धहस्त वीर होने के कारण इन्हें अर्जुन कहा गया।
राजा कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण कार्तवीर्य तथा भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के कारण उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु अर्थात एक हजार भुजाओं के बल के वरदान के कारण उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन, सहस्रबाहु कार्तवीर्य या सहस्रार्जुन आदि नामों से जाना जाता है। हैहय वंश में श्रेष्ठ राजा होने के कारण हैहय वंशाधिपति, माहिष्मति नगरी के राजा होने से माहिष्मति नरेश, सातों महाद्वीपों के राजा होने के कारण सप्त द्वीपेश्वर, रावण को हराने के कारण दशग्रीव जयी और राजाओं के राजा होने के कारण राजराजेश्वर आदि नामों से भी पौराणिक ग्रंथों में संबोधित किया गया है। ऐसी मान्यता है कि महाराज कार्तवीर्यार्जुन के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय एवं ब्रह्मा का पदार्पण हुआ था।
राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी शस्त्र-अस्त्र धारण नहीं करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे। युद्ध, दान, धर्म, दया एवं वीरता में उनके समान कोई नहीं था। सहस्रार्जुन के विष्णु के चौबीसवें अवतार होने की पौराणिक मान्यता होने के कारण उन्हें उपास्य देवता मानकर उन्हें पूजा और कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को सहस्रार्जुन जयंती मनाई जाती है। क्षत्रिय धर्म की रक्षा और सामाजिक उत्थान के लिए कार्तवीर्य अर्जुन की गरिमामयी इतिहास के स्मरण, उनके गुणगान और महिमा को धूमधाम से जयंती के रूप में मनाया जाता है।
महाभारत, भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, नारद पुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, कालिका पुराण, पद्म पुराण आदि ग्रंथों में हैहयवंश और महिष्मति संबंधी विवरणी अंकित है। पौराणिक मान्यतानुसार विष्णु के मानस प्रपुत्र तथा सुदर्शन के अवतार और धन, कीर्ति व बल के देवता के रूप में प्रसिद्ध सहस्त्रार्जुन ने सात महाद्वीपों एवं ब्रह्मांड पर विजय प्राप्त कर धर्मपूर्वक 85 हजार वर्षों तक शासन किया। उन्हें भगवान दत्तात्रेय नारायण के महान भक्त और एक हजार हाथ वाले देवता के रूप में पौराणिक ग्रंथों में अंकित किया गया है, जिसके सामने राक्षस नरेश रावण चींटी के समान था। भागवत पुराण 9/23/ 25 के अनुसार पृथ्वी के अन्य शासक बलिदान, उदार, दान, तपस्या, यौगिक शक्तियों, विद्वानों के प्रदर्शन के मामले में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकते, न तो भूत में और न ही भविष्य में।
नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित अपनी राजधानी माहिष्मति में उन्होंने लंकाधिपति रावण के अतिरिक्त नागों के राजा कार्कोटक नाग को भी हराकर बंदी बना रखा था। एक हज़ार हाथों की शक्ति होने की वरदान के कारण सहस्त्रार्जुन नाम से विख्यात माहिष्मती नरेश के पास एक हजार अक्षौहिणी सेनाएं भी थी। लेकिन परशुराम से उनकी विवाद के कारण यह अति समृद्ध व विख्यात हैहय साम्राज्य नष्ट हो गया। महर्षि जमदग्नि की हत्या के कारण पृथ्वी के सभी अधर्मी क्षत्रिय और कार्तवीर्य अर्जुन के 995 पुत्र भगवान परशुराम के हाथों मारे गए। बाद में 995 में से परशुराम द्वारा छोड़े गए अर्जुन के छोटे पुत्र तलंजंग ने आर्यावर्त पर विजय प्राप्त की। भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति की दो रानियों देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए। इसमें तुवेशुं सबसे पितृ भक्त पुत्र थे, जिनके वंश में कृतवीर्य तथा उनके पुत्र के रूप में कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुए। कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण उन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्र बाहु अर्थात भुजाओं का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।
हरिवंश पुराण अध्याय 38, वायु पुराण अध्याय 2 व 32 तथा मत्स्य पुराण अध्याय 42 आदि ग्रंथों में कंकोतक नाम वंशजों के साथ हैहय राजा कार्तवीर्य, सहस्रार्जुन या सहस्रबाहु ने युद्ध में जीत कर अपनी अधिपत्य में स्थापित करने का उल्लेख अंकित है। महाभारत में महेश्वरपुर और महिष्मति नगर अथवा स्थान का उल्लेख अंकित है, जिसे वर्तमान मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में इंदौर से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण में नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर अवस्थित महेश्वर अथवा महिष्मति का ही बोधक माना जाता है। पद्मपुराण के अनुसार महिष्मति में ही शिव के द्वारा त्रिपुरासुर का वध हुआ था। प्रायः सभी पौराणिक ग्रंथों में यदुवंश के समकालीन ययाति शाखा हैहयवंश का महिष्मति पर राज्य और अधिकार करने का वर्णन है, और महिष्मति ही हैहय वंश के राजाओं की राजधानी भी रही है।
