जरा हजार साला भारत इतिहास को याद करें! दिल्ली की सत्ता, बादशाहों, गवर्नर जनरलों को ललकारने वाले कितने ‘बुद्धिमान’ हुए? अर्थात दिल्ली के श्रेष्ठि-अमीर और लेखक, विद्वान वर्ग में कितने लोग बादशाह हुकुम से भिड़ने वाले हुए? याद करें इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय को? क्या तब निर्भयी बुद्धि की मशालें थीं? तब भी लुटियन दिल्ली के “काले कौवों” की जमात का सत्य खुला कि– झुकने के लिए कहा था और रेंगने लगे!
यही शशि थरूरों का, भारत का सार है। सत्तावान की आरती उतारना, उसके साथ फोटो खिंचाना, उससे कुछ खैरात, कोई ओहदा पाना देश का एक सामान्य ज्ञान है वही बुद्धिजीवियों का बौद्धिक विलास भी। ऐसा नहीं है कि जो सत्ता में बैठा है या भारत का प्रधानमंत्री है उसमें ऐसी ललक नहीं होती।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं के प्रायोजनों का प्राथमिक मकसद भी यह होता है कि वे व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप से मिल रहे हैं तो ऐसी फोटो हो जाए, जिसे दिखवा कर वे भारत की जनता में अपनी मार्केटिंग कर सकें! भारत के प्रधानमंत्री को भी विदेशी नेता, महाशक्ति देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के साथ फोटो चाहिए। उसके आभामंडल में अपना आभामंडल बने, यह अनुकंपा चाहिए तो साथ ही छोटे-छोटे ऐसे स्वार्थ भी चाहिए कि हमारे अडानी का यह कर दो या जरा अंबानी पर मेहरबानी रखें!
शशि थरूर और सत्ता के बुद्धिजीवी
सोचें, गुलाम नबी आजाद को क्या मिला? जिसने चालीस साल गांधी-नेहरू परिवार से हर दिन मलाई खाई, उनकी आंखों में नरेंद्र मोदी की कृपा पाने के लिए किस स्वार्थ में आंसू निकले? कर्नाटक में एक कांग्रेस बुर्जग नेता एसएम कृष्णा हुआ करते थे। वे शायद अपने दामाद सिद्धार्थ (जिसने आयकर के भ्रष्टाचार से तंग आ कर आत्महत्या की) को बचाने के लिए मोदी के शरणागत हुए थे। लेकिन क्या पाया? पंजाब के कैप्टेन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ हों या हरियाणा में बीरेंद्र सिंह, इन्होंने जीवन भर कांग्रेस से मलाई खाई और अंत समय भाजपा में जाकर क्या पाया?
लुटियन दिल्ली में बुद्धिजीवियों, थिंक टैंकों, इनके समिट से जुड़े तमाम तरह के मीडिया घरानों, मालिकों-संपादकों-लेखकों, बुद्धिजीवियों की दशा पर गौर करें? याद करें कैसे ‘इंडिया टुडे’ के मालिक अरूण पुरी ने अपने कथित बौद्धिक प्रायोजन में प्रधानमंत्री से दुकान चला देने की विनती की थी और नरेंद्र मोदी ने कहा भी कि चलो आज तुम्हारी दुकान चलवा देते हैं!
कोई बताए कि इन सबकी दुकानें ग्यारह वर्षों में बरबाद हुई हैं या चली हैं? भारत में एक अडानी-अंबानी और मोनोपॉली बनाए बड़े दस-बीस घरानों के अलावा कौन फला-फूला है?
अहम बात बुद्धिजीवियों की है! उन शशि थरूर और उनके सहयात्रियों की है जिनकी उर्वरता फिलहाल ऑपरेशन सिंदूर में खिली दिख रही है। इन्हें क्या मिलेगा? मेरा मानना है ये नरेंद्र मोदी के दरबार में अकबर के नवरत्नों जैसी हैसियत कतई नहीं पा सकते हैं? इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी के सिंदूर राज में बीरबल की भी गुंजाइश नहीं है! जहां शासन की जगह भाषण, विचार की जगह लाठी,, सूत्र की जगह जुमले और बहादुरी के नाम पर सिंदूर है वहां कांव-कांव के तराने गाने वालों को क्या मिलेगा? वही जो कौवों को मिलता है! क्या नहीं?
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