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चुनाव में सस्पेंस क्या?

चुनाव में सस्पेंस क्या?

सभी बता रहे हैं चुनाव बिना माहौल के है। न रोमांच है, न उत्साह है, न रंग है, न शोर है और न परिणामों को ले कर सवाल है। तब भला चुनाव 2024 का सस्पेंस क्या? हालांकि नरेंद्र मोदी का विशाल ऐलान है कि चार जून को उन्हें 400 पार सीटें मिलेंगी। मेरे हिसाब से नरेंद्र मोदी का यह विश्वास आत्मघाती है क्योंकि मेरा मानना है कि तीन सौ पार हो जाए तो बड़ी बात। दूसरी बात, चार सौ पार का आकंड़ा प्रधानमंत्री पद, पार्टी और भारत तीनों के लिए अपशुकनी है। याद करें राजीव गांधी को। Lok Sabha election 2024

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400 सीटों से पार की जीत से वे प्रधानमंत्री बने थे। क्या हुआ? उटपटांग फैसले हुए। राजीव गांधी की हत्या हुई। कांग्रेस का भट्ठा बैठा। देश में शाहबानो, बाबरी मस्जिद, शिलान्यास जैसे वे विग्रह पैदा हुए जिससे, राजनीति-देश की शक्ल ही बदल गई। और कल्पना करें कि मोदी के 400 चार सौ पार के बाद कैसे-कैसे विग्रह, टकराव, बिखराव के जुनून पैदा होंगे! Lok Sabha election 2024

इसलिए चुनाव दिलचस्प है, कांटे का है। सवालों से भरा हुआ है (न हो तो भी हम पत्रकारों, सुधीजनों को सस्पेंस, दिलचस्पी, लड़ाई बनवानी चाहिए अन्यथा अपना लोकतंत्र भी रूसी लोकतंत्र लगेगा)। पहला सवाल है मतदाता क्या 400 सीटों की सुनामी से पहले का सन्नाटा बनाए हुए हैं? क्या सुनामी आ रही है? तब क्या ये चुनाव भी नरेंद्र मोदी-भाजपा के पतन का वैसा ही हस्र बनवाने वाले होंगे जैसे 1984 में छप्पर फाड़ जीत से राजीव गांधी और कांग्रेस का शुरू हुआ था? यह भी सस्पेंस है कि जब चुनाव ठंडा, फीका माहौल लिए हुए है तो 2014 व 2019 से भी अधिक रिकॉर्ड तोड़ मतदान होगा? क्या भाजपा के नए और कांटे के पुराने प्रदेशों में (तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार) मोदी को वोट देने के जुनून में नया मतदान रिकॉर्ड बनेगा? भाजपा के गढ़नुमा प्रदेशों में ठंडे माहौल में कम मतदान से भाजपा की सीटों पर क्या असर होगा?

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ध्यान रहे मतदाताओं के जोश या उदासीनता से हमेशा ज्यादा या कम मतदान के रिकॉर्ड बनते हैं और नतीजे गड़बड़ाते हैं। जैसे 2019 में जिन प्रदेशों में (उत्तर प्रदेश 60 फीसदी, मध्य प्रदेश 73, गुजरात 69, राजस्थान 68, असम 88, झारखंड 69, दिल्ली 68, हरियाणा 74, हिमाचल प्रदेश 80, झारखंड 69, उत्तराखंड 64 फीसदी मतदान) रिकॉर्ड तोड़ मतदान था और भाजपा को 224 में से 197 सीटें मिली थीं वहां यदि इस दफा बेजान-उदासीन माहौल में पांच से 10 प्रतिशत मतदान कम हुआ तो वोट घटना भाजपा के लिए खराब होगा या विपक्ष के लिए? घरों से नहीं निकलने वाले वोट कौन से होंगे? Lok Sabha election 2024

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मुसलमान, दलित, आदिवासी, गरीब और नौजवान कम वोट डालेंगे या शहरी मध्य वर्ग? मतलब मोदी भक्त बनाम मोदी विरोधियों में किसमें वोट डालने का निश्चय कम या अधिक होगा? जहां जात-पांत, ग्राउंड रियलिटी मुकाबले, उम्मीदवार के खिलाफ नाराजगी या बराबरी में कांटे की लड़ाई है, जहां लोकल कारणों पर चुनाव है (जैसे पहले चरण की राजस्थान में चुरू, दौसा, बाडमेर, झुंझून, नागौर, श्रीगंगानगर या मध्य प्रदेश में छिंदवाड़ा, राजगढ़, मंडला, झाबुआ, मुरैना, जम्मू में उधमपुर, यूपी में सहारनपुर, मुजफ्फनगर, रामपुर, बिहार में जमुई, जम्मू में उधमपुर) तो वहां मतदान की ऊंच-नीच में किसका नफा-नुकसान है?  

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तय मानें नरेंद्र मोदी-अमित शाह का पुराने रिकॉर्ड मतदान के जीत वाले प्रदेशों में कम मतदान पर भी जीत का भरोसा है। और इनकी बजाय फोकस बिहार (2019 में मतदान 58 फीसदी), महाराष्ट्र (64 फीसदी), कर्नाटक (71 फीसदी) तथा पश्चिम बंगाल (2019 में 79 फीसदी- भाजपा की तब 18 सीटें व 2014 में 82 फीसदी मतदान व भाजपा की तीन सीट) की कोई 158 की सीटों पर है ताकि 2019 में भाजपा को मिली 83 सीटें बचे ही नहीं, बल्कि सहयोगियों के साथ 120-130 सीटें हो जाए ताकि 273 सीटों का आंकड़ा आसानी से पार हो। 

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तभी कल्पना करें इन निर्णायक राज्यों में क्या मतदान 2019 के मुकाबले अधिक होगा? भाजपा और उसके सहयोगियों की सीटें बढ़ेंगी या घटेंगी?

सो, 19 अप्रैल की शाम से मतदान के पहले राउंड के आंकड़ों से नतीजों का सस्पेंस बढ़ना है! कोई आश्चर्य नहीं होगा कि मतदान के हर राउंड के साथ नरेंद्र मोदी-अमित शाह का पसीना ज्यादा बहता हुआ दिखे और आम चुनाव सचमुच रोचक अनहोना हो जाए।

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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