nayaindia jammu kashmir lok sabha election पांच सीटों का यूपी से ज्यादा वजन!

कश्मीरः पाँच सीटों का यूपी से ज्यादा वजन!

शायद इस चुनाव में कश्मीर बोले। कश्मीरियों से मेरी बातचीत के आधार पर मैं यह कह सकती हूं कि इस बार वे बड़ी संख्या में वोट देन के लिए बाहर निकलेंगे। और अपने वोट के जरिए देश और दुनिया को अपनी कहानी सुनाएंगे। उन्हें अपनी ताकत का अहसास है और वे इस ताकत की अहमियत समझते हैं… कश्मीर के नाम पर और कश्मीर के बल पर मोदी 370 सीटें जीतना चाहते हैं। वही दूसरी ओर कश्मीरी भी अपनी ताकत दुनिया को दिखा देना चाहता है।

श्रीनगर से लौट कर।

नई दिल्ली-जम्मू-कश्मीर में लोकसभा की केवल पांच सीटें हैं। लेकिन ये इस चुनाव में 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश से ज्यादा वजनदार है। कैसे? पहली बात, इस बार चुनावी चर्चा में कश्मीर की मौजूदगी पूर्व के किसी भी चुनाव से ज्यादा है। कश्मीर पर नैरेटिव सेट कियागया हैं। यों परंपरागत और ऐतिहासिक दृष्टि से भारत की राजनीति में कश्मीर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।कश्मीर ने कई सत्ताधारियों के करियर बनाए और बिगाड़े हैं। नरेन्द्र मोदी के समय में भी कश्मीर ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उनकी शानदार जीतों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

हां, कश्मीर वह लांचपैड है, वह शूटिंग रेंज है, जहाँ से या जिसके हवाले बाकी 542 सीटों पर निशाना साधा जाता है। यदि आपको  लगता है कि यह दावा अविश्वश्नीय या अतिशयोक्तिपूर्ण है तो कम से कम इतना तो मान ही लीजिये कि कश्मीर घाटी की तीन सीटें उत्तर भारत (जिसे गोबरपट्टी भी कहा जाता है) की सीटों के नतीजे तय करती हैं। हम असहमत होने के लिए सहमत हों सकते हैं मगर यह संदेह से परे है कि छोटे-से जम्मू-कश्मीर का बाकी देश के चुनावी नतीजों के लिए जो महत्व है, उसका जो असर है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। कश्मीर एक भावनात्मक मुद्दा है। यह चुनाव भले ‘‘फीका’ ‘ठंडा’ है लेकिन लोगों की चुनावी चर्चा में यदि आप कश्मीर का जिक्र कर दें और फिर देखिये माहौल कैसा‘गर्म’ होगा, भक्ति कैसे प्रकट होगी।

और हैरानी की बात जो चुनाव में, कश्मीर घाटी की तीनों सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनोंराष्ट्रीय दलों ने अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए। मैं अप्रैल के शुरूआती पखवाड़े में श्रीनगर में थी। मुझे लगा इस दफा घाटी में लोग वोट डालने निकलेंगे। चुनाव बहिष्कार का न तो फतवा होगा और न लोग ऐसी किसी बात को पसंद करेंगे। मतलब पहली बार घाटी में जज्बे से वोट पडेंगे।घाटी की वह अनहोनी होगी। इसका अंतरराष्ट्रीय असर होगा। तब भाजपा और कांग्रेस को क्यों उम्मीदवार खड़े नहीं किए? फारूख अब्दुला- उमर अब्दुला की नेशनल कांफ्रेस और मेहबूबा मुफ्ती की पीडीपी व लोकल-छोटी पार्टियों के चुनावी मैदान में नेशनल पार्टियां क्यों भला गायब है?

