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हम सिनेमाई साफ्टपॉवर भी नहीं रहे!

क्या आपने ‘छावा’, ‘सैयारा’ या ‘महावतार नरसिम्हा’ फिल्म देखी? मैंने नहीं देखी लेकिन हाल में के-ड्रामा का एक सीरियल ‘किंग द लैंड’ देखा। के-ड्रामा और टर्किश ड्रामा का हल्ला सुनते-सुनते मैंने कई दफ़ा कोशिश की कि इनके किसी एक सीरियल को पूरा देखा जाए। लेकिन किसी पर दिल-दिमाग नहीं टिका।

मगर “किंग द लैंड” पर टिका! क्यों? इसलिए क्योंकि उसे देखते हुए समझने लगा कि क्योंकर के-ड्रामा, टर्किश ड्रामा 27 वर्ष की औसत उम्र के 140 करोड़ लोगों के भारत में सुपरहिट हैं? वह भारत, जिसका बॉलीवुड कभी खुद प्रेम, रोमांस, ज़िंदगी के सुख-दुख, संघर्ष और सपनों से भरेपूरे ग्लैमर का भावनात्मक सॉफ्टपावर था। और अब यदि वह के-ड्रामा, टर्किश ड्रामा की गोद में है तो भला कैसे?

‘किंग द लैंड’ से मुझे अहसास हुआ कि भारत (खासकर युवा भीड़) क्योंकर भावनाओं के उपभोग का भी बाज़ार है। युवा दिलों की कहानी अब बॉलीवुड, दक्षिण भारतीय फिल्मों के बस की बात नहीं रही। अपने घर में भारतीयों की भावनाओं की भूख पूरी नहीं होती, बल्कि वह के-ड्रामा और टर्किश ड्रामा का मोहताज है।

इसलिए शनिवार को जब मैंने नया इंडिया में पंकज दुबे की फिल्म समीक्षा ‘दास्तान-ए-मोहब्बत: सैयारा’ को पढ़ा, तब मेरी यह धारणा बनी कि ‘रोमांस’ के स्थायी इमोशन में बॉलीवुड अब यदि अरसे बाद एक हिट फिल्म दे रहा है तो पहली बात यह साबित कि दक्षिण कोरिया, तुर्किए के ड्रामों में भारत का युवा दिल धड़कता हुआ है। मतलब हम भारतीय अब रोमांस की कहानी में भी विदेशी कहानी के दर्शक हैं! भारत वैश्विक सांस्कृतिक मनोविज्ञान के पर्दों से भावनात्मक संतुष्टि पाता है। भारत का सिनेमा, भारत की कहानियां अब धड़कनों से मैच नहीं करतीं।

इसलिए सैयारा का रिकॉर्डतोड़ बिज़नेस समझ आता है। मैंने फिल्म देखी नहीं है, पर पंकज दुबे की यह लाइन के-ड्रामा के फ़ॉर्मूलों पर फिल्म के बने होने का संकेत है कि— ‘सैयारा’, दरअसल ऐसे सितारे को कहते हैं जो तारों के बीच कुछ पाने के लिए भाग रहा है और अपनी चमक से दूसरों की ज़िंदगियों को रोशन भी करता जा रहा है। फिल्म के दोनों नए कलाकार कैमरे के सामने भावनात्मक दृश्यों में बेहद सहज लगते हैं। क्लाइमैक्स में वाणी को खुद का नाम याद दिलाने वाले सीन भावुक भी करते हैं।…एक सीधी सरल कहानी, दिल को छू जाने वाला संगीत, ढेर सारे इमोशनल मोमेंट्स, उम्दा निर्देशन, खूबसूरत शॉट्स और सभी कलाकारों का प्रभावशाली प्रदर्शन।

इन्हीं खूबियों से तो के-ड्रामा ने भारत की रूमानी भावनाओं का बाज़ार जीता हुआ है। सवाल है — भारत सरल कहानियां भी क्यों पर्दे पर नहीं उतार पा रहा है? बॉलीवुड, चेन्नई, हैदराबाद (कभी भाषाई फिल्में यानि बांग्ला, मलयाली, कन्नड़ सिनेमा भी) सब पुराने, आउटडेटेड क्यों हो गए?हमें मनोरंजन व भावनाओं की कहानियों, फिल्मों, सीरियलों का वैश्विक सॉफ्टपॉवर होना था या भारत की जगह तुर्की, दक्षिण कोरिया को बनना था?

