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27-06-2025 Vol 19

इमरजेंसी की गलतियों का सबक

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इमरजेंसी के बाद आए चुनाव नतीजों के बाद भारत के नेताओं ने यह सबक गांठ बांधा है कि बिना इमरजेंसी लगाए सत्ता का नियंत्रण अपने हाथ में रखना है। इमरजेंसी के बाद 50 साल में इसके अलग अलग तरीके निकाले गए हैं। इमरजेंसी में जिन कामों की गलती माना गया वो सारे काम आज लोकतांत्रिक तरीके से हो रहे हैं। बिना इमरजेंसी लगाए कि ऑल पावरफुल प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ का सिद्धांत आ गया। सब कुछ वहां से तय होगा। सारे मंत्री पीएमओ को एजेंडे पर अमल करेंगे। कैबिनेट की बैठकों में कोई बहस या वाद विवाद नहीं होगा। प्रधानमंत्री कार्यालय या कैबिनेट सचिवालय की ओर से जो एजेंडा रखा जाएगा सबको उस पर हां करना है। कैबिनेट की मंजूरी के बाद कोई बिल संसद में पेश करना है तो सत्तापक्ष के हर सांसद को उसके पक्ष में बोलना है।

कोई भी सांसद गलती से भी उसमें कोई कमी नहीं निकाल सकता है या उसके खिलाफ नहीं बोल सकता है। इमरजेंसी के समय विपक्षी नेता राजनीतिक मामलों में मीसा लगा कर गिरफ्तार किए गए थे। अब उनके खिलाफ आर्थिक अपराध के आरोप लगाने हैं और ईडी भेज कर उनको गिरफ्तार कर लेना है या गिरफ्तारी की तलवार लटका देनी है। ईडी के अधिकार ऐसे हैं कि अगर उसने किसी पर धन शोधन का आरोप लगा दिया तो आरोपी को यह साबित करना होगा कि उसने धन शोधन नहीं किया है या अवैध कमाई नहीं की है। सबूत पेश करने की जिम्मेदारी आरोपी की होती है, एजेंसी की नहीं।

मीडिया को नियंत्रित करने के लिए अब उनकी प्रिटिंग प्रेस जब्त कराने या उनके प्रेस की बिजली काटने की जरुरत नहीं है। अब दूसरे बहुत सारे टूल्स हैं, जिनमें एक टूल ईडी भी है। कुछ समय पहले एक बड़े और नामी चैनल के मालिक पति-पत्नी के खिलाफ आर्थिक अपराध के आरोप लगे। उनके चैनल पर छापा मारा गया। पति-पत्नी दोनों विदेश जा रहे थे तो उनको जहाज से उतार लिया गया। फिर एक दिन देश के जगत सेठ ने उनका चैनल खरीद लिया। उसके बाद सारे मुकदमे पता नहीं कहां चले गए। पति-पत्नी दोनों आराम से रिटायर जीवन जी रहे हैं और जगत सेठ का चैनल सरकार के गुणगान कर रहा है। यह सिर्फ एक मॉडल है। ऐसे और भी कई मॉडल हैं, जिनके जरिए मीडिया की नकेल कस दी गई। अलग अलग तरीकों का इस्तेमाल करके छोटे छोटे अखबार, पत्रिकाएं और चैनल बंद करा दिए गए। मीडिया का केंद्रीकरण कर दिया गया। दो चार बड़े सेठों के हाथ में मीडिया की कमान चली गई। उन सेठों के अलग अलग कारोबार हैं। वे मीडिया के जरिए अपने कारोबार बचाते हैं और सरकार की जय जयकार करते हैं। सोचें, कैसा सह अस्तित्व का सिद्धांत है! जियो और जीने दो!

राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं तो उनको कंट्रोल करने के भी नए उपाय निकाल लिए गए हैं। पहले उनकी सरकारें बरखास्त होती थीं। अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होता था। लेकिन अब अनुच्छेद 356 तो शायद ही कही लगाया जाता है। विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में ऐसे राज्यपाल भेज दिए जाते हैं, जो समानांतर सरकार चलाने लगते हैं। राजभवन की सक्रियता से परेशान सरकारें सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाती हैं। कुछ मामलों में राहत मिल जाती है लेकिन ज्यादातर मामले राजनीतिक होते हैं, जिनमें अदालतें कुछ नहीं कर सकती हैं। इन दिनों विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों के राज्यपाल कानून व्यवस्था से लेकर गरीबों की स्थिति पर बारीक नजर रखते हैं। वे मीडिया में सरकार विरोधी माहौल बनवाते हैं।

इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में जस्टिस हंसराज खन्ना से जूनियर जस्टिस एमएच बेग को चीफ जस्टिस बना दिया था। अब उस तरह के काम करने की जरुरत नहीं है। अब पद और लाभ की गाजर स्थायी रूप से लटका दी गई है। सरकार के हिसाब से फैसला देने वाले जजों को राज्यसभा में मनोनीत कर दिया जा रहा है या राज्यपाल बना दिया जा रहा है। अब आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देने की जरुरत नहीं है।  जज खुलेआम न्याय की कुर्सी पर बैठ कर सांप्रदायिक बयान देते हैं, विपक्षी पार्टियों की सरकारों को बदनाम करते हैं और इस्तीफा देकर भाजपा की टिकट से चुनाव लड़ जाते हैं। सांप्रदायिक बयान देने वाले जजों पर न्यायपालिका की आंतरिक कार्रवाई रूकवा दी जाती है। इमरजेंसी के समय ऐसे काम होते थे तो बड़ी आलोचना होती थी लेकिन अब यह सब काम बेहद लोकतांत्रिक तरीके से किया जा रहा है। और इस सबकों अमृतकाल का अमृत समझा जा रहा है!

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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