इसलिए पहेली है कि घाटी में भाजपा के चुनाव नहीं लड़ने और जम्मू- उधमपुर की दो सीटों पर भाजपा के सांसदों के एंटी इनकंबेसी में फंसे होने से चुनाव नतीजे यदि केंद्र सरकार के मनमाफिक नहीं आए तो राज्य में क्या होगा? सियासी खालीपन, अनिश्चितता का संकट क्या नहीं बनेगा? विधानसभा चुनाव क्या खटाई में नहीं पडेंगे?

यह भी पढ़ें: क्या कयामत के कगार पर?

बहराहल कश्मीर के भीतर और बाहर घाटी की तीन और जम्मू क्षेत्र की दो लोकसभा सीटों के चुनावों की जबरदस्त अंहमियत है। प्रदेश, देश और अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव में इन पांच सीटों के मायने बहुत अलग और गंभीर है। और अखिल भारतीय चुनाव नैरेटिव में तो खैर कश्मीर है ही।पहले चरण के कम मतदान के बाद यदि आगे भी मतदान प्रतिशत खराब रहा तोभाजपा का प्रचार तल्ख होना है। तब ज्यादा जोर सेकश्मीर की दुर्गति के लिए दूसरी पार्टियां और नेताओं को खरी-खोटी सुनाई जाएगी। बताया जाएगा कि किस तरह भाजपा ने घाटी में कमल खिला दिया है। दूसरी ओर घाटी में पार्टियों की यही कोशिश रहेगी कि वे कश्मीरी जनता की आंखों पर ऐसी पट्टी बांध दें जिससे कश्मीर में हुआ विकास उन्हें दिखे ही नहीं। देश के दूसरे इलाकों में विपक्ष लोगों को याद दिलाएगा कि मोदी किस तरह मनमानी करते आए हैं और किस तरह वे आगे भी 370 हटाने जैसे अहम फैसले बिना किसी को विश्वास में लिए करते रहेंगे।

उत्तर भारत के चुनावी हल्ले में कश्मीर लोगों के जहन में है। इसका अहसास बार-बार कई तरह से होता है।  हाल में मेरी अरूण से मुलाकात हुई। वे किसे वोट देंगे, अरूण यह बताना नहीं चाहते और शायद खुद भी इस बारे में असमंजस में है। मगर उनकी बेटी, जो पहली बार वोट देने वाली है, ने खुलकर और बिना किसी असमंजस में कहा कि वह मोदी को वोट नहीं देगी। उसके इस इरादे की वजहें आर्थिक हैं – बढती मंहगाई और घटते रोज़गार। अरूण को अपनी बेटी का नजरिया ठीक लगता है। लेकिन दूसरी ओर उनका ध्यान उनके घर के बाहर के हालात पर है। पहला, उन्हें देश महफूज नजर आता है। वे एक चिंतामुक्त, आश्वस्त हिन्दू हैं जो अपनी मोटरसाईकिल पर सवार हो नजदीकी मुस्लिम-बहुल इलाके से आराम से निकल सकते है। उसके बाद उनका ध्यान अपने राज्य के बाहर कश्मीर की ओर जाता है। वे कश्मीर के बारे में कुछ नहीं जानते, उन्हें कश्मीर से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्हें न तो कश्मीर के इतिहास की समझ है न वहां के वर्तमान परिदृश्य की। लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि वे धारा 370 और कश्मीर के बारे में क्या जानते हैं, तो वे चिढ़ जाते हैं।

Narendra Modi

“मोदी ने 370 हटाई, अब वहां लाल चौक पर पहली बार इंडिया का फ्लैग लहराता है, जो पहले कभी नहीं हुआ था”।

इससे पहले की मैं कुछ कहूं, वे व्हाटसएप यूनिवर्सिटी से अर्जित ज्ञान बघारना जारी रखते हैं।

