यह समझ में नहीं आ रहा है कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को न्यायपालिका बनाम राष्ट्रपति के विवाद में क्यों बदलना चाहती है? सुप्रीम कोर्ट ने आठ अप्रैल को एक फैसला सुनाया था, जिसमें कहा था कि राज्यों की विधानसभा से पास विधेयकों के ऊपर राज्यपालों को कोई वीटो का अधिकार नहीं प्राप्त है, जो वे विधेयकों को महीनों या सालों रोके रख सकें। उसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति को भी अधिकतम तीन महीने में उस पर फैसला करना होगा। इस फैसले के एक महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत एक नोट सुप्रीम कोर्ट को भेजा है, जिसमें उन्होंने 14 सवाल पूछे हैं। हालांकि कानूनी रूप से सुप्रीम कोर्ट इनका जवाब देने या इसके हिसाब से काम करने को बाध्य नहीं है। फिर भी सवाल है कि क्यों इसकी जरुरत पड़ी?
अगर भारत सरकार को यह फैसला पसंद नहीं आ रहा है तो वह क्यों नहीं संसद में कानून बना कर इस फैसले को पलट देती है? इसमें इतना दांवपेंच करने की क्या जरुरत है? ऐसा लग रहा है कि सरकार को अच्छा भी बने रहना है, सुप्रीम कोर्ट से भी टकराव नहीं लेना है, उसके फैसले भी नहीं पलटने हैं ताकि बाद में कह सकें कि कांग्रेस की सरकारों ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले पलट दिए थे और उसका फैसला मानना भी नहीं है। तभी उसने इस विवाद में राष्ट्रपति को शामिल कर लिया। ध्यान रहे संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक राष्ट्रपति केंद्र सरकार के सलाह और सहयोग से ही काम कर करता है। इसलिए राष्ट्रपति ने जो रेफरेंस सुप्रीम कोर्ट को भेजा है वह सरकार की सलाह पर भेजा गया है। इसकी बजाय सरकार को खुद समीक्षा याचिका दायर करनी चाहिए और अगर उसके काम नहीं चलता है तो संसद में कानून बनाना चाहिए। वैसे भी देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोग तो लगातार बता ही रहे हैं कि संसद सर्वोच्च है तो फिर संसद की सर्वोच्चता सरकार क्यों नहीं साबित करती है?
क्या सरकार यह मान रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है और सर्वोच्च अदालत ने एक ऐसी विसंगति को ठीक किया है, जिसे बहुत पहले ठीक कर दिया जाना चाहिए था? क्या इसलिए वह सीधे इसको चुनौती देने की बजाय परोक्ष रूप से इसका विरोध कर रही है? असल में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सीधा और जनता के हित वाला फैसला दिया है। अगर राज्य की चुनी हुई कोई सरकार विधानसभा में कोई विधेयक पास करती है तो उसे कैसे राज्यपाल तीन तीन साल तक रोक कर रख सकते हैं? यह बहुत सहज रूप से लोगों को समझ में आने वाला फैसला है। अगर किसी भी सरकारी अधिकारी को समय सीमा में कोई काम निपटाने को कहा जाए तो इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने यही कहा है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि विधानसभा से पास कानून को राज्यपाल अनंतकाल तक रोक कर नहीं रख सकते हैं। उन्होंने एक निश्चित अवधि में इस पर फैसला करना होगा। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को भी एक निश्चित अवधि में इसके बारे में फैसला करना होगा। संसद की सर्वोच्चता बताने वाले कहते हैं कि उसे जनता ने चुना है तो क्या विधानसभाओं का चुनाव एलियंस करते हैं या इसी देश की जनता करती है? फिर जनता के चुने सदन के बनाए कानून को कोई कैसे अनंतकाल तक रोक सकता है? वैसे भी यह कितना अश्लील है कोई सुप्रीम कोर्ट में खड़े होकर इस बात को डिफेंड करे कि राज्यपाल को सरकार का बिल अनंतकाल तक रोके रखने का अधिकार होना चाहिए!