आपने नरेंद्र भाई के विदेश भ्रमण पर कभी शोरशराबा नहीं सुना होगा। मगर राहुल सामान्य विमान सेवाओं की उड़ानों से भी कांग्रेस के कामकाज संबंधी या निजी विदेश यात्राएं कर लें तो हंगामा बरपने लगता है। अगर नरेंद्र भाई लोकसभा में 240 सदस्यों वाले राजनीतिक दल के नेता हैं तो राहुल की कांग्रेस के पास भी तो वहां 100 सदस्य हैं। अगर भाजपा के राज्यसभा में 103 सदस्य हैं तो कांग्रेस के भी 27 तो हैं ही।
प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी अगले हफ़्ते की शुरुआत में जर्मनी जा रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी पिछले तीन-चार दिनों से हल्ला मचाए हुए है कि हाय-हाय राहुल फिर विदेष जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी भी सोमवार को जॉर्डन, इथियोपिया और ओमान की यात्रा पर जा रहे हैं। मगर उन की यात्रा को ले कर तो कोई हल्लागुल्ला सुनाई नहीं दे रहा है। नरेंद्र भाई अगर सरकारी काम से परदेस जाएं तो किसी को क्यों कोई ऐतराज़ होना चाहिए? इसी तरह अगर राहुल कांग्रेस पार्टी के समुद्रपारीय-प्रभाग के काम से जर्मनी या कहीं जाएं तो किसी को क्यों आपत्ति करनी चाहिए?
लेकिन अगर भाजपा राहुल की हर गतिविधि में मीनमेख न निकाले तो उस के रात-दिन कैसे कटें? सो, राहुल की जर्मनी यात्रा का ज़िक्र तो उबाल पर है मगर नरेंद्र भाई की मध्य-पूर्व और अफ्रीका के सफ़र की चर्चा आराम से सुस्ता रही है। राहुल के हर विदेशगमन को रहस्यमयी आवरण में लपेटने को आतुर संघ-कुनबा नरेंद्र भाई के परदेसगमन के पीछे का यह राज़ किसी को कभी नहीं बताता है कि उन की ऐसी हर ‘सरकारी’ यात्रा के बाद उन के किन-किन ‘निजी’ मित्रों के कारोबार फलने-फूलने लगते हैं।
अगर भाजपा की मानें तो 2004 में सांसद बनने के बाद से राहुल गांधी अब तक तक़रीबन 350 विदेश यात्राएं कर चुके हैं। यानी वे हर साल औसतन 31 बार विदेश जाते हैं। इस का मतलब तो यह हुआ कि राहुल हर महीने क़रीब तीन बार विदेश कूच कर जाते हैं। क्या आप को सचमुच लगता है कि वे हर दसवें-बारहवें दिन परदेस रवाना हो जाते होंगे? 2019 में स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप के बारे में संसद में पेश एक विधेयक पर चर्चा के दौरान गृह मंत्री अमित भाई शाह ने कहा था कि 2015 से 2019 के बीच चार साल में राहुल ने 247 विदेश यात्राएं की हैं। मेरे गले तो यह बात नहीं उतरती है कि राहुल हर छटे दिन भारत से बाहर जाते रहे होंगे। आप के भेजे में अमित भाई का यह दावा पैठता है क्या?
अगले सप्ताह नरेंद्र भाई जब परदेस से लौटेंगे तो 11 बरस में 97 बार विदेश जा चुके होंगे, 79 देशों की धरती छू चुके होंगे और कुल मिला कर 198 दिन भारत से बाहर रह चुके होंगे। यानी प्रधानमंत्री बनने के बाद से वे हर साल क़रीब 9 बार विदेश गए हैं और प्रतिवर्ष 18 दिन उन्होंने विदेशों में बिताए हैं। एक प्रधानमंत्री के लिए मैं इस में कुछ भी अजीबोगरीब नहीं मानता हूं। भारत को विश्वगुरु बनाने के महती लक्ष्य को पूरा करने में लगे नरेंद्र भाई जैसे पराक्रमी प्रधानमंत्री के लिए मैं उन की विदेश यात्राओं और परदेस में बिताए गए दिनों की इस संख्या को कम ही मानता हूं।
नरेंद्र भाई के इस्तेमाल के लिए हमारी सरकार ने 84 अरब रुपए की लागत से दो विमान खरीदे थे। दो इसलिए कि जब भी नरेंद्र भाई हवाई यात्रा करते हैं तो एक विमान में वे सवार होते हैं और दूसरा विमान कुछ फ़ासले पर साथ-साथ उड़ता है ताकि अगर एक विमान में कोई तकनीकी खराबी आ जाए तो सहायक-विमान फ़ौरन हमारे प्रधानमंत्री को ले कर अपनी मंज़िल की तरफ़ रवाना हो जाए। 2020 से ये विमान उपयोग में आने षुरू हुए और तब से नरेंद्र भाई 61 बार ही विदेश गए हैं। इस हिसाब से तो प्रति विदेश-यात्रा सवा अरब रुपए से ज़्यादा तो विमानों की ही लागत पड़ गई। एक अनुमान के मुताबिक अभी तक इन दोनों विमानों ने क़रीब 4 हज़ार घंटे की उड़ानें भरी हैं। आप ही सोचिए कि दो करोड़ रुपए घंटे तो लागत-खर्च ही हो गया। ईंधन, विमान चालकों, विमानकर्मियों, वग़ैरह पर होने वाला 12 से 15 लाख रुपए प्रति घंटे का खर्च अलग है।