“अब मैं वहां जमीन खरीद सकता हूं। अब हिंदू वहां बस सकते हैं”।

अरूण को इतिहास की जानकारी नहीं है। वे केवल वह जानते हैं जो पिछले दस सालों में भाजपा की ट्रोल आर्मी और प्रचारकों ने फोन के जरिए उन तक पहुंचाया है। रक्तरंजित और भयावह अतीत की कहानियां सुनते-सुनते उनकी धारणा बन गई है कि कश्मीर एक भयावह जगह है। उन्हें इस हकीकत का भी भान नहीं है कि वहां हिंदू रहते हैं, रहते रहे हैं और कश्मीर घाटी की सुहानी हवा में तिरंगा हमेशा से लहराता रहा है। लेकिन कश्मीर फाईल्स और आर्टिकल 370 जैसी फिल्मों ने उनका बुरी तरह ब्रेनवाश किया हुआ है।

इस तरह की भावनाएं और विचार रखने वाले अरूण एकमात्र व्यक्ति नहीं हैं। पूर्व सैन्य और आईआरएस अधिकारी, आईटी पेशेवर, पढे-लिखे और कम पढे-लिखे – सभी अरूण की तरह कश्मीर को लेकर किए गए प्रोपेगेंडा के शिकार हैं।

कुछ दिनों पहले मेरी मुलाकात एक पूर्व सैन्य अधिकारी से हुई। उन्होंने काफी जोशोखरोश से दावा किया कि “यदि मोदी सत्ता में न आए होते तो पीओके की तरह कश्मीर भी हम से छीन लिया गया होता।”

उनके मित्र, जो एक सेवानिवृत्त आईआरएस अधिकारी थे, ने जोड़ा, “अब कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया है। मेरे कई दोस्तों ने 370 हटाए जाने के बाद वहां जमीन खरीदी है।”

पिछले साल कश्मीर जाते समय फ्लाइट में मेरी मुलाकात एक सैलानी से हुई। उनका कहना था, “हम कश्मीर केवल तब तक जा पाएंगे जब तक मोदीजी सत्ता में हैं। उन्होंने कश्मीर को सुरक्षित बना दिया है।”

जब चारों ओर इतना जबरदस्त बेवकूफी भरा माहौल हो और बेवकूफी भरी बातें खूब जोर से, खूब गुस्से में कही जा रही हों तब आपके पास चुप्पी साधने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। यह ऐसा ही दौर है। राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखंड – आप देश के किसी भी हिस्से में जाएं, आपको यही बात सुनाई देगी कि “मोदी जी के कारण कश्मीर अब अपना हो गया है।”

यह भी पढ़ें: निर्जीव चुनाव, जीर्ण-शीर्ण हवेलियां।

अनुच्छेद 370 के हटाए जाने (जो पिछली सरकारों के कारण पहले ही निरर्थक हो चुका था) को मोदी सरकार की सबसे बड़ी और शानदार उपलब्धि माना जाता है। राम मंदिर के निर्माण से भी बड़ी। और हालांकि यह मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में ही हो गया था, फिर भी कश्मीर के मुद्दे के जरिए वे मज़बूत चुनावी नैरेटिव सेट करने में बेधड़क हैं।

और जैसा कि जॉर्ज ओरवेल हमें बता चुके हैं, जिसका नैरेटिव होता है, जीत उसी की होती है।

मगर यह अजीब है कि कश्मीर नैरेटिव पर काबिज़ होने के बाद भी भाजपा ने घाटी में एक भी उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है। अनंतनाग, श्रीनगर और बारामूला में न तो भाजपा खुद मैदान में है और ना ही किसी क्षेत्रीय पार्टी से उसका गठबंधन है। देश की सबसे बड़ी पार्टी, देश की सबसे प्यारी-दुलारी पार्टी – और घाटी में उसका एक भी उम्मीदवार नहीं! कहां गया खिलता हुआ कमल और क्या हुआ उस कश्मीर का जो अब अपना है?

