नीतीश कुमार 2005 में जब पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने थे तब यह नारा खूब चला था, ‘ताज कुर्मी का, राज भूमिहार का’। हालांकि ताज और राज दोनों नीतीश कुमार का ही था। आगे भी रहा लेकिन उस समय ललन सिंह सबसे पावरफुल मंत्री थे। तब चुनाव हारने के बावजूद नीतीश कुमार ने विजय चौधरी को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। अभयानंद बिहार के पुलिस प्रमुख यानी डीजीपी बने थे, जिन्होंने कानून व्यवस्था ठीक करके बिहार के लोगों के मन में सुरक्षा का भाव पैदा किया। यह एकमात्र काम 2010 में एनडीए की ऐतिहासिक जीत का कारण बना था। तब से किसी न किसी रूप में नीतीश राज में सवर्णों का वर्चस्व होने की बात चलती रहती है।
इस लिहाज से 2025 का विधानसभा चुनाव वाटरशेड मोमेंट है। 35 साल की मंडल राजनीति के बीच अगड़ी जातियों में यह बात पैंठ गई थी कि उनके हाथ में कभी सीधे सत्ता नहीं आनी है। दूसरी बात जो उनमें पैंठी वह ये है कि किसी एक पार्टी का बंधुआ बन कर रहने का नुकसान होगा। इस बार का चुनाव सवर्णों को हुए इन दोनों इल्हामों का चरम था। एक तरफ पिछड़ी जातियों के बीच सत्ता का संघर्ष था। दूसरी ओर सवर्ण जातियों में यह भाव था कि कोऊ नृप हो हमे का हानि। इसका नतीजा यह हुआ कि जो पार्टियां अगड़ी जातियों को घास नहीं डालती थीं या समझती थीं कि अगड़ी जातियों का विरोध पिछड़ा वोट एकजुट करेगा। पर इससे पार्टियां तश्तरी में टिकट लेकर अगड़ी जातियों के सामने खड़ी हो गईं।
टिकट बंटवारे के समय बिहार में दिलचस्प तस्वीर थी। लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने खुले दिन से भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ को टिकट देने का ऐलान कर रखा था। दूसरी ओर जन सुराज पार्टी बना कर प्रशांत किशोर चुनाव मैदान में उतरे थे, जो खुद ब्राह्मण हैं। इस वजह से यह धारणा बन गई थी कि अगड़ी जातियां खास कर भूमिहार और ब्राह्मण प्रशांत किशोर के साथ जा रहे हैं। सो, एक तरफ राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन अगड़ी जातियों को रिझाने में लगा था तो दूसरी ओर जन सुराज का विकल्प सामने खड़ा था। इन दोनों बातों का नतीजा यह हुआ कि भाजपा और जनता दल यू दोनों की मजबूरी हो गई कि वे ज्यादा से ज्यादा सवर्ण उम्मीदवार उतारें।
एनडीए का पूरा नेतृत्व पिछड़ी और दलित जातियों का है। जदयू में नीतीश कुमार, भाजपा में सम्राट चौधरी और रालोमो के नेता उपेंद्र कुशवाहा हैं। इसके अलावा दो अन्य सहयोगी पार्टियों के नेता चिराग पासवान और जीतन राम मांझी हैं। लेकिन भाजपा ने अपने कोटे की 101 में से 49 उम्मीदवार अगड़ी जाति के दिए और नीतीश कुमार ने 101 में से 22 अगड़े उम्मीदवार दिए। यानी दोनों बड़ी पार्टियों के 71 सवर्ण उम्मीदवार थे। चिराग पासवान के 29 में से 12 उम्मीदवार सवर्ण थे। मांझी की पार्टी को छह सीटें मिली थीं, जिसमें से दो सवर्ण थे तो कुशवाहा की पार्टी में भी छह में से दो सवर्ण थे। इस तरह एनडीए से 87 यानी करीब 35 फीसदी सवर्ण उम्मीदवार थे।
दूसरी ओर महागठबंधन की पार्टियों ने भी खुले दिल से अगड़ी जातियों को टिकट दिए। राष्ट्रीय जनता दल एक भी भूमिहार उम्मीदवार नहीं देती थी, इस बार उसने छह टिकट दिए और दो सीटों पर भूमिहार जीते हैं। सबसे दिलचस्प और राजनीति को बदलने वाली जीत जहानाबाद सीट पर हुई। यह सीट पिछले पांच दशक से भूमिहार और यादव के संघर्ष का केंद्र रही है। वहां तेजस्वी यादव ने मौजूदा यादव विधायक सुदय यादव को हटा कर जगदीश शर्मा के बेटे राहुल शर्मा को टिकट दिया। जहानाबाद सीट पर यादवों ने पूरी ताकत लगा दी राहुल शर्मा को जिताने में और अंततः काटें की लड़ाई के बाद राहुल जीते।
जहानाबाद अगर भूमिहार और यादव के संघर्ष की जमीन है तो बेगूसराय की मटिहानी सीट सबसे ज्यादा भूमिहार वोट वाली सीट है। हमेशा से भूमिहार वर्चस्व की सीट रही है। वहां राजद ने भूमिहार समाज के बोगो सिंह को टिकट दिया तो जदयू ने मौजूदा भूमिहार विधायक राजकुमार सिंह को टिकट दिया। राजकुमार सिंह पिछली बार लोजपा के इकलौते विधायक जीते थे। इस बार मटिहानी में राजद के बोगो सिंह ने उनको हरा दिया। जहानाबाद और मटिहानी सीट से राजद के भूमिहार उम्मीदवारों का जीतना बिहार की राजनीति को नई दिशा देना है। फारवर्ड दबदबे का लौटना है।
अगर आंकड़ों की बात करें तो इस बार बिहार में 73 सवर्ण विधायक जीते हैं। इनमें राजपूत सबसे ज्यादा 32 हैं तो 25 भूमिहार, 14 ब्राह्मण और दो कायस्थ जीते हैं। बिहार की 243 सदस्यों की विधानसभा में 30 फीसदी सवर्ण विधायक हैं, जिनकी आबादी 10 फीसदी बताई जाती है। यानी आबादी के अनुपात में तीन गुना सवर्ण विधायक हैं। 26 मंत्रियों की जो सरकार बनी है उसमें भी लगभग एक तिहाई यानी आठ मंत्री सवर्ण हैं। हालांकि इस संख्या से भी पूरी तस्वीर सामने नहीं आती है। पूरी तस्वीर जमीन पर दिखती है। इस बार दोनों गठबंधनों में और जन सुराज पार्टी में भी जमीन पर चुनाव लड़ने और लड़ाने वाले चेहरे सवर्ण दिख रहे थे। उनको नेता नीतीश कुमार या सम्राट चौधरी या तेजस्वी यादव को ही बनाना था लेकिन चुनाव की कमान उनके हाथ में थी। पिछड़ी जातियों में उनके प्रति दूरी या नफरत नहीं थी, बल्कि उन्हीं से उम्मीद थी कि वे उनके नेता को बिहार की सत्ता दिला सकते हैं।


