बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वह हो रहा है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार एक के बाद एक लोक लुभावन घोषणाएं कर रही हैं। पिछले 20 साल से सरकार चला रहे नीतीश ने कभी ऐसी राजनीति नहीं की। वे लोक लुभावन घोषणाओं और रेवड़ी बांटने की योजनाओं में यकीन नहीं करते थे। एनडीए की बैठकों में जब भी मुफ्त की किसी चीज की घोषणा की बात होती तो नीतीश झिड़की देकर नेताओं को चुप करा देते थे। हर पांच साल के बाद जब वे वोट मांगने जाते थे तो उनका जुमला होता था कि पांच साल काम किए हैं और अब मजदूरी मांगने आए हैं। लोग झोली भर कर उनको मजदूरी देते थे। नीतीश की पुण्यता ऐसी थी कि उनके कंधे पर सवार होकर करीब 30 साल बाद भाजपा को सत्ता मिली और 22 सीटों पर सिमट चुकी लालू प्रसाद की पार्टी राजद को भी जीवनदान मिला। वे पारस पत्थर की तरह थे, जिसको छू दिया उसको सोना बना दिया।
वही नीतीश अब हर दिन नई घोषणा कर रहे हैं। उनकी सरकार ने 125 यूनिट बिजली फ्री कर दी। मुख्यमंत्री महिला उद्यमी योजना के नाम पर हर परिवार की एक महिला को 10 हजार रुपए देने की घोषणा हुई है। सितंबर के महीने में 2.78 करोड़ परिवारों की एक महिला को 10 हजार रुपए मिल जाएंगे, जो लौटाना नहीं है। सोचें, सीधा 27 हजार करोड़ रुपया सरकारी खजाने से चला जाएगा, वोट हासिल करने के लिए। कहा गया है कि इस योजना के तहत महिलाओं को कोई उद्यम शुरू करने का प्रस्ताव सरकार को देना होगा। अगले छह महीने सरकार उस प्रस्ताव का अध्ययन करेगी और अगर प्रस्ताव ठीक लगा तो महिला को दो लाख रुपए तक दिए जाएंगे। नीतीश सरकार ने सामाजिक सुरक्षा पेंशन यानी दिव्यांगजन, विधवा महिला और वृद्धजनों को मिलने वाली पेंशन चार सौ से बढ़ा कर 11 सौ रुपए कर दी। पत्रकारों की पेंशन छह हजार से बढ़ा कर 15 हजार रुपए कर दी गई। स्कूलों के नाइट गार्ड्स से लेकर पीटी टीचर और आशा दीदी, ममता दीदी आदि के मानदेय में बढ़ोतरी कर दी गई है।
सोचें, नीतीश कुमार महिलाओं को सशक्त बनाने का काम करते थे। वे मुफ्त में कोई चीज देने या नकद पैसे देने की बजाय कोई समग्र योजना लेकर आते थे। 2005 में सरकार में आने के बाद उन्होंने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया। ऐसे करने वाला बिहार पहला राज्य था। यह महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए था। नीतीश सरकार ने स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल और पोशाक योजना शुरू की। यह किशोर और युवा लड़कियों को सशक्त बनाने वाली योजना थी। यहां तक की 2016 में नीतीश कुमार ने राजस्व का नुकसान उठा कर शराबबंदी लागू की तो वह भी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए थी। अब वही नीतीश सरकारी खजाना खोल कर बैठे हैं ताकि चुनाव जीत सकें। पता नहीं चुनाव जीतने के बाद इन योजनाओं के लिए इतना सारा पैसा कहां से आएगा? ध्यान रहे बिहार विकास के हर पैमाने पर सबसे पीछे है।
सवाल है कि क्या नीतीश कुमार और उनकी सहयोगी पार्टियां चुनाव को लेकर इतनी आशंका में हैं कि इस तरह के कदम उठाने पड़ रहे हैं? क्या सत्तापक्ष को यह फीडबैक है कि इस बार चुनाव मुश्किल होगा? क्या नीतीश कुमार की उम्र और सेहत के हवाले उनके नेतृत्व को लेकर किसी तरह की आशंका है? क्या प्रशांत किशोर का शुरू किया गया बदलाव का एजेंडा सत्तापक्ष के लिए मुश्किल कर रहा है? जो हो लेकिन जो फैसले हो रहे हैं उनसे दिख रहा है कि कहीं न कहीं सत्तापक्ष को यह लग रहा है कि 20 साल के शासन के बाद पुराने फॉर्मूले पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है। एक तरफ विपक्षी महागठबंधन की पार्टियों ने बड़े सामाजिक आधार को साधने वाला समीकरण बनाया है, जिसमें राजद के साथ कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई माले, विकासशील इंसान पार्टी और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी शामिल हैं।