बावजूद इस सब के आप ने नरेंद्र भाई के विदेश भ्रमण पर कभी शोरशराबा नहीं सुना होगा। मगर राहुल सामान्य विमान सेवाओं की उड़ानों से भी कांग्रेस के कामकाज संबंधी या निजी विदेश यात्राएं कर लें तो हंगामा बरपने लगता है। अगर नरेंद्र भाई लोकसभा में 240 सदस्यों वाले राजनीतिक दल के नेता हैं तो राहुल की कांग्रेस के पास भी तो वहां 100 सदस्य हैं। अगर भाजपा के राज्यसभा में 103 सदस्य हैं तो कांग्रेस के भी 27 तो हैं ही। लोकसभा में भाजपा और उस के सहयोगी दलों -एनडीए- के 293 सदस्य हैं तो कांग्रेस और उस के सहयोगी दलों -इंडिया समूह- के भी 234 सदस्य हैं। सत्तापक्ष से सिर्फ़ 59 कम। राज्यसभा में एनडीए के 136 सदस्य हैं और इंडिया समूह के 80। देश भर की विधानसभाओं में एनडीए के 2315 विधायक हैं तो इंडिया समूह के पास भी 1430 विधायक हैं।
इस लिहाज़ से प्रतिपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री के बीच संसद और विधानसभाओं में शक्ति असंतुलन कोई लंबा-चौड़ा नहीं है। जनतंत्र के रथ का एक पहिया अगर सत्तापक्ष है तो दूसरा विपक्ष है। दोनों ही कोई मज़ाक का विषय नहीं हैं। अब से ग्यारह बरस पहले दोनों की ही गरिमा यक-सी थी। यह तो इस ‘मोशा’-दशक में हुआ है कि समूचे विपक्ष को मसखरा और ख़ुद को माननीय-सम्माननीय साबित करने के लिए दिन-रात एक हो रहे हैं। आप को लगते हों, न लगते हों, मुझे तो राहुल की विदेश यात्राओं का मखौल उड़ाने वाले और नरेंद्र भाई की यात्राओं का महिमामंडन करने वाले बेहूदी हरकतों में लिप्त लगते हैं।
राहुल में कुछ ख़ामियां हो सकती हैं, लेकिन क्या इस वज़ह से हम नरेंद्र भाई को सर्वगुणसंपन्न मान लें? हो सकता है कि 20 साल की संसदीय यात्रा में राहुल की राजनीतिक समझ उतनी विकसित न हुई हो, जितनी कि अपेक्षित थी, मगर क्या इस वज़ह से हम नरेंद्र भाई को भारतीय राजनीति का अंतिम शब्द मान लें? हो सकता है कि राहुल कांग्रेस की सांगठनिक कमज़ोरी का बीजगणित हल करने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन क्या इस वज़ह से हम ‘मोशा’-भाजपा के पलटनवाद को सियासत की अंतिम परिभाषा के तौर पर स्वीकार कर लें?
पिछले एक दशक में पूरे देश को भेड़ों के रेवड़ में तब्दील करने की बेहया-कोशिशों के विरोध में बिना विचलित हुए अनवरत खड़े रहना राहुल की अद्वितीय ख़ासियत रही है। उन का यह एक पुण्य ही उन की सारी अपूर्णताओं और तमाम नादानियों के दाग धोने को काफी है। जिन-जिन को राहुल अवगुणों का पुतला लगते हैं, वे ज़रा नरेंद्र भाई के दिल्ली आगमन के बाद के राजनीतिक परिदृश्य से राहुल का चेहरा परिलुप्त कर के देखें। अगर राहुल ने सही वक़्त पर ‘डरो मत’ का आह्वान न किया होता तो नरेंद्र भाई के पसारे वहशतनाक बादल जम्हूरी इदारों को कभी का पूरी तरह लील चुके होते।
मेरे लिए तो सब से हैरानी की बात यह है कि राहुल इतना सब बावजूद इस के कर रहे हैं कि उन की कांग्रेस में एक बेहद प्रतिगामी मकड़जाल चाहे-अनचाहे उन के आसपास ख़ासी बलिष्ठ शक़्ल ले चुका है। ऐसा मकड़जाल, जिस से उबरने में राहुल के भी छक्के कई बार छूटते-से लगते हैं। मगर मैं जानता हूं कि जिस दिन राहुल ने बदनतोड़ अंगड़ाई ली, कांग्रेस में कइयों के बदन की हड्डियां चूर-चूर हो जाएंगी। मुझे वह दिन बहुत नज़दीक नज़र आने लगा है।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।


