नीतीश सरकार की कराई जाति गणना के बाद बिहार में पहला चुनाव है। यह चुनाव कई तरह से राजनीति को बदलने वाला है। आखिरी बार अंग्रेजी राज में 1931 में जाति गणना हुई थी और उसके बाद भी जातियों का ध्रुवीकरण नए तरह से हुआ था। उस समय कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व के खिलाफ यादव, कोईरी और कुर्मी का त्रिवेणी संघ बना था, जिसने 1937 के चुनाव में कई इलाकों में कांग्रेस को हरा दिया था। हालांकि कांग्रेस के मजबूत संगठन, आजादी की लड़ाई के बड़े लक्ष्य और अगड़ी जातियों की ओर से हुए अति हिंसक प्रतिरोध की वजह से त्रिवेणी संघ आगे नहीं चल सका। उसके बाद अब पहली बार जातियां गिनी गई हैं और चुनाव हो रहा है। इस चुनाव में जातियों का नया ध्रुवीकरण तो दिख ही रहा है साथ ही आबादी के हिसाब से छोटी से छोटी जाति भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए बड़ी जातियों के साथ प्रतिस्पर्धा करती दिख रही है।
पटना में गुरुवार, 23 अक्टूबर को अशोक गहलोत द्वारा तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के साथ ही मल्लाह जाति से आने वाले मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करना इसी राजनीति का नमूना है। राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से अपनी ब्रांडिंग करने वाले मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना कर अत्यंत पिछड़ी जातियों को मैसेज दिया है कि महागठबंधन के साथ उनको सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी। अति पिछड़ी जाति के प्रतिनिधि चेहरे के तौर पर मुकेश सहनी के अलावा आईपी गुप्ता का चेहरा भी सामने लाया गया है। महागठबंधन ने उनको सहरसा की सीट दी है। वे तांती समाज से आते हैं। उन्होंने तांती, तंतवा को एक व्यापक पान समाज के रूप में पहचान दिलाने का आंदोलन छेड़ा है।
करीब 25 लाख की आबादी वाले इस समाज के लोगों ने आईपी गुप्ता की अपील पर पटना का गांधी मैदान भर दिया था। यह शुरुआत है। आने वाले दिनों में ऐसी जातियों की संख्या बढ़ेगी, जिनके नेता सामने आकर जाति को पहचान दिलाने का आंदोलन शुरू करेंगे। बिहार में जाति गणना के मुताबिक 36 फीसदी आबादी अति पिछड़ी जातियों की है, जिसमें 26 फीसदी हिंदू अति पिछ़डी जातियां हैं। इस 26 फीसदी आबादी में कुल 80 जातियां आती हैं, जिनमें से सिर्फ तीन जातियां ऐसी हैं, जिनकी आबादी दो फीसदी से ज्यादा है। लेकिन इन दो फीसदी वाली जातियों के साथ साथ बाकी जातियां भी अपने प्रतिनिधत्व के लिए लड़ रही हैं। देश के कई राज्यों में जातियों का राजनीतिक सशक्तिकरण पहले हो चुका है और उनकी लड़ाई सेटल हो चुकी है। लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अब जाकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व की जंग शुरू हुई है। आने वाले दिनों में हर जाति की पार्टी बनेगी। उसके नेता राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी मांगेंगे।
बहरहाल, टिकटों की घोषणा से पहले राहुल गांधी ने पटना जाकर अति पिछड़ा समुदाय के सशक्तिकरण का एक घोषणापत्र जारी किया था। चुनाव के लिए गठबंधन का घोषणापत्र बाद में जारी होगा लेकिन ईबीसी का घोषणापत्र स्वंय राहुल गांधी ने जारी किया था। सो, एक समुदाय के रूप में अति पिछड़ा को साधने का प्रयास चल रहा है। यह प्रयास दोनों तरफ से हो रहा है। 2020 के चुनाव के बाद जब सरकार बनी तब भाजपा ने नोनिया समाज से आने वाली अति पिछड़ी जाति की रेणु देवी को उप मुख्यमंत्री बनाया था। भाजपा की ओर से लगातार इस बात का प्रचार किया जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अति पिछड़ी जाति से आते हैं। चूंकि यह समुदाय एक समरूप समाज नहीं है इसलिए इनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार को इसका लाभ मिलता रहा है। अब लालू यादव परिवार और कांग्रेस की ओर से भी इस समूह पर दांव खेला जा रहा है।
इसके अलावा अति पिछड़ी जातियों को भी हर जाति की आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का काम हो रहा है। यह भी नीतीश कुमार की कराई जाति गणना का नतीजा है कि हर जाति अपने लिए विधानसभा चुनाव में टिकट मांग रही है और पार्टियों की मजबूरी हो गई है कि वे टिकट बंटवारे में विविधता लाएं। लगभग सभी पार्टियों ने टिकट बंटवारा करने के बाद जो सूची जारी की उसमें उम्मीदवारों की जाति बताई। उप जातियों का भी जिक्र किया। नीतीश कुमार की पार्टी ने अपनी सूची में अपने आधार वोट यानी कोईरी, कुर्मी और धानुक को सबसे ज्यादा सीटें दीं और उसके बाद पार्टी ने अत्यंत पिछड़ी जातियों में से जिस जाति को जितनी सीटें दीं उसका जिक्र अलग से किया। कहा जा सकता है कि सामाजिक स्तर पर एकजुट रहे जातीय समूहों को राजनीतिक लाभ हानि के लिए अलग अलग समूहों में विभाजित किया जा रहा है। इसकी वजह से आने वाले दिनों में जाति आधारित पार्टियों का विस्फोट होना है। अभी बिहार में यादव, कोईरी, कुर्मी, तांती, पासवान, मांझी आदि की पार्टी बन गई है। आने वाले समय में और भी जातियों की पार्टियां बनेंगी।


