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‘अंतिम आबादी’ को जैम मिला तो ठगी भी!

जनधन खाते, आधार और मोबाइल यानी जैम ने लोगों का जीवन निश्चित ही बदला है। पर इन्हीं तीनों चीजों ने लाखों लोगों के जीवन को और उनकी जीवन भर की कमाई को संकट में भी डाला है। याद करें जब नोटबंदी का फैसला विफल होने लगा था और काला धन रोकने का दावा फेल हुआ तो कहा गया था कि इससे डिजिटल लेन देन बढ़ेगी। देश की अर्थव्यवस्था ज्यादा संगठित होगी। उस समय यह भी कहा गया कि लोग नकदी लेकर चलते हैं तो लूट हो जाने या छीन लिए जाने या पैसे गिर जाने का खतरा है। जबकि यदि उनके पास प्लास्टिक मनी हुई या उनके खाते को मोबाइल फोन के जरिए एक्सेस करके भुगतान हो सकेगा या पैसे निकाले जा सकेंगे या मोबाइल वॉलेट में पैसे होंगे तो छीन लिए जाने का खतरा कम होगा। लेकिन आज हालात क्या है? इसका उलटा हुआ। पहले लोगों के थोड़े से पैसे लूटे या छीने जाते थे लेकिन अब तो पूरी जमापूंजी ही गायब हो जाने का खतरा है। असंख्य लोग एक फ्रॉड काल में अपनी पूरी जमापूंजी गंवा चुके हैं।

दूसरा संकट है कि इसमें असली ठगों की जगह दूसरे ऐसे लोग फंस रहे हैं, जिनका इससे कोई लेना देना नहीं होता है। वे अनजाने में या थोड़े से लालच में ठगों के जाल में फंसते हैं और फिर मुकदमे झेलते हैं। ऐसे लोगों में कॉलेज जाने वाले छात्र, बेरोजगार इंसान, गांवों में रहने और छोटे मोटे काम करके कमाई करने वाले लोग, बुजुर्ग या नशे के आदी लोग शामिल हैं। इनको पैसे का लालच देकर ऐसे काम के लिए कहा जाता है, जो इनकी नजर में गैरकानूनी नहीं होता है। सोचें, पहले जब लूटमार या छीनझपट होती थी तो उन घटनाओं को अंजाम देने वाले गिरफ्तार होते थे। वे इस जोखिम को समझते थे इसलिए घटनाएं कम ही होती थी। लेकिन अब जो असल में लूट को अंजाम देता है वह कौन है, कहां बैठा है किसी को पता नहीं होता है। उसके काम का अंजाम दूसरे लोग भुगतते हैं। अब ठगी और लूट की ऐसी व्यवस्था बन गई है कि तकनीक की समझ रखने वाले लोग बहुत सहज तरीके से और कम जोखिम उठा कर ज्यादा लूट कर रहे हैं।

इस लूट को आम बोलचाल की भाषा में साइबर फ्रॉड के नाम से जाना जाता है। लेकिन इसके कई हिस्से हैं। एक क्रेडिट और डेबिट कार्ड का फ्रॉड है तो दूसरा मोबाइल वॉलेट से पैसे निकालने का फ्रॉड है, बैंकिंग से जुड़े फ्रॉड अलग हैं और सबसे ज्यादा चर्चा में डिजिटल अरेस्ट का फ्रॉड है। आम लोगों के लिए इसमें चिंता की बात यह होती है कि पुलिस भी तकनीक को लेकर बहुत जानकार नहीं है। बहुत देर से देश में साइबर थाने बने और साइबर क्राइम रजिस्टर्ड होने लगा लेकिन तब भी इसकी जांच करने वाले तकनीकी विशेषज्ञों की संख्या बहुत कम रही। जो ठगी करते हैं वे जांच करने वालों से मीलों आगे होते हैं। पारंपरिक ठगी और लूटमार में पुलिस अपने तरीके से अपराधियों तक पहुंच जाती है लेकिन साइबर अपराध में यह मुश्किल होता है। इसलिए साइबर अपराधियों के पकड़े जाने और लूटे गए पैसे की रिकवरी का औसत बहुत कम है।

किस तरह से आम लोगों से ठगी होती है और कैसे उसमें सीधे सादे लोग फंसते हैं यह जानना हैरान करने वाला है। सरकार ने लोगों के बैंक खाते, आधार, पैन और मोबाइल नंबर को लिंक करके उनका काम आसान बना दिया है। अगर साइबर ठग के पास किसी व्यक्ति का कोई एक नंबर है तो वह बड़ी आसानी से उसकी सारी जानकारी हासिल कर सकता है। सबको पता है कि भारत में आए दिन डाटा लीक होता रहता है, जिससे आम लोगों की सारी जानकारी ठगों तक पहुंचती है। इसके अलावा साइबर ठग लोगों के सोशल मीडिया अकाउंट्स को भी ट्रैक करते हैं। वहां से वे आसामी चुनते हैं, जिनके साथ ठगी करनी है और वहीं से ऐसे लोगों को भी चुनते हैं, जिनका ठगी में इस्तेमाल करना है। वे ऐसे लोगों का एक नेटवर्क बनाते हैं। उनको यह मैसेज दिया जाता है कि वे घर बैठे भारी भरकम कमाई कर सकते हैं। इसके लिए उनको ऑनलाइन मूवी रिव्यू करने, उसे स्टार देने या किसी उत्पाद को लाइक करने या इस तरह के छोटे मोटे काम कराए जाते हैं और बदले में कुछ पैसे भेजे जाते हैं। उनको भरोसे में लेकर उनके खातों की जानकारी ली जाती है। खातों की जानकारी दूसरी तरह से भी ली जाती है। उनके मोबाइल में थर्ड पार्टी एक्सेस ऐप डाउनलोड करा भी ऐसा किया जाता है। किसी लिंक के जरिए भी ऐसा कराया जाता है। ठगों के पास ऐसे सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों खाते होते हैं, जिन्हें म्यूल मनी अकाउंट कहा जाता है। ठगी का पैसा इन खातों में ट्रांसफर किया जाता है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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