इन सभी पार्टियों का अपना सामाजिक, राजनीतिक आधार है। ऊपर से यह धारणा बनी है कि अगर नीतीश कुमार हाशिए में जा रहे हैं तो सत्ता के सहज दावेदार तेजस्वी यादव हैं। दूसरी ओर प्रशांत किशोर एनडीए के सामाजिक समीकरण को प्रभावित कर रहे हैं। वे नीतीश कुमार के राज को विफल बता कर उनकी सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़का रहे हैं। वे आकांक्षी युवाओं और आदर्शवादी लोगों को अपनी साथ जोड़ रहे हैं। पलायन रोकने, रोजगार देने, शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार करने का उनका एजेंडा बिहार के चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गया है। संभवतः इस वजह से सत्तापक्ष की चिंता बढ़ी है और लोक लुभावन घोषणाओं का अंबार लगा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक व्यक्ति के लगातार 20 साल के शासन के बाद उसके प्रति लोगों में नाराजगी होती है। उससे ऊब भी होती है और एक ही चेहरा देखते देखते मतदाताओं में एक किस्म की थकान भी होती है। अगर कोई संसाधन से लैस सक्षम नेता इस ऊब और थकान को बढ़ाने के लिए लगातार काम करे तो उसे आक्रोश में तब्दील किया जा सकता है। यही काम प्रशांत किशोर बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ कर रहे हैं। वे लोगों की ऊब और थकान को आक्रोश में बदलने के लिए काम कर रहे हैं। इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार के खिलाफ जमीनी स्तर पर इतना आक्रोश पैदा हो गया है कि लोग उनको उखाड़ फेंकने के लिए बेचैन हो गए हैं। लोगों के मन में अब भी नीतीश कुमार के लिए एक नरम कोना है। सत्तापक्ष को इसका अंदाजा है।
अगर बहुत आक्रोश हो तो किसी लोक लुभावन घोषणा से उसे पलटा नहीं जा सकता है। लेकिन अगर आक्रोश नहीं है, बल्कि थोड़ी नाराजगी, ऊब और थकान है तो उसको लोक लुभावन घोषणाओं से दूर किया जा सकता है। चुनाव से पहले यही काम नीतीश कुमार की सरकार कर रही है और इस वजह से प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के साथ साथ तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन की चुनौतियां बढ़ गई हैं।
बिहार में चुनाव से पहले की स्थितियां कुछ कुछ 2018 के मध्य प्रदेश के चुनाव की तरह दिख रही हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में भाजपा की सत्ता 15 साल की हो गई थी, जिसमें 12 साल से शिवराज सिंह चौहान ही मुख्यमंत्री थे। सो, उनके प्रति लोगों में नाराजगी थी, ऊब थी, उनके चेहरे से थकान थी लेकिन ऐसा आक्रोश नहीं था कि उखाड़ फेंकना है। यह चुनाव नतीजे में भी दिखा। भाजपा चुनाव हारी लेकिन हार जीत का अंतर बहुत कम रहा। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को सिर्फ पांच सीटें कम मिलीं। कांग्रेस ने 114 और भाजपा ने 109 सीटें जीतीं। पांच सीट कम जीतने के बाद भी भाजपा का वोट प्रतिशत कांग्रेस से ज्यादा था।
शिवराज सिंह चौहान ने 2023 के चुनाव से पहले जो लाड़ली बहना योजना शुरू की थी अगर वैसी कोई योजना उनकी सरकार 2018 में ले आती तो शायद चुनाव नहीं हारती। ऐसा लग रहा है कि बिहार में एनडीए और नीतीश सरकार ने उससे सबक लिया है और मतदाताओं की नाराजगी को आक्रोश में बदलने से रोकने के लिए लोक लुभावन घोषणाओं का अंबार लगा दिया है। इससे विपक्षी पार्टियों के लिए चुनौती बढ़ गई है। वे जो वादे करेंगे या गारंटी देंगे वह सब जब सरकार पहले से दो रही होगी तो जमीन पर लोगों को सत्ता बदलने के लिए राजी करना मुश्किल हो जाएगा।