अपेक्षित यह है कि सरकार खाड़ी, पश्चिम एशिया और रूस जैसे स्रोतों से एलपीजी की खरीदारी पर आने वाली लागत और अमेरिका से खरीदारी पर आने वाले खर्च का तुलनात्मक विवरण सार्वजनिक करे। देशवासियों को यह जानने का हक है।
अमेरिका से 22 लाख टन रसोई गैस खरीदने के लिए हुए सौदे को पेट्रोलियम मंत्री हरदीप पुरी ने ‘ऐतिहासिक’ करार बताया और कहा कि देश की जनता को ‘किफायती’ दर पर सप्लाई करने के मकसद से एलपीजी खरीदारी का एक नया स्रोत हासिल किया गया है। स्पष्टतः उन्होंने इसे नरेंद्र मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया। लेकिन हकीकत यह है कि ये फैसला अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौता की मोदी सरकार की बेकरारी की मिसाल है। खुद सरकारी सूत्रों ने कहा है कि इससे अमेरिका के व्यापार घाटे को पाटने में मदद मिलेगी, जो व्यापार समझौते के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की शर्त है। इसके अलावा खबर है कि भारत सरकार अमेरिका से सोयाबीन और कुछ अन्य कृषि उत्पादों को खरीदने पर भी तैयार हो सकती है। बहरहाल, गौरतलब है कि एलपीजी की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोई कमी नहीं है।
भारत अब तक अपनी जरूरत अन्य स्रोतों से पूरी करता रहा है। अमेरिकी कंपनियों की तुलना में उन स्रोतों को इसलिए तरजीह मिली है, क्योंकि उनसे खरीदना भारत को किफायती पड़ता है। धारणा यह है कि अमेरिकी गैस अपेक्षाकृत महंगी होती है और उसे लाने की परिवहन लागत भी ज्यादा बैठती है। इसलिए हरदीप पुरी का दावा सहज ही देशवासियों के गले नहीं उतरेगा। अपेक्षित यह है कि सरकार खाड़ी, पश्चिम एशिया और रूस जैसे स्रोतों से खरीदारी पर आने वाली लागत और अमेरिका से खरीदारी पर आने वाले खर्च का तुलनात्मक विवरण देश के सामने प्रस्तुत करे।
ताजा करार के मुताबिक अमेरिका से एलपीजी की खरीदारी पब्लिक सेक्टर की कंपनियां करेंगी। यानी जो भी खर्च आएगा, वह करदाताओं की जेब से चुकाया जाएगा। अतः देश को जानने का हक है कि मोदी सरकार की विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताओं को पूरा करने का कितना आर्थिक बोझ उन पर आएगा। आने वाले दिनों में लागत बनाम लाभ के ऐसे ही सवाल कृषि पैदावार की खरीदारी (अगर हुई तो) के संबंध में उठेंगे। प्रश्न यह भी पूछा जाएगा कि ये सारी कीमत चुकाने के बदले व्यापार एवं भू-राजनीति में भारत को क्या हासिल हो रहा है?


