बिहार में जाति गणना हो चुकी है। अब राष्ट्रीय स्तर पर जातियों की गिनती होने वाली है। पांच साल से रूकी जनगणना अगले साल होगी। उसमें जातियां गिनी जाएंगी। अभी तक अंग्रेजों के जमाने में 1931 में हुई जनगणना के जातियों का अनुमान लगाया जाता था। अब जातियों की संख्या सबके सामने है। बिहार में नीतीश कुमार और तत्कालीन उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने जाति गणना कराई थी। उनको लग रहा था कि पिछ़डी और अति पिछड़ी जातियों की संख्या सामने आने के बाद मंडल की राजनीति मजबूती से स्थापित होगी। लेकिन विडम्बना देखिए कि जाति गणना के बाद जो पहला चुनाव हुआ उसमें अगड़ा और पिछड़ा का मुद्दा लगभग गायब रहा और पूरी राजनीति 10 फीसदी सवर्णों के इर्द गिर्द घूमती रही। अंत नतीजे में करीब 30 फीसदी सवर्ण विधायक बिहार विधानसभा पहुंचे।
असल में जाति गणना ने बिहार की राजनीति को बिल्कुल दूसरी तरह से प्रभावित किया है। इसके आंकड़ों ने बिहार की सबसे बड़ी जाति यानी यादव को लगभग पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया। बिहार में अत्यंत पिछड़ी जातियों की आबादी 36 फीसदी है, जिसमें 26 फीसदी हिंदू अति पिछड़े हैं। इस 26 फीसदी में कुल 80 जातियां हैं, जिनमें से सिर्फ तीन ऐसी हैं, जिनकी आबादी दो फीसदी या उससे ज्यादा है। जैसे ही इन जातियों की संख्या सामने आई इनके अंदर एक प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा हुआ। राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी की ललक जगी। उनको अहसास हुआ कि उनके हिस्से का लाभ सिर्फ एक संख्या बल (जैसे यादव, कुर्मी) से मजबूत जाति को मिल रहा है। एक तरफ ये जातियां और ज्यादा बंटी तो दूसरी ओर 10 फीसदी सवर्ण आबादी एकजुट हुई। उधर पिछड़ा पहचान टूट रही थी। वही दूसरी ओर सवर्ण पहचान मजबूत हो रही थी। इस 10 फीसदी की एकजुटता का कमाल बिहार की राजनीति में दिखा है।
आगे पूरे देश में यह प्रक्रिया दोहराई जाएगी। सवाल है क्या भाजपा को लग रहा है कि बिहार में जाति गणना ने जो कमाल किया है उसे पूरे देश में किया जा सकता है? क्या जाति गणना सही अर्थों में भाजपा और संघ के वास्तविक एजेंडे को लागू करने वाला होगा? ध्यान रहे जातियों की गिनती के बाद भारतीय राजनीति के कई मिथक टूटेंगे। जातियों का ध्रुवीकरण अलग तरह से होगा। अगर आरक्षण के भीतर वर्गीकरण यानी आरक्षण के भीतर आरक्षण का फैसला लागू हुआ। यदि सरकारों ने हिम्मत दिखाई कि पिछड़ों और दलितों में भी जो ज्यादा वंचित हैं उनको ज्यादा आरक्षण दिया जाएगा तो फिर जाति गणना का दांव राजनीतिक रूप से भाजपा को ज्यादा फायदा पहुंचेगा क्योंकि इससे मंडल की राजनीति करने वाली पिछड़ा, दलित, अहिंदा राजनीति करने वाली पार्टियां कमजोर होंगी। तभी दिख रहा है कि सवर्ण राज बनाने का भाजपा और संघ का एजेंडा आगे बढ़ रहा है। बिहार में यह मॉडल सफलतापूर्वक दिखा है। दूसरे कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड में तो भाजपा ने यों भी सवर्ण मुख्यमंत्री बना रखे है।


