यों मोदीजी और संघ दर्शन के चिंतक कह सकते हैं कि सरकार गरीबों को पैसा, राशन आदि बांटकर खजाना लुटा दे रही है, इसलिए 1947 से पहले वंदे मातरम् के साथ जन-गण की चिंता के संकल्प को सरकार पूरा करने में सौ टका खरी है। सो गांधी के सच्चे अनुयायी प्रधानमंत्री मोदी हैं, जिन्होंने जनधन खाते खुलवाकर गरीब के खाते में पैसा पहुंचाया। हां, गांधी ने अंतिम व्यक्ति के कल्याण को ‘सबसे बड़ी नीति कसौटी’ कहा था। इसी में भक्त दलील देंगे कि मोदी सरकार ने गरीब को ‘लाभार्थी’ तो बनाया। ‘अंतिम व्यक्ति’ का ‘अंत्योदय’ हुआ। सबके बैंक खाते हैं, हाथों में मोबाइल हैं।
पर पता है अंत्योदय, लाभार्थी भीड़ कैसी दशा में है? कितनी भूखी, लावारिस, असुरक्षित और असमानता की मारी है?
बुधवार को ही विश्व असमानता रिपोर्ट आई है। असमानता के ताज़ा भारत आंकड़े फिर जाहिर हुए। भारत के एक प्रतिशत (सिर्फ एक प्रतिशत) करोड़पतियों–अरबपतियों–खरबपतियों का देश की 40 प्रतिशत धन-संपदा पर कब्ज़ा है। जाहिर है भारत अब दुनिया के सर्वाधिक असमान देशों में है। टॉप की दस प्रतिशत आबादी को 58 प्रतिशत राष्ट्रीय आय मिलती है, वहीं गांधी के अंतिम व्यक्ति वाली 70 प्रतिशत आबादी के हिस्से केवल 15 प्रतिशत आय आती है। इस असमानता को और वर्गीकृत करें तो टॉप की दस प्रतिशत आबादी के घर-परिवारों के पास भारत राष्ट्र की 65 प्रतिशत धन-संपदा है।
यह स्थिति ‘वंदे मातरम्’ की माटी के अंतिम व्यक्ति, यानी नब्बे प्रतिशत आबादी की भीड़ की ज़िंदगियों का दो-टूक आईना है। इसी में वे लाभार्थी हैं, जिनके घरों में सरकारें दो, चार, पांच, दस हज़ार रुपए की खैरात और राशन से रामराज्य आया समझती है।
क्या बंकिम, टैगोर, अरविंद, गांधी, नेहरू ने ऐसे ही भारत की कल्पना करते हुए ‘वंदे मातरम्’ गाया था? ध्यान रहे, स्वतंत्रता से पहले गांधी भले सेठ घनश्यामदास बिडला के यहां ठहरते रहे हों, उन्होंने स्वदेशी सेठ का चंदा–आतिथ्य भी लिया, मगर उनके रामराज्य आईडिया में या नेहरू के समाजवाद आईडिया में कॉरपोरेट कैपिटलाइज़ेशन से भारत की अमीरी या ‘विकसित भारत’ होने की ख़ामख़याली रत्ती भर नहीं थी, जैसी की अब मोदी सरकार में है। नेहरू ने टाटा, बिड़ला को चलने दिया। उनके कारोबारों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया, मगर उन पर नियंत्रण भी रखा। उनके विकल्प में सरकारी प्रतिष्ठान व कारखाने बनाए।
जबकि 2014 से क्या हो रहा है? एक तरफ भारत को पराश्रित बाज़ार बनाया गया, वहीं सरकार ने अडानी–अंबानी, यानी एक प्रतिशत लोगों को व्यापार, ठेके–धंधे देने और दिलाने में प्रो-एक्टिव होकर क्रोनी पूंजीवाद गहरा पैठाया। नेहरू की यह नीति नहीं थी कि राशन बांटकर गरीबों को चुप कराओ और बिड़ला–टाटा को राष्ट्र की संपदा सौंपते जाओ, या विदेश यात्राओं में बिड़लाओं के सौदे करवाओ, माइंस, पोर्ट, तेल के करार करवाओ। तभी वंदे मातरम् के मौजूदा दौर में खरबपतियों की तूती है, वहीं अंतिम व्यक्ति के हिस्से में रेवड़ी और झूठ है।
वंदे मातरम् के असल दौर में स्वतंत्रता संघर्ष के साथ अंतिम व्यक्ति की गरिमा, रोज़गार की चिंता थी। उसी के व्रत में स्वदेशी की ज़िद थी। गांधी चरखा कातते थे। तब अंतिम व्यक्ति केंद्र में था और हिंदुस्तान की पहचान में आम हिंदुस्तानी जनता थी—न कि बिड़ला–टाटा।


