ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस आलाकमान ने भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के आगे हथियार डाल दिया है। वे बिल्कुल अपने अंदाज में राजनीति कर रहे हैं। जैसे जैसे ढाई साल की कथित समय सीमा नजदीक आ रही है वैसे वैसे उनकी आक्रामकता बढ़ती जा रही है। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान पर इतना दबाव डाल दिया है कि अगर उनके मन में डीके शिवकुमार को ढाई साल के बाद मुख्यमंत्री बनाने का रत्ती भर भी विचार है तो वह उस बारे में सोचना बंद कर दे। अब कर्नाटक में जैसी राजनीति हुई है उसमें सिद्धारमैया को बदलना कांग्रेस के लिए आत्मघाती हो सकता है।
सिद्धारमैया ने मैसुरू दसरा कार्यक्रम का उद्घाटन बानू मुश्ताक से ही कराया। तमाम राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी दबावों के बावजूद वे नहीं झुके। सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया। तमाम सामाजिक समूह भी विरोध कर रहे थे कि हिंदू त्योहार का उद्घाटन कोई मुस्लिम क्यों करेगा, चाहे उसकी उपलब्धियां कितनी भी बड़ी हों। लेकिन सिद्धारमैया ने कराया। इसी तरह राज्य सरकार की ओर से शुरू कराई गई जाति गणना से लिंगायत समुदाय में विभाजन स्पष्ट है। पिछले दिनों एक मठ के स्वामी को हटाया गया क्योंकि उन्होंने लिंगायत लोगों से अपील की थी कि वे अपने को हिंदू धर्म में ही गिनती कराएं। ज्यादातर समूहों ने अपने को अन्य श्रेणी में दर्ज कराने का फरमान जारी किया है। सो, हिंदू धर्म के विभाजन का दांव भी उन्होंने चला है। ऊपर से पिछड़ी जातियों के बीच अपना आधार मजबूत किया है। एक तरह से डीके शिवकुमार को उन्होंने वोक्कालिगा तक समेट कर रख दिया है।