सहस्त्रार्जुन अपने युग के धैर्यवान, शौर्यवान एवं धर्मनिष्ठ ऐसे राष्ट्र व युग पुरुष थे, जिन्होंने साक्षात भगवान के अवतार दत्तात्रेय को अपना गुरु माना। उनसे संपूर्ण शिक्षा- दीक्षा व धनुर्विद्या का गुण प्राप्त कर उन्हें अपनी तप, उपासना, प्रार्थना से प्रसन्न किया और उनसे अपराजेय होने, मृत्यु अपने से श्रेष्ठ हाथों से होने और सहस्रभुजाओं के बल होने का वरदान भी प्राप्त कर लिया। जिसके कारण वह सहस्रबाहु अर्जुन कहे गए। उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। वे परम भक्त और भृगुवंशी ब्राह्मण के यजमान थे। उनके जैसा दानवीर कोई और दूसरा शासक नहीं था।
उन्होंने बहुत सारे यज्ञ और हवन का आयोजन कर प्रचुर मात्रा में विद्वान ब्राह्मणों को धन दान किया। वे प्रजा को हमेशा सुखी रखने का प्रयास करते थे। उन्होंने अपनी शक्ति से अपना साम्राज्य हिमालय तक फैला रखा था और संसार में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उनसे युद्ध करने का साहस करता हो। लेकिन परशुराम से संघर्ष ने उनसे सब कुछ छीन लिया और उनके वंशज दर- दर भटकने, छुपकर, गुमनाम जीवन जीने को विवश हो गए, ताकि चिरंजीवी परशुराम की नजरों से बच कर जी सकें। आज भी उनके वंशज यत्र- तत्र बिखरे पड़े हैं। और छुपकर गुमनामी का जीवन जीने को विवश हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिनके पूर्वज कभी भूपतियों के सिरमौर थे, जिनके आगे संसार के सभी अभिपति सिर नवाते थे, उन महान राजा कार्तवीर्य की संतानों ने जीवनयापन हेतु अपनी क्षत्रिय विद्यता और युद्ध में अस्त्र-शस्त्र निर्माण की कला का उपयोग धातु विज्ञान के ज्ञाता होने के कारण बर्तन निर्माण का व्यासाय अपनी रक्षा और बचाव के लिए किया।
झारखण्ड प्रान्त में हाथ से पीटकर कांसे के वर्तन निर्माण व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध गुमला जिले के पालकोट प्रखण्ड के प्राचीन पालकोट कंसेरा टोली ग्राम निवासी स्थानीय कांस्यकार विद्वान 67 वर्षीय राधेश्याम कंसारी, भारतीय जनता पार्टी, जिला- गुमला के युवा नेता युद्धिष्ठिर कंसारी सहित कई अन्य जानकार कहते हैं- परशुराम के भय और ऋषि जमदग्नि का श्राप ही मूलत: हैहयवंशी क्षत्रियों के अपने मूल स्वरूप को छिपाना त्रेता युग से अब तक एक बड़ा कारण रहा है, जो आज इस आधुनिक युग में भी अछूता नहीं है। आज भी परशुराम के भय से भयभीत हैहयवंशी अपनी वास्तविक पहचान, सनातनीय अस्मिता का संघर्ष करने से डरते हैं। परशुराम-सहस्रबाहु संग्राम के पश्चात भयवश छिपने के लिए हैहयवंशीय क्षत्रियों ने कई समुदायों और वर्गों में अपने को शामिल कर लिया, ताकि उनके मूल रूप की पहचान परशुराम द्वारा नहीं की जा सके। बहुत से हैहयवंशीय गर्भवती और विधवा स्त्रियां भी अपना वंश बचाने के लिए विभिन्न रूपों व समुदायों के वर्गों में शामिल हो गयी थी, जो परशुराम द्वारा सहस्रबाहु का अंत किये जाने के बाद भी उनका क्रोध शांत होने के पश्चात भी जारी रहा है।
अपने आपको हैहयवंशी क्षत्रिय कहने वाले हाथ से पीटकर कांसे के वर्तन निर्माण के लिए प्रसिद्ध प्राचीन पम्पापुर वर्तमान पालकोट कंसारी टोली निवासी राधेश्याम कंसारी, युद्धिष्ठिर कंसारी के अनुसार आज कलियुग में भी हैहयवंशियों को अपनी पहचान बताने में डर लगता रहता है। और वह परशुराम के डर से जिस समुदाय या वर्ग में छिपे हुए थे, उसी के कर्म के अनुसार अनेक प्रकार के कार्य करने वालों में शामिल हो गए और उनके कर्म में ही अपनी पहचान छिपा दी। उन्हीं समुदाय और वर्गों में अन्य समुदायों की तरह कांस्ययुग में कांस्य का काम करने के कारण कसेरा वर्तमान कांस्यकार, ताम्रयुग में तांबे का काम करने के कारण तमेरा वर्तमान ताम्रकार आदि हैं। कई अन्य प्रान्तों, स्थानों में परिवेश अनुसार अनेक प्रकार के संबोधनों से बहुत सारे उपनाम प्रचलित हैं, जो मूल रूप से हैहयवंशी हैं। उत्तर पूर्व और मध्य भारत के कई राज्यों में बर्तन निर्माण व व्यावसाय करने का कार्य हैहयवंशियों द्वारा प्रचुर मात्र में किया जाता रहा है।
हैहयवंश क्षत्रिय वंश अर्थात जाति के वंशज आज भी सहस्त्रार्जुन को स्मरण करते हैं, नाम -जप करते हैं। उन्हें भगवान सदृश्य मान कर पूजते हैं। प्रजा में उनकी अपार लोकप्रियता के कारण देवतुल्य माने जाने कारण आज भी उनकी देवतुल्य पूजा होती है। मत्स्य और हरिवंश आदि पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सहस्रार्जुन भगवान के जन्म वृतांत, नाम जप, स्मरण, उनकी कथा की महिमा का वर्णन करने, कहने- सुनाने वाले मनुष्य के धन का नाश कभी नहीं होता। कभी नष्ट हो भी जाने पर पुन: प्राप्त हो जाता है। उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाती है तथा वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है।