तो हम बने हुए क्या हैं?

मेरा मोटा जवाब है — हम नरेंद्र मोदी बने हुए हैं!

प्रधानमंत्री मोदी ने ग्यारह वर्षों में जिन भावनाओं में भारत के दिल-दिमाग को पकाया है, वैसा ही भारत बना है। इसका फिल्में भी प्रमाण हैं। गौर करें — ग्यारह वर्षों में बाहुबली से लेकर ताज़ा रिलीज़ ‘महावतार नरसिम्हा’ जैसी फिल्मों तक!

मैंने एक तरफ सालों बाद रोमांस केंद्रित सैयारा की तारीफ़ पढ़ी, वहीं ‘महावतार नरसिम्हा’ को लेकर एक दर्शक का लिखा यह पढ़ा —“मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकता, अब तक की सबसे अच्छी फिल्म। इस शानदार फिल्म को सिर्फ सिनेमाघरों में ही अनुभव किया जा सकता है। बैकग्राउंड म्यूज़िक जबरदस्त है।”

एक और यूज़र ने लिखा — “ब्लॉकबस्टर फिल्म!”

‘महावतार नरसिम्हा’ एक एनिमेटेड फिल्म है। फिल्म में विष्णु पुराण पर आधारित चर्चित कहानी को एनिमेशन के ज़रिए दिखाया गया है, जिसमें राक्षस हिरण्यकश्यप और भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद के बीच टकराव होता है।

इससे पहले की हिट फिल्म थी ‘छावा’। छत्रपति संभाजी के बलिदान को भव्यता से दिखलाते हुए इसने दर्शकों की इस चाहना, इस अहम, इस विश्वास को तुष्ट किया कि— हम किसी से कम नहीं। हम उस इतिहास को पूरा करेंगे जो संभाजी छोड़ गए।

पते की बात यह है कि भारतीय फिल्मकार रोमांस, मनोरंजन की कहानी में दर्शकों की कसौटी पर खरे नहीं हैं।

तभी दर्शक रोमांस, भावनाओं के उतार-चढ़ाव में दक्षिण कोरियाई या टर्किश सिल्क में लिपटी उस रूमानी ‘वे ऑफ लाइफ़’ के दीवाने हैं जो अमीरी की चमक, चेहरों, ग्लैमर के तड़कों में चांद-सितारों के बीच खोए रहने के सपने लिए होती है।

इसका अर्थ है कि भारत के दर्शक अब भारत की सांसारिकता, रियलिटी से भाग, उन संस्कृतियों की भावनाओं में सुकून पा रहे हैं, जिनमें ज़िंदगी की हकीकत, कुंठाओं से अलग दुनिया का भावनात्मक सफ़र है।

सो भारत अब भावनाओं की आवश्यकता का भी बाज़ार हो गया है।

वह अपने से जुदा भावनाओं को खरीदने वाला देश है।

वह समाज नहीं रहा, बल्कि बाज़ार हो गया है — हार्डवेयर से लेकर भावनाओं तक सभी में।

यह लाइन ठीक है कि— भारत में रोमांस अब कोई निजी अनुभूति नहीं बल्कि एक ग्लोबल स्टाइल को कॉपी करने की चाहत है।

तभी तो के-ड्रामा के अंदाज़ में बनी सैयारा सुपरहिट है!

