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जाति की राजनीति ही जीती

बिहार में अगर एक तरफ ‘मुफ्त की रेवड़ी’ की बहार थी तो दूसरी ओर जाति राजनीति का दांव था। इसे भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू ने दोनों को बराबर साधा। सरकारी खजाने से नकद पैसे और मुफ्त की सेवाएं बांट कर सरकार के प्रति बन रही नाराजगी को दूर किया गया। यह एनडीए के रास्ते की सबसे बड़ी चुनौती थी कि नीतीश कुमार की सत्ता 20 साल की हो गई और लगातार 20 साल सरकार में रहने की वजह से कहीं न कहीं लोगों में नाराजगी है या थकान और उब है। इसको दूर करने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया गया।

सामाजिक सुरक्षा पेंशन बढ़ा कर चार सौ से 11 सौ रुपए की गई और 125 यूनिट बिजली फ्री कर दी गई। इसके बाद चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री महिला उद्यमी योजना के तहत महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए डाले गए। असल में इन तमाम योजनाओं के जरिए नीतीश या मोदी को कोई नया वोट नहीं जोड़ना था। उनको अपने पुराने वोट को साथ में बनाए रखना था। उनको पता था कि यह वोट जातिगत आधार पर या वैचारिक रूप से राजद के खिलाफ है। लेकिन वह घर न बैठे या नाराज होकर दूसरी तरफ न जाए इसलिए ये योजनाएं चलाई गईं और अंत में इनका लाभ मिला।

परंतु ये तमाम योजनाएं पूरक की तरह थीं। असली खेल जाति की राजनीति का था। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि बिहार विधानसभा का यह चुनाव जाति गणना के बाद का पहला चुनाव था। जाति गणना में बिहार में जातियों की जो संख्या पता चली उसके बाद सारी जातियां अपनी संख्या के हिसाब से राजनीति में हिस्सेदारी के लिए तैयार हो गईं। कह सकते हैं कि यह नीतीश कुमार की योजना का हिस्सा था, जो उन्होंने जातियों को इतना बिखरा दिया। चूंकि इन जातियों के पास पहले से नेता नहीं थे तो स्वाभाविक रूप से नीतीश कुमार उनके नेता हुए। इसका कारण यह है कि सामाजिक स्तर पर कमजोर और कम आबादी वाली पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का टकराव यादव के साथ है। सो, पिछले 20 साल से जिस फॉर्मूले पर नीतीश कुमार राजनीति कर रहे थे उसी फॉर्मूले को उन्होंने आगे बढ़ाया।

तमाम गैर यादव पिछड़ी जातियों और अत्यंत पिछड़ी जातियों को एकजुट किया और उसमें दलित व भाजपा के समर्थन से अगड़ी जातियों को जोड़ा। याद करें कैसे नीतीश कुमार 1994 में जब लालू प्रसाद से अलग हुए थे तब उन्होंने गैर यादव पिछड़ी जातियों में कोईरी, कुर्मी और धानुक की करीब 10 फीसदी आबादी का एक समीकरण बनाया था। आज तक यानी 30 साल बाद भी वह समीकरण काम कर रहा है। इसी तरह नरेंद्र मोदी के दिल्ली आने के बाद से हर चुनाव में बिहार में बताया जाता है कि वे अति पिछड़ी जाति से आते हैं। सो, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के नाम पर गैर यादव पिछड़ा व अति पिछड़ा को साथ रखना बहुत आसान हो गया।

दूसरी ओर समस्या यह है कि राष्ट्रीय जनता दल अपने मुस्लिम और यादव यानी माई समीकरण से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। यह लालू प्रसाद यादव के समय से ही शुरू हुई समस्या है। जब 1990 में वे मुख्यमंत्री बने तो वे गरीबों के मसीहा थे। उसके बाद 1995 में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आए तो पिछड़ों के नेता हुए और उसके बाद वे मुसलमानों और यादवों के नेता बन गए। तेजस्वी यादव लाख कोशिश करके भी इससे आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उन्होंने बार बार ए टू जेड का समीकरण बनाने की बात कही लेकिन यह एक सांस्थायिक प्रयास नहीं था। उनको लगता रहा कि वे चुनाव में टिकट दे देंगे तो जातियों का वोट उनको मिल जाएगा। इस उम्मीद में उन्होंने इस बार टिकटों में विविधता लाने का प्रयास किया। लेकिन जातियों को साधना इतना आसान नहीं होता है। उनकी अपनी जाति यानी यादव अभी तक इस माइंडसेट से नहीं निकले हैं कि उनको सत्ता से बाहर हुए दो दशक हो गए हैं। दो बार तेजस्वी उप मुख्यमंत्री बने तो वह नीतीश कुमार की कृपा थी। यादव अपने को सत्ता का स्वाभाविक दावेदार मानते हैं, जिससे उनका जमीनी स्तर पर दूसरी जातियों के साथ स्थायी टकराव बना रहता है।

तभी कह सकते हैं कि अंत में जीत उस गठबंधन की हुई, जिसके पास जातियों का बड़ा समीकरण था। नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के गुलदस्ते में सभी गैर यादव पिछड़ी जातियां हैं और इस बार चिराग पासवान व जीतनराम मांझी के होने से लगभग पूरा ही दलित समुदाय भी था। सवर्ण एनडीए के स्वाभाविक मतदाता हैं। सो, मुस्लिम और यादव के 32 फीसदी वोट के मुकाबले दूसरी ओर करीब 66 फीसदी वोट का समीकरण था, जिसमें गैर यादव हिंदू पिछड़ा 10 फीसदी, हिंदू अति पिछड़ा 26 फीसदी, दलित 20 फीसदी और सवर्ण 10 फीसदी हैं। तभी एनडीए को लगभग 48 फीसदी वोट मिलना बहुत हैरान करने वाला नहीं है। लोकसभा चुनाव में एनडीए को 47 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट आया था। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि महागठबंधन को लोकसभा में जो 38 फीसदी वोट मिला था वह उसको बनाए नहीं रख सका। इसमें थोड़ी सी ही सही लेकिन कमी आ गई।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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