ऐसे कयास हैं कि भाजपा पर्दे के पीछे से कुछ छोटी पार्टियों का समर्थन कर रही है। मगर ये सिर्फ कयास हैं। हमें आधिकारिक रूप से कुछ नहीं पता है और ना ही 4 जून से पहले पता चलने वाला है। तथ्य यह है कि जिस कश्मीर नैरेटिव के सहारे भाजपा ने शेष भारत में अपनी छवि को चमकाया है, वह नैरेटिव जम्मू-कश्मीर में सफल होता नहीं दिख रहा है। यहां तक कि भाजपा के गढ़ जम्मू और उधमपुर में भी पार्टी की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है। जितेन्द्र सिंह, जो दो बार भाजपा के उम्मीदवार के रूप में उधमपुर से जीत चुके हैं, और जम्मू से सांसद जुगलकिशोर, दोनों को सत्ता-विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। उधमपुर में मतदान हो चुका है उनके प्रतिद्वदी लालसिंह ने लड़ाई ऐसी बनाई कि मोदी, शाह और योगी के अलावा कई अन्य प्रमुख भाजपा नेताओंको सभाएं करनी पडी। सभीने याद दिलाया कि भाजपा ने अनुच्छेद 370 हटाने और राममंदिर का निर्माण करने के अपने वायदों को पूरा किया है। इसके अलावा उसने कई जनकल्याण योजनाएं शुरू की हैं और सड़कें, पुल, सुरंगें और रेल लाईनें बनाकर इलाके का विकास किया है।

उधर घाटी में नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी भी 370 के इर्दगिर्द अपना राजनैतिक नैरेटिव बुन रहे हैं। वे लोगों के दिलों में अपनी जगह फिर से  बनाने की कोशिश में हैं। वे उन्हें समझा रहे हैं कि 370 को हटाना कितना गलत था।

जाहिर है कि इस चुनाव में कश्मीर भी सत्ता की एक कुंजी है। दिल्ली का रास्ता कश्मीर से होकर भी है।

मगर, यदि कश्मीर भारत की राजनीति की बिसात का एक महत्वपूर्ण मोहरा है तो इससे यह न समझिए कि कश्मीरी बहुत मजे में हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के लोगों ने बहुत कुछ भोगा है। वहां खून-खराबा हुआ है, वहां की हवा में अब भी बारूद की गंध बाकी है। वहां दशकों तक खौफ का माहौल रहा है। मगर इससे कोई एक समुदाय पीड़ित नहीं हुआ। हर कश्मीरी, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो या ईसाई, को बर्बादी और दुःख झेलने पड़े हैं। और यह घाटी के लोगों का दुर्भाग्य ही है कि सभी ने उनकी बर्बादी पर रोटियां सेंकीं। सभी ने उनके बारे में झूठी-सच्ची कहानियां गढ़ीं और फैलाईं। सभी केवल अपने राजनैतिक और आर्थिक हितों को साधने में लगे रहे। कहने की जरूरत नहीं कि कश्मीर को वहां रहने वाले कश्मीरी ही सबसे बेहतर जानते हैं। मगर उनकी बात तो कभी सुनी ही नहीं गई। उनकी आवाज तो नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई।

मगर शायद इस चुनाव में कश्मीर बोले। कश्मीरियों से मेरी बातचीत के आधार पर मैं यह कह सकती हूं कि इस बार वे बड़ी संख्या में वोट देन के लिए बाहर निकलेंगे। और अपने वोट के जरिए देश और दुनिया को अपनी कहानी सुनाएंगे। उन्हें अपनी ताकत का अहसास है और वे इस ताकत की अहमियत समझते हैं।

2024 का चुनाव, कश्मीर में कोई उत्सव नहीं है। वहां न जोश है, न उम्मीद है और न हो-हल्ला है। मगर फिर भी, पिछले दो चुनावों की तुलना में ये चुनाव कहीं अधिक दिलचस्प बन पड़े हैं। कश्मीर के नाम पर और कश्मीर के बल पर मोदी 370 सीटें जीतना चाहते हैं। वही दूसरी ओर कश्मीरी भी अपनी ताकत दुनिया को दिखा देना चाहता है।

जो भी हो, इन चुनावों का फैसला कश्मीर करेगा। जम्मू-कश्मीर की पांच सीटें, जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे देश की नियति की निर्धारक होंगीं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें