जीएम फसलें कृषि के लिए लाभदायक हैं या हानिकारक? नीति आयोग अगर पहले इस निष्कर्ष पर था कि इनके आयात से कृषक समुदाय को हानि नहीं होगी, तो अब अपने वर्किंग पेपर को वापस लेने का क्या तर्क है?
नीति आयोग का काम देश हित में उचित सुझाव देना है या उसकी भूमिका सरकार जो करने जा रही हो, उसे उचित ठहराने के तर्क समाज में उछालना भर रह गया है? ये प्रश्न हाल में उसके कुछ तथाकथित अध्ययन पत्रों से उठा है। कुछ समय पहले आयोग का एक पत्र विवादों में आया, जिसमें भारत में चीनी कंपनियों के निवेश के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने की वकालत की गई थी। आयोग ने चीनी निवेश के फायदे ठीक उस समय बताए, जब मोदी सरकार ने चीन से संबंध सामान्य बनाने की दिशा में बढ़ना शुरू किया था। उसका एक और पत्र विवादास्पद हुआ, जिसमें आयोग ने सोयाबीन और मक्के की जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) अमेरिकी फसलों के लिए भारत का दरवाजा खोलने का सुझाव दिया।
यह उस समय की बात है, जब भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौता होने की उम्मीदें परवान चढ़ी हुई थीं। मगर समझौता नहीं हुआ और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत पर 50 फीसदी (इनमें 25 फीसदी रूस से कच्चा तेल खरीदने के दंडस्वरूप है) टैरिफ लगा दिया। तो अब खबर आई है कि नीति आयोग ने जीएम फसलों से संबंधित अपने उपरोक्त वर्किंग पेपर को वापस ले लिया है। ये खबर आने के दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भावनात्मक घोषणा की थी कि भले उन्हें निजी कीमत चुकानी पड़े, लेकिन वे किसानों के हितों पर आंच नहीं आने देंगे! किसानों के हित से जुड़े जो मुद्दे व्यापार वार्ता की मेज पर हैं, उनमें जीएम फसलें भी हैं।
सवाल है कि जीएम फसलें भारतीय कृषि के लिए लाभदायक हैं या हानिकारक? नीति आयोग के अध्ययनकर्ता अगर पहले इस निष्कर्ष पर थे कि इनके आयात से कृषक समुदाय को कोई हानि नहीं होगी, तो अब उस निष्कर्ष को वापस लेने का क्या तर्क है? अथवा, पहले भी समझ यही थी कि इन फसलों को आने देना ठीक नहीं है, फिर भी व्यापार समझौते में भारत सरकार की राह आसान बनाने के लिए उपरोक्त सिफारिश की गई थी? नीति आयोग को इन सवालों के जवाब अवश्य देने चाहिए। वरना सवाल उसकी साख पर उठ खड़े होंगे।