पिछले सप्ताह फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों ने वह कर दिखाया जिसे वैश्विक नेताओं ने या तो टाला, या डर के मारे चुप्पी साधी है, या फिर गोलमोल बाते की है। उन्होंने सीधी घोषणा की—फिलस्तीन एक संप्रभु राष्ट्र है। बिना किसी विशेषण, बिना किसी शर्त के। यह एक ठोस, जो टूक, निसंकोच तथा नीतिगत वक्तव्य था। उन्होंने कहा कि सितंबर में फ्रांस संयुक्त राष्ट्र में फिलस्तीन को औपचारिक रूप से मान्यता देने वाला 148वां देश बनेगा।
मैक्रों ने इसे “गंभीर निर्णय” कहा, और उनकी घोषणा का असर कूटनीतिक भूकंप की तरह हुआ।
अमेरिका अवाक् रह गया। इज़राइल बौखला गया। अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने इसे “गैर-जिम्मेदाराना कदम” बताया, और आरोप लगाया कि यह “हमास की प्रोपेगैंडा मशीनरी को ही ताक़त देता है और शांति प्रक्रिया को पीछे धकेलता है।” वहीं पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे नजरअंदाज़ करते हुए कहा, “मैक्रों क्या कहते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता… वह अच्छा इंसान है, लेकिन उसकी बात का कोई वजन नहीं।”
पर इज़राइल की प्रतिक्रिया अलग थी। कटु, क्रोधित और ठगे जाने की पीड़ा से भरी हुई। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इसे “आतंकवाद को इनाम देने वाला कदम” करार दिया और चेताया कि “फिलस्तीन का एक राज्य ईरान जैसा दूसरा मोहरा बन सकता है, जैसा ग़ाज़ा बन गया।” इज़राइल के रक्षा मंत्री इसराइल काट्ज़ ने इसे “आतंक के आगे समर्पण” कहा।
पर क्रोध के इस विस्फोट में एक सच्चाई छिपी थी—मैक्रों ने सिर्फ बयान नहीं दिया, उन्होंने उस पश्चिमी एकरूपता की कल्पना को तोड़ा, जो अब तक इज़राइल–फिलस्तीन प्रश्न पर ‘एक स्वर’ की तरह पेश होती थी। उन्होंने केवल इज़राइल को नहीं, बल्कि दुनिया के कूटनीतिक संतुलन को भी हिला दिया।
क्या इससे ज़मीनी सच्चाई बदलेगी? बमबारी रुकेगी? ग़ाज़ा में राहत सामग्री पहुंचेगी? भूखे बच्चों को खाना मिलेगा? ईंट से ईंट जुड़ेंगे? शायद नहीं। लेकिन यह चुप्पी तोड़ता है। यह विमर्श, बातचीत की दिशा मोड़ता है। और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कभी-कभी यही पहला डोमिनो होता है। कई बार पहली गिरी गोटी ही खेल को बदलती है।
मैक्रों का बयान ज़मीन पर कार्रवाई नहीं लाएगा, लेकिन कहानी बदल देगा।
क्योंकि कूटनीति में प्रतीकवाद कोई फिजूल की बात नहीं—वह भाव-भंगिमा होती है, जिसकी अपनी शक्ति होती है। जब कोई देश प्रतीकात्मक रुख अपनाता है, तो वह न सिर्फ सहयोगियों या विरोधियों को संदेश देता है, बल्कि दुनिया को यह बताता है कि वह किसके पक्ष में खड़ा है, किसे सुनना चाहता है, और किसे मान्यता देना चाहता है। एक G-7 देश और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते, फ्रांस ने अब मध्यस्थ नहीं, बल्कि सच बोलने वाले राष्ट्र की भूमिका चुनी है—एक ऐसा सच, जिससे अन्य कतराते रहे हैं: फिलस्तीनियों का अस्तित्व है।