भारत में रोमांस फिल्में बना सकना मुश्किल काम हुआ है।

जाहिर है घर-परिवार, समाज और निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति — यानि प्रेम, रोमांस, संवेदना, रिश्तों पर फिल्में कम बन रही हैं। इनकी जगह क्या है? बाहुबली है, महावतार नरसिम्हा है या पठान, जवान, गदर, दंगल, परशुराम और दक्षिण की अजब-गजब फिल्मों के वे निर्माण हैं जिनमें ताक़त का भरपूर प्रदर्शन और शूरवीरता से समाधान की भूख की तृप्ति दर्शक को होती है।

पर ये फिल्में विश्व बाज़ार में हिट नहीं होतीं। जबकि कभी बॉलीवुड की फिल्में, उनके गाने सोवियत संघ से लेकर इंडोनेशिया तक सुनाई देते थे।

पर अब भारत सिर्फ अपने लोगों, ख़ास कर हिंदुओं की जनचेतना के लिए अवतारों को पर्दे पर उतार रहा है।

दर्शक ऐसे थकाए हुए हो गए हैं, जिन्हें इन्हें देखकर संतुष्टि होती है। संभाजी महाराज को तलवार चलाते देखकर गौरव प्राप्त होता है।

भारतीय दर्शक को हर अवतार के अवतरण में स्पेशल इफेक्ट्स चाहिए। संघर्ष और गौरव का थ्री-डी टूर चाहिए।

‘बॉडी बिल्डिंग’ चाहिए। शक्ति और स्पीड चाहिए। ग्लैमर के तड़के के साथ परंपरा चाहिए — और दुश्मनों पर फास्ट, डिजिटल विजय चाहिए। भावनात्मक संतोष चाहिए।

ऐसा दुनिया की किसी दूसरी सभ्यता और उसकी युवा आबादी का मिज़ाज नहीं है। चीन अपने यहां के-ड्रामा को सेंसर करता है ताकि दूसरे देश के सांस्कृतिक मनोविज्ञान के नक्शे से उसकी सभ्यतागत, राष्ट्रीय पहचान और संस्कार, मर्दानगी धूमिल न हो। चीन के ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म में स्कूली रोमांस ड्रामा, ऐतिहासिक प्रेम कहानियों की भरमार है, पर वह स्थानीय स्तर पर ही बनी और खपी होती है। चीन सिनेमाई सॉफ्टपॉवर का न निर्यातक है, न आयातक। वहां की नौजवान पीढ़ी चीन के दायरे में ही भावनाओं की एक नियंत्रित भूख लिए हुए है।

सोचिए — इस्लामी देशों और तुर्किए पर। टर्किश ड्रामा का बाज़ार पूरी इस्लामी दुनिया और मध्य एशिया में है।

पाकिस्तान, भारत में भी है। कहते हैं कि जिस शैली व कहानी में टर्किश सीरियल में इज़्ज़त, प्यार और परंपरा के मॉडल की भरीपूरी नाटकीयता होती है, वह इस्लामी देशों में हिट है।

अमेरिका और यूरोप का मामला एकदम अलग है। तमाम तरह की मुश्किलों, प्रतिस्पर्धा के बावजूद हॉलीवुड अब भी हॉलीवुड है! और कहानियों, विषयों, भावनाओं और पहचान को नवीनता, अनूठेपन से लगातार पहले की तरह परोसता हुआ है। निश्चित ही दक्षिण कोरिया के सिनेमाई उभार को हॉलीवुड भी मानने लगा है — ख़ासकर इसलिए कि के-ड्रामा लातिनी अमेरिकी देशों में भी खूब चल रहा है।

सोचिए, दुनिया में एक वक्त हॉलीवुड के बाद बॉलीवुड का ही नाम था। अब दक्षिण कोरिया का नाम है, तुर्किए का नाम है, स्पेनिश भाषा के ड्रामा की तूती है। और इन सबका प्रमुखता से यदि बाज़ार कोई है, तो वह देश भारत है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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