बिहार विधानसभा का चुनाव एक तरफ, जहां जातियों के आधार पर बंटा हुआ दिख रही है वही दूसरी ओर प्रबंधन और प्रचार पर टिका हुआ भी है। जन सुराज पार्टी बना कर राजनीति में उतरे चुनाव प्रबंधन के माहिर खिलाड़ी प्रशांत किशोर ने बिहार की पार्टियों और नेताओं को दिखाया कि कैसे प्रबंधन के जरिए, मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए कम समय में लोगों की सोच को प्रभावित किया जा सकता है। उन्होंने प्रबंधन और प्रचार के जरिए बिहार के लोगों की इमेजिनेशन को कैप्चर किया। चुनाव नतीजा क्या होगा, वे कितनी सीटें जीतेंगे, उन्हें कितना वोट मिलेगा यह अलग बात है लेकिन बिना मजबूत जातीय आधार के या किसी टूलकिट की मदद से कोई आंदोलन खड़ा किए बगैर उन्होंने लोगों की सोच और राजनीतिक चर्चाओं में अपनी जगह बनाई। उन्होंने बिहार के मुद्दे उठाए और दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ कि बिहार चुनाव में इनकी बात हुई। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पलायन को लेकर चर्चा हुई।
जब प्रशांत किशोर के उठाए मुद्दों पर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की डबल इंजन की सरकार घिरने लगी तो जातीय, सामाजिक ध्रुवीकरण के मुद्दों के साथ साथ सरकारी फंड से चुनाव चुनाव प्रबंधन का काम शुरू हुआ। प्रधानमंत्री मोदी, जिसे मुफ्त की रेवड़ी कहते थे वह बिहार जैसे गरीब राज्य में ऐसे बंटी जैसे और कहीं नहीं बंटी। चुनाव से पहले सरकार ने खजाना खोल दिया। महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए भेजे गए। सामाजिक सुरक्षा पेंशन को चार सौ से बढ़ा कर 11 सौ रुपया महीना कर दिया गया। 125 यूनिट बिजली फ्री कर दी गई। किसी समूह को 25-25 हजार रुपए टैबलेट खरीदने के लिए दिए गए तो किसी समूह को 10-10 हजार रुपए स्मार्टफोन के लिए दिए गए। सरकार की योजना में सहयोग देने के लिए नियुक्त किए गए हर समूह का मानदेय दोगुना कर दिया। पत्रकारों की पेंशन भी छह से बढ़ा कर 15 हजार रुपए कर दी गई। कोई 60 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की योजनाएं सरकार ने चुनाव से दो महीने पहले घोषित कर दी।
बिहार में नीतीश कुमार 20 साल से मुख्यमंत्री हैं। करीब नौ महीने के लिए उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन तब भी सत्ता उनके हाथ में थी। उधऱ 11 साल से ज्यादा समय से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है। तभी बिहार की समस्याओं को लेकर जनता के मन में दोनों को लेकर सवाल हैं। यह सही है कि नीतीश को उखाड़ फेंकने वाला गुस्सा नहीं है लेकिन मतदाता के मन में थकान और ऊब जरूर है, जिसे नकद पैसे या मुफ्त की वस्तुएं और सेवाएं बांट कर दूर किया जा रहा है। मुफ्त की सेवाओं और वस्तुओं के सहारे सत्ता विरोध की भावना को कम किया गया है।
मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर भी चुनाव प्रबंधन का ही हिस्सा था। चुनाव आयोग कुछ भी कहे लेकिन 69 लाख लोगों का नाम कटना मामूली नहीं है। इसमें ज्यादातर नाम ठीक तरीके से कटे हो सकते हैं लेकिन इसके सहारे यह मैसेज बनवाया गया कि सरकार घुसपैठियों को बरदाश्त नहीं करेगी और उनकी पहचान करके उनके नाम वोटर लिस्ट से काटे जा रहे हैं ताकि वे सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं ले सकें और सरकार चुनने में उनकी कोई भूमिका नहीं रहे। सरकार में होने के कई और लाभ सत्तारूढ़ दल या गठबंधन को मिलते हैं। अधिकारियों की पोस्टिंग से लेकर सरकारी योजनाओं के जरिए लोगों की नाराजगी दूर की जाती है। यह काम सरकार ने किया है। चुनाव से पहले एक एक करके सारे आयोग और निगमों में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति की गई। उसके सहारे भी सत्तारूढ़ गठबंधन के दलों के नेताओं की नाराजगी दूर की गई। जातीय समीकरण को साधा गया। इसके बाद जब चुनाव आया तो मीडिया, सोशल मीडिया के बंदोबस्तों के साथ साथ प्रधानमंत्री सहित बड़े बड़े नेताओं के प्रचार की कारपेट बॉम्बिंग, पन्ना प्रमुख, बूथ प्रबंधन, पैसे और साधनों के सहारे चुनाव के प्रबंधन का काम चल रहा है।