फिर भी सवाल उठता है, अभी क्यों? क्या मैक्रों की आत्मा अचानक जागी? कूटनीतिक सूत्रों के अनुसार, वह महीनों से इस पर विचार कर रहे थे। क्षेत्रीय नेताओं से चर्चा, मित्र देशों से परामर्श, ब्रिटेन को साथ लाने का असफल प्रयास—सब कुछ चल रहा था। अप्रैल में मिस्र यात्रा के दौरान, जब उन्होंने घायल फिलस्तीनियों का इलाज कर रहे डॉक्टरों से मुलाकात की, वहीं शायद मन बदला। तब से फ्रांस ने इज़राइल को हथियार निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, ग़ाज़ा में राहत सामग्री पहुंचाई, और बार-बार युद्धविराम की अपील की।
मान्यता की संभावना तो कई महीनों से जताई जा रही थी, लेकिन जिस अंदाज़ और तीव्रता से यह हुआ, वह अप्रत्याशित था। इज़राइल–ईरान संघर्ष के चलते पहले ही एक महत्त्वपूर्ण सम्मेलन टल चुका था, जिसे फ्रांस सऊदी अरब और यूरोपीय सहयोगियों के साथ आगे बढ़ा रहा था।
फ्रांस का यह कदम वैश्विक व्यवस्था की थकावट, बिखराव और पाखंड पर भी चोट है। यूक्रेन की संप्रभुता पवित्र मानी जाती है, लेकिन फिलस्तीन की नहीं। रूस के युद्ध अपराधों पर प्रतिबंध लगे, अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल बैठे, लेकिन इज़राइल के सैन्य आचरण को संयुक्त राष्ट्र में बार-बार वीटो किया गया। यह दोहरा मापदंड अब स्पष्ट, निर्विवाद रूप से उजागर हो चुका हैं।
तभी यह फैसला किसी शून्य में नहीं आया। यह तीन महीनों के वैश्विक आक्रोश के बाद आया है। ग़ाज़ा में 30,000 से अधिक मौतों, बर्बाद स्वास्थ्य तंत्र, कुपोषित बच्चों की तस्वीरों, और भूख से बेहाल यूएन कर्मचारियों की टूटती चेतना और हताशा से भी निकला है।
फ्रांस का यह कदम सिर्फ इज़राइल की आक्रामकता की आलोचना नहीं, बल्कि अमेरिका की निष्क्रियता पर भी तीखा हमला है। और नहीं, इससे अभी भले वाशिंगटन या तेल अवीव की नीति नहीं बदले लेकिन पश्चिमी देशों की एकता का मिथक तो दरका है। पुराने गठबंधन अब ढीले हुए है। बिखर रहे हैं। यूरोप अब एकजुट नहीं है—बल्कि यह अलग-अलग सच्चाइयों, प्रतिस्पर्धी सहानुभूतियों और विरोधाभासी महत्वाकांक्षाओं से भरा एक भूगोल बन चुका है।
स्पेन, नॉर्वे, आयरलैंड पहले ही आगे बढ़ चुके हैं। और अब फ्रांस ने छत तोड़ दी है।
फ्रांस के लिए यह कोई क्रांतिकारी निर्णय नहीं था। 1967 के बाद शार्ल देगॉल की फिलस्तीन समर्थक नीति से लेकर 2014 में संसद द्वारा मान्यता की मांग, और 2017 में संयुक्त राष्ट्र में एक विफल प्रस्ताव तक—फ्रांस का रुख हमेशा स्पष्ट रहा है। इस बार बस विचार के साथ कार्रवाई भी जुड़ गई।
रणनीतिक रूप से, मैक्रों ने बस इतना ही कहा—फिलस्तीन मौजूद है। अब उस सच्चाई का सामना करें। न सीमाओं की बात, न राजनीतिक नेतृत्व की। केवल अस्तित्व की स्वीकृति।
अब वे आशा कर रहे हैं कि इससे एक प्रभाव, एक डोमिनो बनकर यूरोप और उससे आगे के देशों को प्रेरित करेगा। अगर जर्मनी या ब्रिटेन जैसे देश आगे आए, तो यह मध्य पूर्व की कूटनीति को नया रूप दे सकता है। अगर नहीं, तो भी फ्रांस ने कुछ ऐसा किया है जो आज की दुनिया में दुर्लभ है—ढोंग बंद किया है। और इस समय जब नियम कुछ देशों के लिए झुके रहते हैं और दूसरों पर हथियार बन जाते हैं, तो शायद सबसे क्रांतिकारी कार्य यही होता है—दो टूक सीधी बात कहना।
अब बस एक सवाल बचा है: क्या कोई और देश इतना साहस दिखाएगा? या आज के समय में इतनी सच्चाई भी बहुत बड़ी मांग बन गई है?